विशेष :

जागते रहो

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Jagte raho

ओ3म् यो जागार: तमृच: कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति।
यो जागार: तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योका:॥ ऋग्वेद 5.44.14॥
ऋषि: अवत्सार: काश्यप: देवता विश्‍वेदेवा:॥ छन्द: विराट्त्रिष्टुप्॥

विनय- संसार में परिपूर्ण जाग्रत तो एक ही है, वह अग्नि परमात्मा है। यह सर्वथा अनिद्र है, त्रिकाल में जाग्रत है। उसमें तमोगुण का (अज्ञान व आलस्य का) स्पर्श तक नहीं है। अतएव सब ऋचाएँ एवं संसार की सब स्तुतियाँ उसी को चाह रही हैं- उसके प्रति हो रही हैं। सब सामों का, मनुष्यों के लिये सब यशोगानों का, सब स्तुतिगीतियों का भाजन भी वही एक परम-जाग्रत् देव हो रहा है और देखो, यह समस्त भोग्य-संसार- भोग्य बना हुआ यह सोमरूप ब्रह्माण्ड उसी जागरूक अग्निदेव के पैरों में पड़ा हुआ कह रहा है,‘‘मैं तेरा हूँ, तेरे ही आश्रय से मेरी सत्ता है, तेरी मित्रता में मेरा निवास हो रहा है, तुझसे हटकर मुझे और कहीं ठौर नहीं है।‘‘

इसी प्रकार हम मनुष्य जीव भी यदि अपनी शक्तिभर सदा जाग्रत रहेंगे, सदा सावधान और कटिबद्ध रहेंगे, तमोगुण को दूर हटाकर सदा चैतन्ययुक्त अतन्द्र रहेंगे, आलस्य के कभी भी वशीभूत न होकर अपने कर्त्तव्य को तत्क्ष्ण करने के लिए सदा उद्यत रहेंगे, कभी प्रमाद न करते हुए बिना भूलचूक के अपने कर्त्तव्य को ठीक-ठीक करते जाने के अभ्यासी हो जाएँगे, तो हम भी अतने ही अंश में ‘अग्नि‘ रूप हो जाएँगे।

परन्तु वास्तविक भोक्ता होना आसान नहीं। संसार के विषयी पुरुष तो भोगों के भोक्ता होने की जगह भोगों के भोग्य बने हुए हैं। परन्तु वही ऐश्‍वर्य, वही सुख, वही सुख-भोग, जिसके पीछे यह सब संसार दौड़ता फिरता है, पर जो लोगों को मिलता नहीं, वही ऐश्‍वर्य (सोम) जाग्रत् पुरुष के सामने हाथ बाँधकर, सेवक होकर शरण पाने के लिए आ खड़ा होता है। अग्नित्व को प्राप्त उस मनुष्य के लिए वास्तव में संसार के सब भोग्य-पदार्थ उसकी मित्रता में, उसके हितसाधन के निमित्त, सदा नियत स्थान पर उपस्थित रहते हैं। उसे उन पर प्रभुत्व प्राप्त हो जाता है । अत: हे मनुष्यो! जागो, जागो, सदा जाग्रत रहो! तामसिकता त्यागो और निरालस्य जीवन का अभ्यास करो! जागरूकों के लिए ही यह संसार है । स्तुत्यता, लोकमान्यता, यश, भोक्तृत्व यह सब जागते रहनेवाले के ही लिए है।

शब्दार्थ- य: जागार=जो जागता है तम्= उसे ऋच:=ऋचाएँ, स्तुतियाँ कामयन्ते= चाहती हैं, य: जागार=जो जागता है तं उ=उसे ही सामानि=साम, स्तुतिगान यन्ति=प्राप्त होते हैं और य: जागार=जो जागता है तम्=उसे, उसके सामने आकर अयम्=यह सोम:=सोम, भोग्य-संसार आह=कहता है कि तव अहं अस्मि=मैं तेरा हूँ, सख्ये न्योका:=तेरी मित्रता में ही मेरा निवास है, तेरे सख्य के लिए मैं सदा नियम स्थान पर उपस्थित हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- जनवरी 2015)

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