किसी के उपकार को मानना कृतज्ञता है। यह एक दिव्य गुण है। जबकि किसी के उपकार को न मानना कृतघ्नता है। यह पाप है। हमारे इतिहास में अनेक ऐसे प्रेरक उदाहरण हैं, जो हमें इस ओर सचेष्ट करते हैं कि हमें जीवन में कृतज्ञता जैसे पुण्य को अवश्य अर्जित करना चाहिए।
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र उन उच्चकोटि के प्रसिद्ध साहित्यकारों में थे, जिनकी विशेषताओं के कारण उनके समय को भारतेन्दु युग की संज्ञा दी जाती है। वे असीम उदार थे। अपनी उदारता के कारण वे धनाभाव से ग्रस्त रहते थे। एक समय इनके पास ऐसा भी आया कि जब इनके पास इतने भी पैसे न थे कि बाहर से आए पत्रों का उत्तर भी भेज सकें। पत्रों के उत्तर तो लिखते थे, किन्तु डाक में तो तभी भेजे जाएं जब उन पर यथोचित डाक टिकट लगे। किन्तु इसके लिए पैसे कहाँ थे? परिणाम यह हुआ कि पत्र के उत्तरों का ढेर जमा हो गया। उनके एक मित्र ने जब यह देखा तो द्रवित हुआ और पांच रुपये के डाक टिकट लाकर दिए। तब वे पत्र डाक में डाले गए।
समय बदलता रहता है। भारतेन्दु जी का आर्थिक अभाव टल गया। उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी। अब जब भी वह मित्र मिलते, तभी भारतेन्दु जी बलपूर्वक उनकी जेब में पाँच रुपये डाल देते और कहते “आपको याद नहीं, आपके पाँच रुपए मुझ पर ऋण हैं।’’ मित्र इनके इस व्यवहार से तंग आ गया और एक दिन उनसे कहा- ’‘मुझे अब आपसे मिलना बन्द करना पड़ेगा।’’
भारतेन्दु जी की आँखों में आँसू भर आए और वे रुन्धे कण्ठ से बोले- “भाई! तुमने ऐसे समय में मुझे पांच रुपए दिए थे कि मैं जीवन भर नहीं भूल सकता। मैं तुम्हें यदि पाँच रुपये प्रतिदिन देता रहूँ, तो भी तुम्हारे ऋण से नहीं छूट सकता।’’
बात साधारण सी है। किन्तु कृतज्ञता के भाव को गम्भीरता से प्रकट करती है।
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