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आर्य सम्बोधन का महत्व एवं ऐतिहासिकता

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Importance and Historicity of Arya

किसी भी राष्ट्र व सभ्यता का आधार उसका अतीत अर्थात इतिहास होता है। भारत की सभ्यता व संस्कृति का आधार आर्य एवं वैदिक धर्म है। पिछले सौ-दौ सौ वर्षों में अग्रेजों व कम्यूनिस्टों के द्वारा आर्य शब्द, आर्य सभ्यता व वैदिक धर्म को विकृत करने का घोर प्रयास किया गया है।

अन्य देशों के समान भारत पर भी अंग्रेजों द्वारा स्थायी राज्य करने हेतु आर्यों को एक जाति के रूप में बताकर उन्हें भारत से बाहर का आना बताया गया। साथ ही यहाँ के मूल निवासी कोल, द्रविण, भील, सन्थाल आदि को मारकर जंगलों में भगाकर आर्यों द्वारा भारत में राज्य करना बताया गया। इसी प्रकार यह भी असत्य प्रचार किया गया कि रामायण-महाभारत काल्पनिक हैं तथा वेदों में कुछ भी ज्ञान नहीं है, वे तो गडरियों के गीत है। अत: आर्य शब्द व आर्य शब्द के वैदिक साहित्य में भावार्थ एवं उपयोग पर संक्षेप में विचार किया जाना नितान्त आवश्यक है।

‘आर्य‘ शब्द की व्युत्पत्ति ॠ गतौ धातु से होती है। आर्य शब्द के गुणवाचक होने के कारण मूल धातु के तीन अर्थ हैं- ज्ञान, गमन, व प्राप्ति अर्थात आर्य उन मनुष्यों का गुणवाचक नाम है जो ज्ञानी एवं बुद्विमान हैं, गमन अर्थात पुरुषार्थी हो, प्राप्ति अर्थात उच्च लक्ष्य की प्राप्ति करने वाला एवं जीवन का उच्च उद्देश्य बनाने वाला। स्पष्ट है जिस मनुष्य ने श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार अपना उत्तम आचरण बना लिया है, ऐसा उत्कृष्ट गुण युक्त मनुष्य आर्य कहलाने का अधिकारी है, चाहे वह किसी भी राष्ट्र, मत, सभ्यता या समाज का हो।

उल्लेखनीय है कि मानव की उत्पत्ति सृष्टि के प्रारम्भ में तिब्बत प्रदेश में अमैथुनी रूप में हुई थी, जिसमें बहुत सारे नर-नारी उत्पन्न हुए थे। उन्हीं में से चार श्रेष्ठ मनुष्यों के ह्रदय में ईश्‍वर की प्रेरणा से चार वेदों का प्रकाश हुआ था। चुंकि सृष्टि के प्रथम में उत्पन्न मनुष्य उच्च गुण-कर्म एवं स्वभाव वाले थे, अत: वे आर्य कहलाये। वेदों से लेकर कुछ काल पूर्व तक आर्यावर्त अर्थात भारत में रहने वालों को आर्य ही कहा जाता रहा है।

चारों वेदों में आर्य शब्द का उपयोग हुआ है। जिसमें सर्वाधिक 37 बार ऋग्वेद में हुआ है।

ज्योतिश्‍चक्रथुरार्याय। (ॠग्वेद 1.117.21)
अर्थात परमात्मा ने आर्य पुरुष के लिए ज्ञान रूपी ज्योति को दिया।

आर्या ज्योतिरग्रा। (ॠग्वेद 7.33.7)
ज्योति अर्थात ज्ञान के प्राप्त करने वाले ज्ञानवान व्यक्ति को आर्य कहते हैं।

अपावृणोर्ज्योतिरार्याय। (ॠग्वेद 2.11.18)
आर्यों के लिए ज्योति को अनावृत्त किया।

आर्या व्रता विसृजन्तो अधि क्षमि। (ॠग्वेद 10.65.11)
आर्य उन्हें कहा जाता है जो इस पृथ्वी पर सत्य, अहिंसा, पवित्रता एवं परोपकार आदि व्रतों को विशेष रूप से धारण करते हैं।

आर्यरूपमिवानार्य कर्मभि:, स्वैर्विभावयेत्। (मनुस्मृति 10.57)
अत: अनुकरणीय कार्य करने वाला आचार वान व्यक्ति ही आर्य होता है।

वाल्मीकि रामायण में भी श्रीराम के लिए उनके सर्वश्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट गुणों के कारण आर्य शब्द का प्रयोग किया गया है।
सर्वदाभिगत: सद्भि: समुद्र इव सिन्धुभि:।
आर्य: सर्वसमश्‍चैव सोमवत् प्रियदर्शन:॥ (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड 1/16)
अर्थात: जैसे सरिताऍं समुद्र में मिलती है, उसी प्रकार साधु पुरुष रामचन्द्र जी से मिलते हैं। श्रीराम आर्य हैं और चन्द्रमा की तरह प्रिय दर्शन वाले हैं।

व्रतेन हि भव्यत्यार्य:। (महाभारत, उद्योगपर्व 88/52)
मनुष्य सदाचार से ही आर्य अर्थात श्रेष्ठ गुण युक्त व्यक्ति बनता है। अत: मात्र सदाचार सम्पन्न व्यक्ति के लिए सदा आर्य शब्द प्रयुक्त होता रहा है।

अमरकोश के अनुसार पार्वती जी का एक नाम आर्या भी था- आर्यस्तु मारिश:। (अमरकोश भाषा टीका, श्‍लोक 14)
आर्यन्व्रत:। (गौतम धर्मसूत्र 19/69)
आर्य व्रतधारी अर्थात सदाचारी होते हैं।

व्यस्थितार्यमर्याद: कृतवर्णाश्रमस्थिति:।
त्रय्या हि रक्षितो लोक: प्रसीदति न सीदति॥ (कौटिल्य अर्थशास्त्र 1/2)
राज्य में आर्य मर्यादाओं के व्यवस्थित होने पर वर्ण और आश्रम की ठीक-ठीक परिस्थिति रहने पर त्रयी प्रतिपादित धर्म के द्वारा रक्षा की हुई प्रजा सदैव सुखी रहती है।

असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा।
यदार्यमस्यामभिलाषि मे मन:॥ (अभिज्ञानशाकुन्तलम्, नाटक 1/2)
राजा दुष्यन्त कह रहे हैं कि वह स्त्री नि:सन्देह क्षत्रियों की स्त्री होने योग्य है। क्योंकि मेरा आर्य भावापन्न मन इसके लिए अभिलाषी है।

न तेन अरियो होति येन पाणानि हिंसति।
अहिंसा सब्बपाणानं अरियोति पवुच्चति॥ (धरमपद गाथा 270/15)
प्राणियों की हिंसा करने वाला आर्य नहीं होता। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा का व्यवहार करने वाले मनुष्य को आर्य अर्थात श्रेष्ठ धर्मात्मा एवं सदाचारी कहा जाता है।

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी ॠग्वेद का भाष्य करते हुए आर्य शब्द के बारे में कहा-
आर्या: श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव युक्ता मनुष्या:।
जो श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव युक्त उच्च कोटि के मनुष्य है, वे ही आर्य कहलाने के योग्य होते हैं।
पारसियों के मान्य ग्रन्थ जेन्दाअवेस्ता में श्रेष्ठ पुरूषों के लिए आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है। जेन्दाअवेस्ता के भाग सिरोजह 1-25 में लिखा है कि हम आर्यों के समानार्थ हवन करते हैं जिसे मजदा ने बनाया।
उपर्युक्त विवरण से यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि आर्य गुणवाचक शब्द है जाति वाचक नहीं। - डॉ. अखिलेशचन्द्र शर्मा

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