एक नगर में एक बहुत कट्टर मुसलमान रहते हैं। आर्यों के महापुरुषों से नाक भौं सिकोड़ने वाले तथा औरंगजेब के ये प्रशंसक कहते हैं कि औरंगजेब जैसा बादशाह होना मुश्किल है। वहाँ रहने वाले एक आर्य सज्जन वानप्रस्थ ले लेते हैं। जब वे कुछ वर्ष बाद वहाँ जाते हैं तो वह उन्हें नमस्ते करता तथा आदरपूर्वक अपने घर ले जाता है। उनकी पुत्री भी आई हुई है। वह गर्भवती है। वह वानप्रस्थी जी से अपनी पुत्री को आशीर्वाद देने के लिए कहता है कि भगवान् इसे अच्छा पुत्र दें। वानप्रस्थी जी पूछते हैं कि कैसे पुत्र के लिए आशीर्वाद दूं, राम जैसा या औरंगजेब जैसा? वह कहता है कि औरंगजेब जैसा पुत्र कहकर क्या आप हमें शाप दे रहे हैं? हमें तो राम जैसा धेवता चाहिए। यह सुनकर जहाँ प्रसन्नता हुई वहाँ मन में यह भी आया कि राम में वे कौन से गुण थे, जिनसे आर्य संस्कृति का एक विरोधी भी राम सा धेवता चाहता है। कारण स्पष्ट है, राम आदर्श पुरुष थे। आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श प्रजापालक राजा तथा आदर्श सौहार्दपूर्ण व्यक्तित्व से युक्त।
आदर्श विद्वान्- राम में जहाँ अन्य अनेक गुण थे वहाँ वे वेदांगों के विद्वान् भी थे। बालकाण्ड सर्ग 18 में उन्हें ‘सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे लोकहितेरताः।‘ कहा है। चारों ही भाई वेदों के विद्वान् थे। जब राम को राजा बनाने का प्रस्ताव प्रजा के सामने आया तो समस्त प्रजा ने उसका अनुमोदन करते हुए कहा था कि राम में अन्य गुण तो विद्यमान हैं ही, किन्तु वह सांगोपांग वेद का विद्वान् भी है-
सम्यग् विद्याव्रतस्नातो यथावत् सांगवेदवित् ॥ (वाल्मीकि रामायण 2.26)
लंका में सीता ने यह देखने के लिए कि कहीं हनुमान् वेश बदलकर रावण द्वारा भेजा व्यक्ति तो नहीं, यह जानने के लिए उनसे कहा कि यदि तू वस्तुतः राम का दूत है तो राम के गुणों को सविस्तार कहो। वहाँ भी हनुमान ने जहाँ राम के अनेक गुणों का उल्लेख किया वहाँ उन्होंने राम को यजुर्वेद में दक्ष, वैदिक विद्वानों से संत्कृत, धनुर्वेद तथा वेद-वेदांगों में दक्ष बतलाया है-
यजुर्वेदे विनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः।
धनुर्वेदे च वेदे च वेदाङ्गेषु च निष्ठितः ॥ (सुन्दर काण्ड 35.14)
अन्य भी अनेक स्थानों पर राम की विद्वत्ता का उल्लेख है। वेद का विद्वान् सबसे बड़ा विद्वान् माना जाता है तथा राम वेद-वेदांगों के आदर्श विद्वान् थे। उन्होंने न केवल वेद पढें ही थे, अपितु उनके उपदेशों को जीवन में भी उतारा था। यह वेद ज्ञान ही उन्हें आदर्श पुरुष के रूप में विश्व के सम्मुख उपस्थित करने में समर्थ हुआ। आदर्श विद्वान् वही है जो श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा साक्षात्कार के सोपानों पर आरोहण कर सके। राम ऐसे ही आदर्श विद्वान् थे।
आदर्श पुत्र- राम आदर्श पुत्र भी थे। वे अपनी तीनों माताओं को समान रूप से सम्मान देते थे। मन्थरा ने जब कैकेई को राम के राज्याभिषेक की सूचना दी तो वह अत्यन्त हर्षविभोर होकर कह उठी-
यथा मे भरतो मान्यस्तथाभूयोऽपिराघवः।
कौशल्यातोऽतिरिक्तं च स तु शुश्रूषते हि माम्॥ (अयोध्या काण्ड 8.18)
जैसा मेरे लिए भरत मान्य है, राम उससे भी अधिक है। क्योंकि वह मेरी सेवा कौशल्या से भी अधिक करता है। जब मन्थरा के बहकाने से कैकेई दशरथ से 14 वर्ष का वनवास माँगती है, तब दशरथ उसे कहते हैं कि राम तो तुझे सदा जननी तुल्य मानता है, तू उसके अनर्थ के लिए क्यों उद्यत हुई है-
सदा ते जननीतुल्यां वृत्तिं वहति राघवः।
तस्यैव त्वमनर्थाय किं निमित्तमिहोद्यता॥ (वा.रा.12.79)
और जब चित्रकूट में राम को वापस लाने के लिए भरत जाते हैं तब राम अन्य बातों के साथ कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी का कुशल पहले ही पूछते हैं-
तात कच्चिच्च कौशल्या सुमित्रा च प्रजावती।
सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नन्दति कैकेयी॥
राम कैसा आदर्श पुत्र है ! जो उस माता की भी कुशल पूछता है, जिसके कारण राज्याभिषेक के बदले उसे 14 वर्ष का वनवास भोगना पड़ा।
अपने पिता के प्रति भी उनकी भक्ति अटूट थी। जब वनवास का वचन लेकर उसे सुनाने के लिए कैकेयी ने राम को बुलाया और उनसे कहा कि राजा ने हमको जो वचन दिये थे जिसे वे आपके भय से पूरा नहीं करते। यदि तुम उन्हें पालने का राजा को वचन दो तो मैं उनकी आज्ञा आपको सुनाऊं। तब राम ने जो शब्द कहे थे वे इस संस्कृति वालों के लिए गर्व की बात है। वाल्मीकि के शब्दों में सुनिए-
अहो धिङ् नार्हसे देवि वक्तु मामीदृशं वचः।
अहं हि वचनाद्राज्ञः पतेयमपि पावके॥
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे।
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च॥
तद् ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकांक्षितम्।
करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते॥ (अयोध्या काण्ड 18.28-30)
हे देवी ! मुझे धिक्कार है जो आप मुझ पर विश्वास न करके ऐसे वचन कह रही हैं। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। क्योंकि मैं तो महाराज के कहने से जलती आग में कूद सकता हूँ, तीक्ष्ण विष पी सकता हूँ तथा समुद्र में छलांग लगा सकता हूँ। फिर वे तो मेरे गुरु, पिता, राजा और हितैषी हैं। अतः आप बताएं कि राजा क्या चाहते हैं? मैं उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता हूँ। राम दो वचन नहीं बोलता, वह तो जो कह देता है उसे पूरा करके ही छोड़ता है।
जब राम वन जाने के लिए माता कौशल्या से आज्ञा लेने जाते हैं, तब वे कहती हैं कि जैसे गाय बछड़े के पीछे-पीछे जाती है, ऐसे ही मैं भी जहाँ पुत्र तू जाएगा वहीं तेरे साथ जाऊंगी-
कथं धनुः स्वकं वत्सं गच्छन्तं नानुगच्छति।
अहं त्वानुगमिष्यामि पुत्र यत्र गमिष्यसि॥ अ.4.9॥
तब राम कहते हैं कि माता जी! जब तक अयोध्या के राजा मेरे पिता जी जीते हैं तब तक आप उनकी सेवा करो, यही प्राचीन (वैदिक) धर्म है। वाह रे पुत्र! तुझे अपनी चिन्ता नहीं, 14 वर्षों के वनवास के समय अयोध्या में मेरे पिता सुखी रहें, यह चिन्ता है। दूसरे माता जी कहीं मेरे वनवास से रुष्ट होकर पिता जी की सेवा करना न छोड़ दें, अतः उन्हें धर्म की याद दिलाकर पिता की सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।
राम ने चित्रकूट में जब भरत से पिता के स्वर्गवास का समाचार सुना, तब वे अत्यन्त दुखी होकर कहने लगे कि पिता जी के स्वर्ग चले जाने पर मैं अयोध्या जाकर क्या करूंगा। अब मैं वहाँ जाकर उस महात्मा का क्या उपकार कर सकँूगा। उनके बिना कौन मुझे शिक्षा देगा? कौन हमारे कानों का सुख देगा? हे लक्ष्मण! अब हम बिना पिता के हो गए हैं। सीते, तुम भी बिना श्वसुर के हो गई हो।
हे वनवासी राम ! वैदिक संस्कृति के पुत्र युग युगों तक तुझसे प्रेरणा लिया करेंगे। तू आदर्श पुत्र था। माताओं तथा पिता के प्रति तू कर्त्तव्य पालन जानता था, न कि उनके आचरण की आलोचना करना। यह इसी का प्रतिदान था कि माताएं तेरे वियोग में बिन जल के मीन की भाँति तड़पती हैं तथा पिता अपने प्राण ही दे देते हैं।
आदर्श भ्राता- राम आदर्श पुत्र तो थे ही, वे आदर्श भाई भी थे। लक्ष्मण से शक्ति लगने पर राम कितने रोये थे इसे सब जानते हैं। उन्होंने सुषेण से कहा था कि मुझे लक्ष्मण को इस दशा में देखकर महान् कष्ट हो रहा है। इसके बिना मुझे भूमि का राज्य तथा सीता का प्राप्त करना सब व्यर्थ है। आप इसे शीघ्र स्वस्थ कीजिए। भाई लक्ष्मण के बिना मैं माता कौशल्या, कैकेई और सुमित्रा को क्या कहूँगा तथा माता सुमित्रा का उलाहना कैसे सहन करूंगा? कैसे मैं भाई भरत और शत्रुघ्न से कहूंगा कि मैं लक्ष्मण को साथ लेकर गया था और अकेला आ गया हूँ। मेरा यहाँ मरना अच्छा है, किन्तु भाइयों की निन्दा सुननी अच्छी नहीं। सुषेण! मैंने पूर्व जन्म में न जाने क्या दुष्कर्म किया था, जिसके फलस्वरूप मेरा धार्मिक भ्राता मेरे सामने मर रहा है-
किं मया दुष्कृतं कर्म कृतमन्यत्र जन्मनि।
येन मे धार्मिको भ्राता निहतश्चाग्रतः स्थितः॥ (युद्धकाण्ड 101.19)
कितनी पीड़ा है श्रीराम के हृदय में। दूसरे दिन के युद्ध में जब इन्द्रजीत ने राम-लक्ष्मण आदि को मूर्च्छित कर दिया था, तब पहले राम की मूर्छा टूटी और उसने रुधिर से लिप्तांग मूर्च्छित पड़े लक्ष्मण को देखा तो विलाप करते हुए यहाँ तक कहा था कि यदि लक्ष्मण वीर न उठे तो मैं अवश्य इस वानर समूह के सामने ही प्राण त्याग दूँगा।
यहाँ तो यह भी कहा जा सकता है कि जिस भाई ने राम के लिए घर-परिवार तथा राजमहलों का सुख छोड़ा उसके लिए यदि राम रोता है, दुखी होता है या प्राणत्याग की बात करता है तो यह उचित ही है। क्योंकि अपने दाहिने हाथ के कटने पर कौन दुखी नहीं होता! किन्तु यह कहना इसलिए उचित नहीं है कि जिस भरत के मोह के कारण कैकेई ने राम को 14 वर्ष का वनवास दिया, उस भरत के प्रति भी राम का ऐसा ही प्रेम था। जब कैकेई ने राम से कहा था कि राजा आपको वनवास तथा भरत को राज्य देना चाहते हैं, तब उन्होंने कहा था कि मैं वन जाने को अभी उद्यत हूँ। किन्तु मेरे हृदय में एक दुःख है कि राजा ने अपने मुख से भरत को राज्य देने के लिए मुझसे क्यों नहीं कहा? क्योंकि-
अहं हि सीतां राज्यं च प्राणानिष्टधनानि च।
हृष्टो भ्रात्रे स्वयं दद्यां भरतायाप्रचोदितः॥
मैं तो बिना किसी की प्रेरणा के स्वयं ही भाई भरत के लिए राज्य, प्राण तथा इष्ट धन देने के लिए तैयार हूँ। यहाँ तो भरत उनके साथ वन नहीं गया था, फिर भी कितना स्नेह व्यक्त होता है राम का भरत के प्रति! यदि राम-वनवास के समय भरत अयोध्या में होते तो शायद वहाँ से तीन की अपेक्षा पांच व्यक्ति वन जाते, भरत तथा शत्रुघ्न भी कब मानने वाले थे? भाई राम के प्रेम की उपेक्षा कौन करता?
आदर्श पति- राम भारतीय वैदिक संस्कृति के आदर्श थे। वनगमन के समय जब सीता भी राम के साथ वनगमन की प्रार्थना करती है तथा कहती है कि-
यस्त्वया सह स स्वर्गो निरयो यस्त्वया विना।
इति जानन् परां प्रीतिं गच्छ राम मया सह॥ (अयोध्या काण्ड 30.18)
आपका साथ मेरे लिए स्वर्ग है तथा आपका न होना नरक है। इस अत्यन्त प्रीति को जानते हुए हे राम! मुझे साथ लेकर वन को जाओ। तब राम ने जो कहा है वह उनके आदर्श पति के सर्वथा अनुरूप है। वे कहते हैं-
न देवि तव दुःखेन स्वर्गमप्यभिरोचये॥ (अ.कां. 30-27)
नेदानीं त्वदृते सीते स्वर्गोऽपिमम रोचते॥ (अ.कां. 30-42)
हे देवि सीते ! यदि तू वन की अपेक्षा यहाँ अधिक दुःख मानती है तो तुझे दुःखी करके तो मुझे स्वर्ग भी अच्छा नहीं लगेगा। हे सीते तेरे बिना तो मुझे स्वर्ग भी अच्छा नहीं लगता है।
जब खरदूषण के मरने का समाचार लेकर ‘अकम्पन‘ राक्षस रावण के पास लंका में जाता है, तब वह सीता के रूप की प्रशंसा करके रावण से कहता है कि आप सीता को हर लाए, उससे आपको दो लाभ होंगे, पहला तो यह कि आपको द्वितीय स्त्री रत्न की प्राप्ति हो जाएगी और दूसरा यह कि राम बिना मारे ही मर जाएगा। क्योंकि-
सीतया रहितो रामो न चैव हि भविष्यति॥ (अरण्य काण्ड 31.31)
बिना सीता के राम जीवित रह ही नहीं सकेंगे। कितना स्त्री प्रेम का भाव राम के हृदय में है, इसे शत्रु भी जानते हैं। अशोक वाटिका में जब सीता ने हनुमान से राम-लक्ष्मण की कुशलता पूछी तो उन्होंने राम के विषय में कहा था-
त्वत्कृते तमनिद्रा च शोकश्चिन्ता च राघवम्।
तापयन्ति महात्मानमग्न्यगारमिवाग्नयः॥ (सुन्दर काण्ड 35-46)
आपके लिए उस महात्मा राम को अनिद्रा, शोक और चिन्ता ऐसे जलाती हैं जैसे कुण्ड को अग्नि। कितनी सार्थक उपमा दी है हनुमान ने। पास बैठे लोग तो ताप से बचने के लिए भाग भी सकते हैं, पर वह यज्ञ कुण्ड जिसमें अग्नि जल रही है, अग्नि को छोड़ भी तो नहीं सकता। अग्नि चाहे धधके चाहे सुलगे, कुण्ड को तो उसका ताप सहना ही है। कुण्ड की तो नियति ही है उस ताप को सहना। राम के चित्त की भी सीता के वियोग में यही दशा है। राम के हृदय की अवस्था को बताते हुए हनुमान फिर कहते हैं-
अनिन्द्रः सततं रामः सुप्तोऽपि च नरोत्तमः।
सीतेति मधुरां वाणीं व्याहरन् प्रतिबुध्यते॥ (सुन्दर काण्ड 36-44)
हे देवि, वैसे तो आपके वियोग में राम को नीन्द ही नहीं आती, किन्तु यदि थोड़ी देर के लिए सोते भी हैं तो ‘सीते सीते‘ कहते हुए जाग पड़ते हैं। यह अवस्था कितने गहरे प्रेम की द्योतक है, इसे विज्ञजन ही जान सकते हैं। कैसा आदर्श है राम का पत्नी प्रेम ‘चक्रवाकेवदम्पती‘ (अथर्ववेद 14-2-64) का साक्षात् निदर्शन तथा ‘समापो हृदयानिः वः‘, हमारे हृदय जल के समान शान्त और मिले रहेंगे का प्रत्यक्ष उदाहरण।
आदर्श मित्र- राम मित्र भी आदर्श ही थे। सुग्रीव को मित्र बनाया तो किष्किन्धा का राज्य उसे ही दे दिया। विभीषण शरण में आया तो लंका का राजा बनाया। उनकी इच्छा मित्रों को कुछ देने की रहती है लेने की नहीं।
आदर्श व्यक्तित्व- गुरु भक्त- राम का व्यक्तित्व भी आदर्श था। गुरुजनों के प्रति श्रद्धा तथा सम्मान का भाव सदा उनके हृदय में रहता था। वशिष्ठ का तो वह आदर करते ही थे किन्तु विश्वामित्र, भरद्वाज, गौतम आदि जिस ऋषि के आश्रम पर गए वहीं राम ने उनको अभिवादन किया। माता-पिता के तो वह अनन्य भक्त थे ही, वनवास भेजने वाली कैकेयी भी उनकी श्रद्धा पात्र थी।
ईश्वर भक्त- जब राम-लक्ष्मण मुनि विश्वामित्र के साथ यज्ञ की रक्षा के लिए जाते हैं तो मुनि प्रातः कहते हैं-
कौशल्या सुप्रजा राम पूर्वां सन्ध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्त्तव्यं दैवमाह्निकम्॥
कौशल्या के सुपुत्र राम! प्रातःकाल का समय हो गया है, नरश्रेष्ठ उठो, सन्ध्या आदि दैनिक कार्य करो। तब ऋषि के पवित्र वचन सुनकर पुरुषश्रेष्ठ वे दोनों भाई स्नान-सन्ध्या एवं जप करते हैं। मिथिला जाने के समय भी-
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जपैतुः परमजपः॥
मिथिला जाते समय भी हम उन्हें सन्ध्या अग्निहोत्रादि करके ही जाता पाते हैं।
यज्ञप्रेमी- राम स्वयं तो प्रतिदिन यज्ञ करते ही थे, किन्तु पंचवटी में जब भरत उनसे मिलने आए, तो उन्होंने अन्य अनेक बातों के अतिरिक्त उनसे यह भी पूछा था कि क्या अग्निहोत्र को स्मरण कराने के लिए तुमने यज्ञ विधि को जानने वाले पुरोहित को तो नियुक्त किया हुआ है?
कच्चिदग्निषु ते युक्तो विधिज्ञो मतिमनृजुः।
हुतं च होष्यमाणं च काले वेदयते सदा॥ (अयोध्या काण्ड 100-12)
कर्त्तव्य पालक- विश्वामित्र मुनि के समझाने पर ताड़का-वध का मन बनाते समय राम कहते हैं-
गोब्राह्मण हितार्थाय देशस्य च हिताय च।
तव चैवाप्रमेयस्य वचनं कर्तुमुद्यतः॥ सर्ग 25
गो, ब्राह्मण तथा देश के हित के लिए मैं आपके वचन का पालन करने को उद्यत हूँ। कर्त्तव्य पालन के लिए ही उस नरश्रेष्ठ ने परिवार तथा राज्य को छोड़कर वन के कष्टों को अंगीकार किया था। वे तो कहा करते थे-
क्षत्रियैर्धायते चापो नार्त्त शब्दो भवेदिति॥ (अरण्य काण्ड 10-2)
जब क्षत्रिय ने धनुष ले लिया तो दुखी की चीत्कार हो ही नहीं सकती। उन्होंने आजीवन इस व्रत को निभाया।
शरणागतपालक- जब विभीषण राम के पास गया तो वहाँ उसे सन्देह की दृष्टि से देखा जाना स्वाभाविक था। क्योंकि वह शत्रु का भाई था। किन्तु जब उसके विषय में राम से पूछा गया कि इस विषय में आपका क्या विचार है तो उन्होंने कहा था कि ‘‘मित्रभाव से प्राप्त हुए को मैं कभी भी त्याग नहीं सकता। यद्यपि इसमें दोष सम्भव है, परन्तु शरणागत का त्याग सत्पुरुषों के लिए निन्दनीय है। हे सुग्रीव! जो एक बार आकर यह कह दे कि मैं आपका हूँ, मैं ऐसों को अभयदान अवश्य दूँगा, यह मेरा व्रत है। इसे ले आओ, इसे अभयदान दें। चाहे विभीषण हो अथवा स्वयं रावण ही क्यों न हो!
मित्रभावेन सम्प्राप्तं न त्यजेयं कथञ्चन।
दोषो यद्यपि तस्मिन् स्यात् सतामेतद्विगर्हितम्॥
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥
आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया।
विभीषणो वा सुग्रीवो यदि वा रावणःस्वयम्॥ (युद्धकाण्ड 18-3,33-34)
सदाचारी- राम का सदाचार भी अनुकरणीय है। ननिहाल से बुलाए भरत ने जब राम-लक्ष्मण तथा सीता के विषय में पूछा तथा कैकेयी ने बतलाया कि वे तो तपस्वियों की भाँति चीर वल्कल धारण कर दण्डक वन में निवास कर रहे हैं। तब भरत ने पूछा कि क्या राम ने किसी ब्राह्मण का धन हर लिया था अथवा किसी निरपराध पुरुष को मार दिया था अथवा किसी स्त्री पर दुष्ट संकल्प किया था, जिसके कारण राजा तथा राजसभा ने न्यायानुसार सर्वगुण सम्पन्न राम को कठोर वनवास दिया हो? इसके उत्तर में कैकेई ने जो कहा है, वह राम के उज्ज्वल चरित्र का परिचायक है। उसने कहा पुत्र! राम ने न तो किसी ब्राह्मण का धन हरा, न किसी निरपराध की हिंसा की। परस्त्री को तो राम आँख उठाकर भी नहीं देख सकता।
न ब्राह्मणधनं कििचिद्धृतं रामेण कस्यचित्।
न रामः परदारान् स चक्षुर्भ्यामपि पश्यति॥ (अयोध्या सर्ग 72)
सीता के हरने का विचार बनाए रावण ने जब मारीच से राम को घर से निकाला हुआ तथा मर्यादाहीन कहा तो मारीच ने राम को अनेक गुणों से युक्त बतलाते हुए कहा था-
न च पित्रा परित्यक्तो नामर्यादःकथञ्चन।
न लुब्धो न दुःशीलो न च क्षत्रियपांसनः॥ (अरण्य काण्ड 37-8)
राम न पिता द्वारा परित्यक्त है, न मर्यादा का उल्लंघन करने वाला, न लोभी, न दुःशील और न क्षत्रिय कुल को कलंकित करने वाला है।
आदर्श शत्रु- राम सर्वगुण सम्पन्न महामानव हैं। उनके गुणों की लम्बी शृंखला है। यहाँ राम के एक विशेष गुण की ओर संकेत किया जा रहा है, वह है आदर्श शत्रु। रावण उनका शत्रु था, परम शत्रु। किन्तु जब रावण की मृत्यु हो गई तो विलाप करते विभीषण को सान्त्वना देकर राम ने कहा था बैर मरने पर समाप्त हो जाता है। हमारा प्रयोजन सिद्ध हो गया है। अब इसका विधिपूर्वक दाहसंस्कार करो। अब तो यह मेरा भी ऐसा ही है जैसे आपका।
मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव॥ (लंका काण्ड 109-25)
मरे रावण के विषय में यह वाक्य कि- ममाप्येष यथा तव। रावण अब मेरा भी ऐसे ही है जैसा तेरा। ‘राम‘ का यह वाक्य उनकी उच्चता तथा सदाशयता का तो परिचायक है ही, किन्तु उनके आदर्श शत्रु होने का भी उद्घोषक है।
राम आर्य आदर्शो के प्रतीक थे तथा आदर्श था उनका जीवन, जो स्वयं कण्टक वरण कर इस वैदिक संस्कृति को अपनी अमूल्य देन दे गए। - आचार्य सत्यव्रत राजेश (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)
His devotion to his father was also unwavering. When Kaikeyi summoned Rama after taking the word of exile and told him that the king had given us the promise which he did not fulfill in your fear. If you promise to raise them to the king, I will tell you his orders.
Adarsh Arya Mahapurush Bhagwan Shriram | Arya Culture | Ideal Personality | Ideal Scholar | Protest Aryan Culture | Scholar of Veda | Staunch Muslim | Ideal King | Father's Service | Ideal Brother | Virtuous | Performing Duties | Super Human | Symbol of Ram Arya ideals | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Marudur - Udpura - Shaktigarh | दिव्ययुग | दिव्य युग |