ओ3म् अभ्रातृव्यो अना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सुनादसि।
युधेदापित्वमिच्छसे॥ ऋग्वेद 8.21.12 अथर्व. 20.114.1
ऋषिः काण्वः सोभरिः॥ देवता इन्द्र॥ छन्दः निचृदुष्णिक्॥
विनय- हे परमेश्वर! तुम्हारे लिए न कोई शत्रु है और न कोई बन्धु है। तुम जिस उच्च स्वरूप में रहते हो वहाँ शत्रुता और बन्धुता का कुछ अर्थ ही नहीं। और तुम्हारे लिए कोई नायक व नियन्ता कैसे हो सकता है? तुम ही एकमात्र सब जगत् के नियन्ता हो, नेता हो। तुम जन्म से, स्वभाव से ही ऐसे हो। ‘जनुषा’ का यह तात्पर्य नहीं कि तुम्हारा कभी जन्म होता है। तुम तो सनातन हो, सनातन रूप से ही शत्रुरहित और बन्धुरहित हो । पर निर्लिप्त होते हुए भी हमारे बन्धुत्व (आपित्व) को चाहते हो और इस बन्धुत्व को तुम युद्ध द्वारा चाहते हो, युद्ध द्वारा ही चाहते हो। अहा! कैसा सुन्दर आयोजन है! तुम चाहते हो कि संसार के सब प्राणी सांसारिक युद्ध करके ही एक दिन तुम्हारे बन्धु बन जाएं, तुम्हारे बन्धुत्व का साक्षात्कार कर लें। सचमुच बिना लड़ाई के मिली सुलह, बिना संघर्ष के मिली प्रीति, बिना संग्राम के मिली मैत्री नीरस है, फीकी है, अवास्तविक है, उसका कुछ मूल्य नहीं है। बन्धुता तो अबन्धुता की, लड़ाई की, सापेक्षता में ही अनुभूत की जा सकती है। इसीलिए हे मेरे जगदीश्वर! मुझे अब समझ में आता है कि तुमने कल्याणस्वरूप होते हुए भी इस अपने जगत् में दुःख, दर्द, दरिद्रता, रोग, क्लेश, आपत्ति, उलझन आदि को क्यों उत्पन्न होने दिया है और अब समझ में आता है कि तुमने इन कठिनाइयों को खड़ा करके प्राणियों के जीवन को निरन्तर युद्धमय, संघर्षमय क्यों बनाया है।
सचमुच यह सब कुछ तुमने इसीलिए किया है कि हम बाधाओं को जीतकर, इन कठिनाइयों, उलझनों को पार करके तेरे बन्धुत्व के रसास्वादन के योग्य बन जाएं। तू तो अब भी हमारा बन्धु है। हममें से जो तेरे द्रोही कहे जाते हैं, जो नास्तिक हैं, उनका भी तू सदैव एक-समान बन्धु है (और असल में किसी का भी बन्धु या शत्रु नहीं है) तो भी तेरी उस बन्धुता का अनुभव तुझे बन्धु रूप से पा लेने का परमानन्द हमें तभी मिल सकता है, जब हम संसार के इस परम विकट युद्ध को विजय करके तेरे पास आ पहुँचें। तू चाहता है कि आज तो तुझसे बहुत दूर है, तेरा कट्टर द्वेषी है, वह युद्ध करके एक दिन तेरा उतना ही नजदीकी और उतना ही कट्टर बन्धु बन जाए। अतः अब मैं तेरा बन्धुत्व पाने के समर में ही कमर कसे खड़ा हुआ अपने को पाता हूँ। जितनी बार मरूँगा, इसी समर की युद्धभूमि में मरूँगा और अन्त में तेरे बन्धुत्व को पाकर ही दम लूँगा। यही तेरी इच्छा है, यही तेरी मुझसे प्रेममय इच्छा है।
शब्दार्थ- इन्द्र=हे परमेश्वर! त्वम्=तुम जनुषा=जन्म से ही, स्वभाव से ही अभ्रातृव्यः=शत्रुरहित अनापिः=बन्धुरहित अना=नियन्तृ रहित असि=हो सनात्=तुम सनातन हो, सनातन से ही ऐसे हो, पर तुम युधा=युद्ध द्वारा इत्=ही आपित्वम्=बन्धुत्व को इच्छसे=चाहते हो। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
Your Wish | Hostility and Bondage | Hero and God | Hostile and Bondless | World War | Unrealistic | Sorrow | Pain | Poverty | Disease | Suffering | Objection | Confusion | Atheist | Love Wish | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Indapur - Srikantabati - Tati | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Indi - Srinagar - Tenu Dam | दिव्ययुग | दिव्य युग