विशेष :

हमें वर दो

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ओ3म् पवमानस्य ते वयं पवित्रमभ्युन्दतः ।
सखित्वं आ वृणीमहे॥ ऋग्वेद 9.61.4 साम. उ. 2.1.5

ऋषिः आङ्गिरसोऽमहीयुः॥ देवता सोमः॥ छन्दः गायत्री॥

विनय- हे त्रिभुवन पावन! तुम अपने स्पर्श से इस सब जगत् को पवित्रता दे रहे हो। यह सच है कि तुम्हारे बिना यह संसार बिल्कुल मलिन है। यह संसार तो स्वभावतः सदा मलिन ही होता रहता है, विकृत होता रहता है, गन्दगियाँ पैदा करता रहता है, परन्तु तुम्हारी ही नाना प्रकार की पवित्र करने वाली धाराएँ नाना प्रकार से इस संसार के सब क्षेत्रों से इन मलिनताओं को निरन्तर दूर करती रहती हैं।

हे पवमान! हे सब जगत् को अपने अनवरत प्रवाह से पवित्र करने वाले! जो मनुष्य तुम्हारे स्वरूप की इस पवित्रता को जानते हैं, वे अपने आपको भी (अपने हृदय को भी) पवित्र करने में लग जाते हैं, अपने अन्तःकरण से काम, क्रोध आदि विकारों को निकालकर इसे बड़े यत्न से निर्मल बनाते हैं। जब यह पवित्र हो जाता है तो इस पवित्र अन्तःकरण में तुम्हारी सात्विक धाराएँ जो आनन्द-रस पहुँचाती हैं, हृदय को सदा सरस बनाये रहती हैं, उसका वर्णन वाणी से नहीं किया जा सकता। पवित्रान्तःकरण भक्त लोग ही उसका अनुभव करते हैं। जिनके हृदयों में द्वेष, क्रोध, जड़ता आदि का कूड़ा भरा हुआ है उनके शुष्क हृदय या जिन्होंने प्रेम-शक्ति का दुरुपयोग कर विषैले रसों से हृदय को गन्दा कर रखा है, उनके भी मलिन हृदय इस पवित्र आनन्द रस का आह्लाद क्या जानें? जब मनोविकारों का यह सूखा या गीला मैल निकल जाता है, तभी मनुष्य के हृदय में तुम्हारे पवित्र-रस का स्पन्दन होना प्रारम्भ होता है और उसमें फिर दिनों-दिन सात्त्विक रस भरता जाता है। भक्तिभाव के बढ़ने से जब भक्तों के हृदय-मानस आनन्द के हिलोरें लेने लगते हैं, तो वे देखने योग्य होते हैं। हे सोम! तब उनके पवित्र हृदय का तुम ‘पवमान’ के साथ सम्बन्ध जुड़ गया होता है। इस सम्बन्ध, इस सखित्व, इस एकता के कारण ही उनका हृदय सदा तुम्हारे भक्ति-रस को चुआने वाला झरना बन जाता है। हे प्रभो! यही सम्बन्ध, अपना यही सखित्व हमें प्रदान करो। हे सोम! हम तुझसे इसी सखित्व की भिक्षा मांगते हैं। हे जगत् को पवित्र करने वाले! जिस सख्य के हो जाने से तुम्हारी पवित्रकारक धारा मनुष्य के हृदय को सदा भक्ति-रस से रसमय बनाये रखती है, उसी सखित्व की भिक्षा हमें प्रदान करो। हम अपने हृदय को पवित्र करते हुए तुमसे यही सखित्व, यही मैत्रीभाव, यही प्रेम-सम्बन्ध प्राप्त करना चाहते हैं, वरना चाहते हैं। यह वर हमें प्रदान करो।

शब्दार्थ- पवित्रं अभि उन्दतः=हमारे पवित्र हुए अन्तःकरण को भक्तिरस से आर्द्र करते हुए पवमानस्य ते=तुझ परम पावन के सखित्वम्=सख्य को, मित्रभाव को वयम्=हम आवृणीमहे=वरण करते हैं। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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