विशेष :

ऐश्‍वर्य पाना चाहता हूँ

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ओ3म् यद् वीळाविन्द्र यत् स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम्।
वसु स्पार्हं तदा भर॥ ऋग्वेद 8.45.41, साम. उ. 4.1.9, अथर्व. 20.43.2

ऋषिः काण्वः त्रिशोकः॥ देवता इन्द्र॥ छन्दः गायत्री॥

विनय- हे परमैश्‍वर्यवाले इन्द्र! तुम्हारा नाना प्रकार का ऐश्‍वर्य इस संसार में भरा पड़ा है, पर तुम्हारे इन ऐश्‍वर्यों में से जिस प्रकार के ऐश्‍वर्य की मुझे स्पृहा है, जिस प्रकार के ऐश्‍वर्य को मैं चाहता हूँ, वह तो ऐसा है जो संसार के वीर, दृढ़, (वीड्) पुरुषों में दिखाई देता है और जो स्थिर तथा विचारशील पुरुषों में रहता है। आम लोग रुपये-पैसे को ऐश्‍वर्य समझते हैं, पर असल में वह ऐश्‍वर्य नहीं है। रुपये-पैसे तथा अन्य सम्पत्ति के पदार्थों का ऐश्‍वर्य होना या न होना मनुष्य पर आश्रित है, मनुष्य की शक्ति पर आश्रित है। अतः मनुष्य तथा मनुष्य का सामर्थ्य ही वास्तविक धन (ऐश्‍वर्य) है। गीता में जो अभय, सत्त्वसंशुद्धि आदि सद्गुणों को दिव्यसम्पत्ति कहा है वह सत्य है, वही सच्ची सम्पत् है। शम, दम, तितिक्षा आदि छह गुण इसीलिए ‘षट् सम्पत्ति’ नाम से जगत् में प्रसिद्ध हैं। हे इन्द्र! मुझे तो यह ही सच्ची सम्पत् चाहिए। सांसारिक रुपये-पैसे के धनियों को देखकर मुझे जरा भी उनकी सी अवस्था के प्रति आकर्षण नहीं होता। परन्तु वीरों की वीरता, अदम्य उत्साह, तेज और दृढ़ता पर मैं मोहित हूँ। जो चिरकाल तक स्थिरता से श्रद्धापूर्वक साधना करते हुए अन्त में अवश्य विजयशील होते हैं, उनका यह स्थिरता का गुण मुझे उनका भक्त बना लेता है और जब मैं उन पुरुषों को देखता हूँ जो विचारपूर्वक सब कार्य करते हैं, पेचीदा अवस्था आने पर भी जिन्हें अपने कर्त्तव्य का निर्णय करने में जरा भी देर नहीं लगती, तो मैं यही चाहता हूँ कि यह विमर्श-क्षमता मुझमें भी आ जाए। जिनके पास ये तीन गुण नहीं होते उनके पास तो रुपया-पैसा भी नहीं ठहरता। यदि ठहरता भी है तो वह शक्तिरूप नहीं होता या बुरी शक्ति बन जाता है। क्या हम रोज नहीं देखते कि बुजदिली के कारण, अस्थिरता के कारण, नासमझी के कारण सब कमाया हुआ बड़ा भारी धन एक दिन में बरबाद हो जाता है या होता हुआ भी बेकार सिद्ध होता है। इसलिए मेरे पास तो यदि भूमि, घर आदि कुछ सामान न हो, कपड़ा-लत्ता भी न हो, एक कौड़ी तक न हो, पर यदि मुझमें वीरता, अजेय दृढ़ता हो और लगातार देर तक सतत काम करने की शक्ति एवं लगन हो तथा मुझमें विचारशीलता हो, तो हे प्रभो! मैं अपने को महाधनी समझूँगा और संसार में आत्माभिमान के साथ सिर ऊँचा करके फिरूँगा। इसलिए हे नाथ! मुझे तो तुम दृढ़ता, स्थिरता और विचारशीलता प्रदान करना। मैं यही माँगता हूँ, आपसे यही ऐश्‍वर्य पाना चाहता हूँ।

शब्दार्थ- इन्द्र=हे परमेश्‍वर! यत्=जो धन तूने वीडौ=दृढ़, न दबने वाले पुरुष में यत् स्थिरे=जो धन स्थिर रहने वाले में यत् पर्शाने=और जो धन विचारशील पुरुष में पराभृतम्=रखा है तत्=वह स्पार्हम्=स्पृहणीय, चाहने योग्य वसु=धन आभर=मुझे प्राप्त करा। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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