दिव्ययुग के द्वारा आप एक बड़ी कमी को पूरा कर रहे हैं। साधुवाद। आज समाज को इस ज्ञान की अत्यधिक आवश्यकता है। विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर मार्शल), नोएडा (उ.प्र.)
दिव्ययुग का दिसम्बर 07 अंक प्राप्त हुआ। वेदों के द्वारा संस्कृति के उत्थान का सतत प्रयास प्रेरणादायी है। जिस देश के नागरिकों में राष्ट्रप्रेम शिखर पर होता है, वह स्वतः ही वहाँ के साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षण और विस्तार का भार वहन कर लेते हैं। आचार्य डॉ. संजयदेव जी ने ‘शिक्षा और वैदिक ऋषि‘ में प्राचीन शिक्षा पद्धति के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है । स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि अगर उन्हें कुछ संस्कारित मातायें मिल जायें तो वे नवभारत का निर्माण कर सकते हैं। आज पुनः यही प्रश्न है कि क्या हम संस्कारयुक्त शिक्षा नहीं दे सकते ? जिससे आगामी पीढ़ी संस्कारयुक्त तैयार हो सके। हमें इसके लिये आर्थिक पिछड़े क्षेत्रों को चुनना होगा । वहाँ संस्कारयुक्त शिक्षा की व्यवस्था के लिये प्रयास करने होंगे। आज के हमारे प्रयास कुछ वर्षों बाद सार्थक होने लगेंगे। वैदिककाल में ‘ब्रह्म’ अर्थात् ज्ञान के भण्डार व्यक्ति को ही ब्राह्मण कहा जाता था। आयुर्वेद के माध्यम से ‘दिनचर्या’ पर सुन्दर एवं ज्ञानवर्द्धक मार्गदर्शन किया गया है। - ए. कीर्तिवर्द्धन, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
दिव्ययुग का दिसम्बर 2007 अंक प्राप्त हुआ। इसमें ‘विचारणीय‘ शीर्षक के अन्तर्गत श्री अशोक कौशिक द्वारा लिखित ‘गीता राष्ट्रीय धर्मशास्त्र एक विवेचन’ को पढ़ा। लेखक ने प्रारम्भ में गीता ग्रंथ के उद्गम का परिचय दिया, फिर उसकी ऐतिहासिक स्थिति पर प्रश्नचिह्न लगाया- “समझ में नहीं आता कि यह महाभारत का युद्ध था कि मेले की नूराकुश्ती या क्रिकेट का फ्रेंडली मैच? इस प्रकार की घटनाएँ तो हमारे धर्मशास्त्रों पर अनास्था को आमंत्रित करती हैं।’’ आगे वे लिखते हैं- “यह प्रकरण कुछ पलों में ही समाप्त हो गया होता, किन्तु सात सौ श्लोकों की गीता का प्रकरण बुद्धि से परे है।’’ लेखक का विश्वास है कि वे ही गीता के मर्म व वास्तविकता को आत्मसात् कर पाए हैं । तभी तो वे विनोबा भावे की समझ पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं- “सन्त विनोबा भावे ने भी गीता पर मराठी में भाष्य लिखा है। भले ही गीता को वे आत्मसात् न कर सके हों।’’ मेरा इस सम्बन्ध में श्री अशोक कौशिक जी से विनम्र निवेदन है कि वे स्वयं गीता के सम्बन्ध में अपनी उलझी मानसिकता को पहले सुलझा लें, तदुपरान्त इस प्रकार के दिग्भ्रमित करने वाले विचार प्रकट करें। श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ महाभारत का सीधा प्रसारण नहीं है, वरन् संजय द्वारा प्रस्तुत विवरण हैऔर वह भी कवि व्यास द्वारा व्याख्यायित काव्य । हाँ, उसका दर्शन और मन्तव्य सर्वथा मौलिक कृष्णोपदेश ही है। आशा हैभविष्य में संवेदनशील विषय पर सोचकर लिखेंगे।
डॉ. रामप्रसाद बहुगुणा, देहरादून (उत्तराखण्ड)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Ved Katha Pravachan_32 | वेद का सन्देश - कल की उपासना करने वाले सुखी नहीं होते
दिव्ययुग का दिसम्बर 2007 अंक प्राप्त कर प्रसन्नता हुई। वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार में पत्रिका प्रशंसनीय कार्य कर रही है। प्रस्तुत अंक में आचार्यश्री डॉ. संजयदेव का ‘शिक्षा और वैदिक ऋषि‘ प्रवचनांश उपयोगी है। बालवाटिका प्रेरणा दे रही है। विचारणीय में ‘गीता राष्ट्रीय धर्मशास्त्र एक विवेचन’ आलेख में परिश्रम किया गया है, लेकिन किसी निष्कर्ष पर पहुँचाए बिना लेख समाप्त कर दिया गया है। मूल विषय पर ही व्यापक दृष्टिकोण की अपेक्षा थी।
शशांक मिश्र भारती, पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड)
दिव्ययुग के नवम्बर 2007 का सम्पादकीय ‘क्या भारत कभी समृद्ध नहीं रहा ?’ पढ़ा। अनन्तकाल तक भारत समृद्ध राष्ट्र रहा है। भारत का व्यापार अनेक देशों के साथ जल व थल मार्ग से होता रहा है। प्रकृति ने हमें पर्याप्त समृद्ध बनाया है। गरीबी का कारण शासकों की नीतियाँ रही है। अभी भी समान शिक्षा नहीं दी जाती। सरकारी तथा व्यावसायिक क्षेत्रों में अंग्रेजी का प्रयोग करके जनता को गरीबी की ओर धकेला जा रहा है। प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री, विदेशमन्त्री भूलकर भी हिन्दी का प्रयोग नहीं करते। फिर समृद्धि कैसे आए? - भीमबली वर्मा, नई दिल्ली (दिव्ययुग- मार्च 2008)