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यजुर्वेद वाङ्मय में पर्यावरण का स्वरूप

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वैदिक वाङ्मय में ‘पर्यावरण’ शब्द का नामतः उल्लेख नहीं मिलता। सर्वप्रथम डॉ. रघुवीर ने तकनीकी शब्द निर्माण के समय फ्रेंच भौतिकी शब्द ‘इन्वायर्नमेण्ट’ के लिए ‘पर्यावरण’13 शब्द का प्रयोग किया है।

वे ही इस शब्द के प्रथम प्रयोक्ता हैं। इसके पूर्व पर्यावरण के अन्तर्गत आने वाले सिद्धान्तों का उल्लेख, चिन्तन और उपयोग किया जाता था। परन्तु पर्यावरणीय समस्या के न होने से ’पर्यावरण’ शब्द का प्रचलन बाद में हो सका है।

वैदिक वाङ्मय में ‘पर्यावरण’ शब्द का भले उल्लेख नहीं हुआ, परन्तु पर्यारण के मूलभूत सिद्धान्त इसमें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। तत्त्वद्रष्टा वैदिक ऋषि-मुनियों ने अन्य विषयों के गम्भीर चिन्तन के समान पर्यावरण पर भी चिन्तन किया था तथा पर्यावरण के शोधक उपायों का विधान और प्रदूषण कारकों पर निषेध विहित किया था। उन्होंने पर्यावरण के लिए हानिकर प्रत्येक कार्य को आसुरी प्रवृत्ति तथा हितकर को दैवी प्रवृत्ति माना था। यह चिन्तन प्राणियों के जीवन में सहायक को दैव एवं विघातक को असुर या आसुर के नाम से प्रकाशित करता था।

केवल वैदिक संहिताएँ ही पर्यावरण का बोध नहीं कराती हैं, अपितु उत्तरवर्ती वैदिक साहित्य भी उन समस्याओं पर प्रकाश डालता है। प्राचीन ऋषियों ने अपनी रचनाओं में जीवन के विभिन्न पक्षों पर समग्र दृष्टि से विचार किया था तथा मानव के जीवन में उन्नति एवं शान्ति के मार्ग को प्रशस्त किया था।

जिस प्रकार शरीर में वात-पित-कफ आदि की सन्तुलित अवस्था का नाम स्वस्थावस्था है तथा इनका सन्तुलन बिगड़ने का नाम ही रुग्णावस्था है, उसी प्रकार वायु-जल-मृदा आदि में सन्तुलन बने रहने से समस्त सृष्टि अपनी स्वस्थावस्था में रहती है। जब इन अवयवों का पारस्परिक सन्तुलन बिगड़ जाता है, तब प्रत्येक जीव-जन्तु, पेड़-पौधे तथा मानव पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है, जिससे उनकी शारीरिक-मानसिक प्रवृत्तियाँ अनिष्टकारी दिशा की ओर मुड़ने लगती हैं।

ऋषि लोग मानव की शक्तियों को जानते थे तथा साथ ही उसकी दुर्बलताओं से भी परिचित थे। यद्यपि वैदिक काल में पर्यावरण प्रदूषण जैसी कोई समस्या नहीं थी, तथापि मानव स्वभाव को जानने वाले ऋषियों ने वैदिक वाङ्मय में जीवन की इस प्रकार की व्याख्या की है, जिससे पर्यावरण की समस्या उत्पन्न ही न होने पावे।

‘शान्तिपाठ’ के नाम से प्रसिद्ध यजुर्वेद के निम्न मन्त्र में सृष्टि के पदार्थों में सन्तुलन बनाए रखने का उपदेश किया गया है-
ओ3म् द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्‍वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥14

अर्थ- द्युलोक शान्ति प्रदान करे, अन्तरिक्ष लोक शान्ति प्रदान करे, भूमि शान्ति प्रदान करे, जल से शान्ति प्राप्त हो, औषधियाँ शान्ति देने वाली हों, वनस्पतियाँ शान्ति प्रदाता हों, सब विद्वान् शान्ति उत्पन्न करें, ज्ञान शान्ति देने वाला हो, सब जगत् शान्ति स्थापित करे, शान्ति भी सच्ची शान्ति देने वाली हो तथा इस प्रकार की सच्ची शान्ति मुझे प्राप्त हो अर्थात् सब पदार्थ शान्ति स्थापित करने में सहायक हों।
जब यह कहा जाता है कि जल, वायु, वनस्पति, पृथ्वी आदि सभी से शान्ति मिलती रहे, तो इसका तात्पर्य यह है कि पर्यावरण के इन सभी अवयवों में सन्तुलन बना रहे। क्योंकि जब इनमें सन्तुलन बना रहेगा और ये विकाररहित होंगे, तभी ये अवयव प्राणिमात्र के लिए हितकारी हो सकते हैं, क्योंकि विकारयुक्त वस्तु से शान्ति प्राप्ति की आशा करना व्यर्थ है।

यजुर्वेद वाङ्मय में पृथ्वी के पर्यावरण को ठीक रखने का चिन्तन सार्वकालिक है। दूषित पर्यावरण से विभिन्न संक्रामक रोग उत्पन्न होकर मानव के शरीर एवं मस्तिष्क में असाध्य रोग पैदा कर देते हैं। यह भी देखा गया है कि कभी-कभी स्वतः नैसर्गिक प्रकुपित वायु, सूर्य, वर्षा तथा विद्युत के कारण भी पृथ्वी के पर्यावरण में अन्तर आ जाता है। कभी अकस्मात् प्राकृतिक प्रकोप से भी भयानक झंझावत आने लगता है, जिससे अनेक पेड़-पौधे फसल एवं मकान आदि ध्वस्त हो जाते हैं। कभी अत्यधिक वर्षा से नगर और गांव उजड़ जाते हैं। इसी कारण उन नगरों एवं गांवों का पर्यावरण अत्यन्त विकृत हो जाता है तथा महामारी आदि फैलने का भय हो जाता है। भयंकर आन्धी, तूफान तथा वर्षा से पर्याप्त मात्रा में जन-धन की हानि भी होती है। सूर्य के अधिक ताप से भी नुकसान होता है। सूर्य का ताप अनुचित मात्रा में बढ़ जाने से संसार में समशीतोष्ण वातावरण का अभाव हो सकता है। इन कारणों से विश्‍व के पर्यावरण में अन्तर आ जाता है। इन्हीं को शमन करने का उल्लेख यजुर्वेद के निम्न मन्त्र में है-
शं नो वातः पवतां शं नस्तपतु सूर्यः।
शं नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु॥15
अर्थात् वायु हमारे लिए कल्याणमय होकर बहता रहे, सूर्य हम सबके लिए कल्याणकारी होकर तपे, गर्जना करने वाला पर्जन्य देव हम सबों के लिए कल्याणकारक होकर वृष्टि करे।

जिस परिस्थिति में शीतल, सुखदायक, मन्द-सुगन्ध वायु बहता है, सूर्य भूतल में रहने वाले प्राणी एवं पेड़-पौधों को अनुकूल प्रकाश प्रदान करता है, मेघ भी जल-वृष्टि के द्वारा वसुन्धरा को शस्यश्यामला बना देता है, तब भूमण्डल का वातावरण सुखद एवं मनोहर बन जाता है।

यजुर्वेद वाङ्मय में संसार में ऐसी स्थिति निर्माण करने का उपदेश दिया गया है, जो प्रत्येक प्राणी के लिए सुखदायक एवं आनन्दवर्द्धक हो सके। आकाशीय आदित्य तथा वायु के पवित्रतम प्रकाश और गुण से उत्पन्न हुए अन्न, फल, फूल आदि वस्तुओं के सेवन से प्राणी जगत् स्वयं को स्वस्थ समझेगा।
इस भूमण्डल पर कभी-कभी वायु तथा सूर्य आदि के कुपित होने पर समय अर्थात् रात-दिन में अन्तर आ जाता है। सूर्य के प्रचण्ड ताप से रात-दिन भी प्रभावित होते हैं, क्योंकि सूर्य के उदयास्त से ही अहोरात्र की संरचना होती है। अतः इन दोनों में कार्यकारणभाव सम्बन्ध स्थापित होना स्वाभाविक है। लोक में यह देखा जाता है कि कारण का गुण कार्य में पाया जाता है। अहोरात्र का निर्माता या कारण आदित्य है। अतः प्रचण्ड आदित्य का प्रभाव अहोरात्र पर होता ही है। इसीलिए जब ग्रीष्म के समय में दिन एवं रातों के पर्याप्त गरम हो जाने पर भूतल का पर्यावरण अत्यधिक गरम हो जाता है, तो प्राणी जगत क्लान्त एवं खिन्न होकर भीषण गर्मी की अनुभूति करने लगता है। इसी दृष्टिकोण से यजुर्वेद में यह उल्लेख़ आता है-
अहानि शं भवन्तु नः शं रात्रीः प्रति धीयताम्॥16
वैदिक संसाधनों के माध्यम से अहोरात्रीय वातावरण में समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। यह अहोरात्र जब प्राणी-जगत् के लिए परम सुख तथा शान्ति का कारण होंगे, तभी मानव-जगत् दिन में अपने कर्त्तव्य कर्मों का सम्पादन करने के उपरान्त रात्रिकाल में सुखद नींद का अनुभव करते हुए स्वयं को बलवान्, बुद्धिमान, स्वस्थ एवं दीर्घायु बना सकेगा। ऐसी अवस्था विश्‍व में पैदा होने पर-शं न इन्द्राग्नि भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या॥17 इन्द्र, अग्नि आदि सभी दुःख निवारक तथा वरुण प्राणिजगत् के परम रक्षक सिद्ध होंगे। संसार में इस तरह का पर्यावरण निर्माण करने हेतु मानव जब प्रयास करने लग जाएगा, तब सृष्टि के पदार्थों में सन्तुलन बना रहेगा तथा मानव सब तरह के विघ्न, बाधा, आपत्ति और संकट से सुरक्षित रहेगा।

यजुर्वेद वाङ्मय में शान्ति-मन्त्रों के द्वारा समग्र जीवनीय उपादानों को विकृति से मुक्त रहने और प्रकृतिस्थ होकर मंगलकारी होने का निर्देश दिया गया है, वहीं यज्ञों के द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक, भौतिक एवं मानसिक असन्तुलन को निरस्त करते हुए सचेष्ट रखने का व्यवहार प्रचारित किया गया है। धरती, पानी, अग्नि, हवा और स्थान में जीवनीय द्रव्यों की सुरक्षा होती रहे, जीवन विरोधी प्रभाव न हो सके, इसके लिए अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। अनेकविध वनस्पतियों का भी उल्लेख इस प्रकार किया गया है, जिनसे जीवन की रक्षा में सहायता मिलती है और जीवन के विखण्डित होने के सन्दर्भ में वे जोड़ने में सहायक होती हैं। स्वस्थतापूर्वक पूर्णायु के लिए भी अनेकविध उल्लेख किए गए हैं। परिवार, समाज एवं राष्ट्र के सार्वजनिक अभ्युदय की आकांक्षा से भी अनेक उल्लेख मिलते हैं। ये सभी संकेत व्यक्ति के चरित्र का निर्माण कर उसे प्रोन्नति और सर्वजन-हिताय बनाने में सहयोग करते हैं। खाद्य पदार्थों, कृषि कार्य, पशुओं और पक्षियों का भी जीवनीय पर्यावरण के बसन्त में कब और कहाँ उपयोग हो सकता है, इसका उल्लेख भी यजुर्वेद वाङ्मय में प्राप्त होता है।

यद्यपि वैदिक विषयों का प्रतिपादन ही मन्त्रों और मन्त्राभिप्रायों का लक्ष्य है, फिर भी इनमें ऐसे स्थल पर्याप्त मिल जाते हैं, जहाँ पर्यावरणीय प्रसंगों का सन्दर्भ प्राप्त हो जाता है, जिससे यजुर्वेद वाङ्मय में पर्यावरण चेतना का होना प्रमाणित हो जाता है। कहीं शान्तिमन्त्र, कहीं पञ्चमहाभूतों की रक्षा की भावना, कहीं वानस्पतिक एवं जागतिक प्रसंगों का जीवन में विनियोजन, तो कहीं पर व्यक्ति निर्माण एवं समूह जीवन के लिए उपयोगी कर्त्तव्यों एवं निर्देशों का उल्लेख यजुर्वेद वाङ्मय में प्राप्त होता है ।

यही नहीं अन्तःकरण में सद्विचारों के लिए भी वेदों में अनेक स्थलों पर उल्लेख हैं। अन्तःकरण में सद्विचारों की स्थिति रहेगी, तभी हमारे विचारों एवं कार्यों में सदाचार तथा सद्वृत्त फलित होगा। इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर वैदिक ऋषियों ने मानसिक पर्यावरण को सन्तुलित करने के विविध उल्लेख किए हैं। यजुर्वेद में भी मन के मंगल सकंल्पों के लिए अपेक्षा एवं कामना की गई है। जीवन यात्रा शरीर के माध्यम से ही सम्पन्न होती है। यह शरीर स्वस्थ रहेगा, तभी वैदिक क्रियाओं को सम्पन्न किया जाना सम्भव हो पाएगा। वैदिक ऋषि ने सौ वर्ष तक देखते, सुनते, बोलते हुए जीने की इच्छा तो प्रकट की ही है, साथ ही स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसः18 कहकर दृढ़ अंगों से रहते हुए स्तुति करने का भी मनोरथ प्रकट किया है। इस प्रकार शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, जागतिक एवं वानस्पतिक सर्वविध पर्यावरण की रक्षा की विवेचना के प्रसंग यहाँ प्राप्त होते हैं।

सन्दर्भ-
13. Comprehensive English Hindi
Dictionary, Page 589, Dr. Raghuvir
14. यजुर्वेद संहिता 36.17
15. यजुर्वेद संहिता 36.10
16. यजुर्वेद संहिता 36.11
17. यजुर्वेद संहिता 36.11
18. यजुर्वेद संहिता 25.21

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