ओ3म् अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥ (अथर्व. 10.2.31)
शब्दार्थ- यह मानव शरीर (अष्टचक्राः) आठ चक्र और (नवद्वारा) नौ द्वारों से युक्त (देवानाम्) देवों की (अयोध्या) कभी पराजित न होने वाली (पूः) नगरी है (तस्याम्) इसी पुरी में (ज्योतिषा) ज्योति से (आवृतः) ढका हुआ, परिपूर्ण (हिरण्ययः) हिरण्यमय, स्वर्णमय (कोशः) कोश है यह (स्वर्गः) स्वर्ग है। आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा इसी में निहित है।
भावार्थ- मन्त्र में मानव देह का बहुत ही सुन्दर चित्रण हुआ है। हमारा शरीर आठ चक्रों से युक्त है।
वे अष्टचक्र हैं-
1. मूलाधार चक्र- यह गुदामूल में है।
2. स्वधिष्ठान चक्र- मूलाधार से कुछ ऊपर है।
3. मणिपूरक चक्र- इसका स्थान नाभि है।
4. अनाहत चक्र- हृदय स्थान में है।
5. विशुद्धि चक्र- इसका स्थान कण्ठमूल है।
6. ललना चक्र- जिह्वामूल में है।
7. आज्ञा चक्र- यह दोनों भ्रुवों के मध्य में है।
8. सहस्रार चक्र- मस्तिष्क में है।
नौ द्वार ये हैं- दो आँख, दो नासिका छिद्र, दो कान, एक मुख, दो मल और मूत्र के द्वार।
इस नगरी में जो हिरण्यमयकोष=हृदय है, वहाँ ज्योति से परिपूर्ण आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा विराजमान है। योगी लोग योग-साधना के द्वारा इन चक्रों का भेदन करते हुए उस ज्योतिस्वरूप परमात्मा का दर्शन करते हैं। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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