ओ3म् स सूर्यस्य रश्मिभिः परिव्यत तन्तुं तन्वानस्त्रिवृतं यथा विदे।
नयन्नृतस्य प्रशिषो नवीयसीः पतिर्जनीनामुपयाति निष्कृतम्॥ (ऋग्वेद 9.86.32)
शब्दार्थ- (सूर्यस्य रश्मिभिः) ज्ञान-रश्मियों से (परिव्यत) आवृत, परिवेष्टित आत्मावाला (सः) वह गुरु (त्रिवृतं तन्तुं) तीन बटवाले धागे, यज्ञोपवीत को (तन्वानः) धारण कराता हुआ (यथा विदे) सम्यक् ज्ञान के लिए (ऋतस्य) सृष्टि-नियम की (नवीयसीः) नवीन, अति उत्तमोत्तम (प्रशिषः) व्यवस्थाओं का (नयन्) ज्ञान कराता हुआ (पतिः) उनका पालक होकर (जनीनाम्) सन्तानोत्पादक माताओं के (निष्कृतम् उपयाति) सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है।
भावार्थ-
1. जिसकी आत्मा सूर्य के समान देदीप्यमान हो, ऐसा व्यक्ति ही गुरु होने के योग्य है।
2. ऐसा गुरु ही शिष्य को यज्ञोपवीत देने का अधिकारी है।
3. गुरु का कर्त्तव्य है कि वह अपने शिष्य को सम्यक् ज्ञान कराए।
4. गुरु को योग्य है कि वह अपने शिष्य को सृष्टि-नियमों का बोध कराएं।
5. गुरु को शिष्यों का पालक और रक्षक होना चाहिए।
6. ऐसे गुणों से युक्त गुरु माता की गौरवमयी पदवी को प्राप्त होता है। माता के समान गौरव और आदर पाने योग्य होता है।
मन्त्र में आये ‘तन्तुं तन्वानास्त्रिवृतम्’ शब्द स्पष्ट रूप में यज्ञोपवीत धारण करने का संकेत कर रहे हैं। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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