ओ3म् द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥ (ऋग्वेद 1.164.20)
शब्दार्थ- (द्वा सुपर्णा) दो उत्तम पंखों वाले पक्षी, पक्षी की भाँति गमना गमन वाले, आत्मा और परमात्मा (सयुजा) एक-साथ मिले हुए (सखाया) एक-दूसरे के मित्र बने हुए (समानं वृक्षम्) एक ही वृक्ष=प्रकृति अथवा शरीर पर स्थित (परिषस्वजाते) एक-दूसरे को आलिङ्गन किये हुए हैं (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक जीवात्मा (पिप्पलं स्वादु अत्ति) संसार के फलों को स्वादु जानकर खाता है, भोगता है (अन्यः अनश्नन्) दूसरा परमात्मा न खाता हुआ (अभि चाकशीति) केवलमात्र देखता है, साक्षी बनकर रहता है।
भावार्थ- मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है।
जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान् और चेतन हैं। दोनों संसार रूपी वृक्ष पर स्थित हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार के फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नहीं। वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है।
मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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