ओ3म् ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ (यजुर्वेद 31.11)
शब्दार्थ- (अस्य) इस सृष्टि का, समाज का (ब्राह्मणः मुखम् आसीत्) ब्राह्मण मुख के समान है, होता है (बाहू राजन्यः कृतः) क्षत्रिय लोग शरीर में विद्यमान भुजाओं के तुल्य हैं (यत् वैश्यः) जो वैश्य हैं (तत्) वह (अस्य ऊरू) इस समाज का मध्यस्थान, उदर है (पद्भ्याम्) पैरों के लिए (शूद्रः अजायत) शूद्र को प्रकट किया गया है।
भावार्थ-
इस मन्त्र में अलंकार के द्वारा चारों वर्णों का स्पष्ट निर्देश है। मुख की भाँति त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी मनुष्य ब्राह्मण पद का अधिकारी होता है।
भुजाओं की भाँति रक्षा में तत्पर, लड़ने-मरने के लिये सदा तैयार अपने प्राणों को हथेली पर रखने वाले क्षत्रिय होते हैं।
उदर की भाँति ऐश्वर्य और धन-धान्य को संग्रह करके उसे राष्ट्र के कार्यों में अर्पित करने वाले व्यक्ति वैश्य होते हैं।
जैसे पैर समस्त शरीर का भार उठाते हैं, उसी प्रकार सबकी सेवा करने वाले शूद्र कहलाते हैं।
समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिये इन चारों वर्णों की सदा आवश्यकता रहती है। आज के युग में भी अध्यापक, रक्षक, पोषक और सेवक ये चार श्रेणियाँ हैं ही। नाम कुछ भी रक्खे जा सकते हैं, परन्तु चार वर्णों के बिना संसार का कार्य चल नहीं सकता।
इन वर्णों में सभी का अपना महत्व और गौरव है। न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई ऊँच है और न कोई नीच तथा न ही कोई अछूत है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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