अन्ना हजारे की टीम के अहम सदस्य अरविन्द केजरीवाल तथा अन्य लोगों द्वारा यह कहना कि संसद में लुटेरे, हत्यारे, बलात्कारी और डकैत बैठे हैं, किसी भी दल के सदस्य को रास नहीं आया। इस टिप्पणी से बौखलाए सांसदों ने विशेषाधिकार हनन का नोटिस जारी किया और इसके पक्ष में तर्क दिया गया कि इससे संसद की अवमानना हुई है, उसका अपमान हुआ है। हालांकि इन लोगों का आशय समूचे सांसदों अथवा संसद को ’गाली’ देना नहीं था। उन्होंने उन्हीं सांसदों को निशाना बनाना था, जिनके विरुद्ध विभिन्न अदालतों में मामले लम्बित हैं।
केजरीवाल के बयान से उपजी सांसदों और उनसे संबद्ध पार्टियों की ’पीड़ा’ बहस का विषय हो सकती है, परन्तु यह भी उतना ही सच है कि राजनीति के अवमूल्यन, अपराधीकरण, नैतिक पतन और गिरते स्तर को रोकने के लिए किसी भी दल अथवा नेता ने सार्थक प्रयास नहीं किया। इसके लिए भी परोक्ष रूप से मतदाता (जनता) को ही उत्तरदायी ठहराया जाता रहा है कि वह ऐसे उम्मीदवारों को चुनता ही क्यों है, मगर कभी भी उन्होंने अपने गिरेबान में झांककर नहीं देखा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के दुर्भाग्य से ऐसे उम्मीवदारों की संख्या घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है और वे धनबल तथा बाहुबल के सहारे संसद और विधानसभाओं में पहुंच रहे हैं। यदि ऐसे में अन्ना हजारे, केजरीवाल, किरण बेदी या फिर किसी और ने ऐसी कठोर टिप्पणी कर दी तो इसमें गलत क्या है? प्रश्न यह भी उठता है कि कुछ सांसदों के खिलाफ टिप्पणी पूरी संसद का अपमान कैसे हो सकता है?
संसद की गरिमा अथवा राजनीतिक शुचिता का हमारे राजनेता कितना ध्यान रखते हैं, यह सर्वविदित है। पिछले दिनों कांग्रेस प्रवक्ता और संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी की कथित अश्लील सीडी ने तो भारतीय राजनीति के असली चरित्र को ही उजागर करके रख दिया। मीडिया में विरोधियों को कठघरे में खड़ा करने वाले सिंघवी स्वयं मुंह छिपाते नजर आए। इस घटना से न तो संसद का अपमान हुआ और न ही हमारी सांसद बिरादरी का। पार्टी की ’नाक’ बचाने के लिए संसदीय समिति और पार्टी प्रवक्ता पद से जरूर उनका इस्तीफा हो गया। सीडी प्रकरण में तो टीम अन्ना के मुखर आलोचकों को मानो सांप ही सूंघ गया। विपक्ष भी इस पूरे प्रकरण में लगभग ’चुप्पी’ ही साध गया।
अभिषेक सिंघवी वरिष्ठ वकील होने के नाते कानून के अच्छे जानकार भी हैं। ऐसे में उनका दायित्व बनता है कि यदि सीडी नकली है तो वे सम्बन्धित व्यक्ति को सजा दिलवाते, मगर ऐसा नहीं हुआ। इसके उलट पूरे मामले में लीपापोती की कोशिश की गई। इससे लोगों में यह संकेत तो जाता ही है कि दाल में कुछ काला तो जरूर है। इस पूरे घटनाक्रम के साथ ही एक और मामले को कैसे भुलाया जा सकता है, जिसमें रिश्वतखोर नेता और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष (रिश्वत लेते समय पार्टी अध्यक्ष) बंगारू लक्ष्मण को अदालत ने कारावास की सजा सुनाई और उन्हें सलाखों के पीछे जाना पड़ा। सवाल यह है कि क्या संसद और हमारे राजनेता इन घटनाओं से खुद को अपमानित अनुभव करेंगे? - वृजेन्द्रसिंह झाला
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