ओ3म् अभि प्र गोपतिं गिरेन्द्रमर्च यथा विदे।
सूनुं सत्यस्य सत्पतिम्। ऋग्वेद 8.69.4, साम. पू. 2.28.4, अथर्व 20.92.1
ऋषिः प्रियमेधः॥ देवता इन्द्रः॥ छन्दः गायत्री॥
विनय- हे मनुष्य! यदि तू यथार्थ सत्यज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो तू इन्द्र की शरण में जा। ये इन्द्रियाँ, प्रत्यक्ष ज्ञान का साधन समझी जाने वाली ये इन्द्रियाँ तुझे परिमित ज्ञान ही देंगी तथा बहुत बार बड़ा भ्रामक ज्ञान उत्पन्न करेंगी, मन इन्द्रियाँ भी तुझे दूर तक नहीं पहुँचाएगी और तेरे राग-द्वेषपूर्ण मलिन मन की तर्कना-शक्ति केवल कुतर्क में लगेगी। बाहर से मिलने वाला ज्ञान अर्थात् विद्वानों के उपदेश और तत्वज्ञानियों के ग्रन्थ अपनी-अपनी दृष्टि से कहे व लिखे जाने के कारण तुझे कभी कुछ शान्ति न दे सकेंगे। बहुत सम्भव है कि ये तुझे उलझन में डाल दें। तुझे शान्ति दे सकने वाला यथार्थ ज्ञान अपने अन्दर से, अपनी आत्मा से ही मिलेगा। इसे तू अपनी आत्मा में खोज। उस अपनी आत्मा में खोज जो कि इन सब इन्द्रियों का स्वामी है, जिसने अपनी शक्ति प्रदान करके मन आदि इन्द्रियों को अपना साधन बना रखा है, जो सत्य ज्ञानस्वरूप है, जो परम सत्यस्वरूप परमात्मा का पुत्र है और जो स्वभावतः सदा सत्य का पालक है। हे मनुष्य! तू इस सत्यदेव की पूजा कर, आराधना कर। पूरे यत्न से इसे प्रसन्न कर तो तुझे सत्य मिल जाएगा। वाणी-शक्ति द्वारा तू इसकी अपरोक्ष पूजा कर। इस सत्यमय देव की आराधना करने के लिए तुझे सत्यमय वाणी की साधना करनी पड़ेगी। बोलने में, व्यवहार में, हर एक अभिव्यक्ति में पूरी तरह सत्य का पालन करना होगा, अन्दर की मनोमय वाणी में भी सर्वथा सत्य के ही चिन्तन-मनन की विकट तपस्या करनी होगी। अन्दर घुसने पर ही तुझे पता लगेगा कि परिपूर्ण वाणी द्वारा सत्य की आराधना करना कितना कठिन है! पर साथ ही यह भी सच है कि जब तू यह साधना पूरी कर लेगा तो तेरा ‘सत्य सूनु’, ‘सत्पति’ आत्मा प्रकट हो जाएगा और अपना अमूल्य भण्डार, सब सत्यज्ञान के रत्नों का भण्डार, तेरे लिए खोल देगा। तब तुझे कोई उलझन न रहेगी, तेरा निर्मल मन ठीक ही तर्क करेगा, तेरी इन्द्रियाँ भी अधिक स्पष्ट देखेंगी। पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि तब तुझे वह सत्यमयी ‘ऋतम्भरा’ बुद्धि मिल जाएगी, जिसके द्वारा तू जब जिस विषय का यथार्थ ज्ञान पाना चाहेगा वह सब तुझे प्रकाशित हो जाया करेगा। सत्य का पालन करने वाला सत्पति आत्मा स्वयमेव तेरे लिए सत्य की रक्षा करता रहेगा। वाणी द्वारा सत्य की साधना करने का यह स्वाभाविक फल है। हे मनुष्य! तू इस सत्य इन्द्र की आराधना कर, अपरोक्ष रूप से पूरी तरह आराधना कर।
शब्दार्थ- हे मनुष्य! यथाविदे=यथार्थ ज्ञान पाने के लिए तू गोपतिम्=इन्द्रियों के स्वामी इन्द्रम्=आत्मा का गिरा=वाणी द्वारा अभि प्र अर्च=अपरोक्ष और पूरी तरह पूजन कर, उस आत्मा का जो सत्यम् सूनुम्=सत्य का पुत्र है और सत्पतिम्=सदा सत् का पालक है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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