विशेष :

उद्धार का मार्ग

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ओ3म् अग्निमिन्धानो मनसा धियं सचेत मर्त्यः।
अग्निमीधे विवस्वभि॥ ऋ. 8.102.22 साम. पू. 1.1.2.9

ऋषिः पावको बार्हस्पत्यः॥ देवता अग्निः॥ छन्दः निचृद्गायत्री॥

विनय- मैं जो प्रतिदिन आग जलाकर अग्निहोत्र करता हूँ उससे क्या हुआ, यदि इस अग्नि-दीपन से मेरे अन्दर की आत्म-ज्योति न जग सकी। यदि मेरे प्रतिदिन अग्निहोत्र करते रहने पर भी मेरे जीवन में कुछ भेद न आया, मेरा व्यवहार-आचरण वैसा-का-वैसा रहा, न मुझमें सद्बुद्धि ही जागृत हुई और न मैं सत्कर्मों में प्रेरित हुआ, तो मेरा यह सब अग्निचर्या करना व्यर्थ है। सचमुच हरेक बाह्य-यज्ञ अन्दर के यज्ञ के लिए है। बाहर की अग्नि इसलिए प्रदीप्त की जाती है कि उसके द्वारा एक दिन अन्दर की आत्माग्नि प्रदीप्त हो जाए। यह आत्माग्नि मन द्वारा प्रदीप्त की जाती है। इसीलिए कहा गया है कि बाहर के द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा अन्दर का मानसिक यज्ञ हजार गुणा श्रेष्ठ होता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि मन द्वारा अपनी आन्तर अग्नि को जलाये, आत्माग्नि को प्रदीप्त करे और इस प्रकार ‘धी’ को, सद्बुद्धि को प्राप्त कर ले तथा सत्कर्म में प्रेरित होता हुआ आत्मकल्याण को पा जावे। जो मनुष्य मनन करते हैं अर्थात् आत्मनिरीक्षण, आत्मचिन्तन, विचार और भावना करते हैं, जाप करते हैं तथा धारणा, ध्यान, समाधि लगाते हैं, वे इन सब मानसिक प्रक्रियाओं द्वारा आत्मज्योति को जगा लेते हैं और उन्हें सत्यबुद्धि, ज्ञानप्रकाश, सदा ठीक कर्म में ही प्रवृत्त कराने वाली समझ मिल जाती है। अतः आज से मैं इस अग्नि को प्रदीप्त करूँगा। विवस्वतों द्वारा, तमोनिवारक ज्ञानकिरणों द्वारा इस अग्नि को प्रज्ज्वलित करना प्रारम्भ करूँगा। जैसे सूर्यकिरणों द्वारा संसार की सब प्रकार की ज्योतियाँ प्रदीप्त और प्रकाशित होती हैं, वैसे उस ज्ञान-सूर्य सविता परम आत्मा की किरणों द्वारा ही मैं अपनी आत्माग्नि को प्रदीप्त करूँगा। सत्यज्ञान देने वाले सब वेदाग्नि ग्रन्थ, सत्य का उपदेश देने वाले सब गुरु, आचार्य, मेरे अन्दर मन की सब सात्त्विक वृत्तियाँ ये सब उसी ज्ञान सूर्य की भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में फैली हुई किरणें हैं, विवस्वत् हैं। मैं इन द्वारा आज से अपनी आत्माग्नि को प्रतिदिन प्रदीप्त करता जाऊँगा। यही मेरे उद्धार का सीधा, साफ और चौड़ा मार्ग है।

शब्दार्थ- मनसा=मन द्वारा अग्निम्=अग्नि को, आत्मा को इन्धानः=प्रज्वलित करता हुआ मर्त्यः=मनुष्य धियम्=सद्बुद्धि को और सत्कर्म का सचेत=प्राप्त करें। मैं विवस्वभिः=तम को हटाने वाली ज्ञान-किरणों द्वारा अग्निम्=इस अग्नि को ईधे=प्रदीप्त करता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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