ओ3म् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥ ऋग्वेद 7.59.12॥
शब्दार्थ- सुगन्धिम् = सुगन्धि से सम्पन्न पुष्टिवर्धनम् = पुष्टि को बढाने वाले त्र्यम्बकम् की यजामहे = हम पूजा, आराधना करते हैं, संगति करते हैं। उर्वारुकमिव = जैसे खरबूजे जैसा फल बन्धनात् = अपने बन्धन, डण्ठल से स्वाभाविक रूप से अलग होता है, ऐसे ही हमें मृत्योः = मृत्यु के बन्धन (चक्र) से मुक्षीय = छुड़ाइए अमृतात् = अमृत से, जीवन से, मोक्ष से जो मृत्यु से भिन्न प्रकार का है, उससे मा (मुक्षीय) मत अलग कीजिए। हम उससे सदा संयुक्त करें।
व्याख्या- वाक्य का सामान्य नियम होता है कि एक तिड्वाक्यम् अर्थात वाक्य में एक तिड् = क्रियापद अवश्य होता है और वह आख्यात प्रधान होता है। अतः इस मन्त्र में क्रियापद है- यजामहे अर्थात हम यजन-पूजन करते हैं। प्रश्न उभरता है, किसका यजन करते हैं? इसके लिए मुख्य रूप से आया है कि हम त्र्यम्बक का यजन करते हैं। त्र्यम्बक में त्रि और अम्बक का संयोग= मेल है। अम्बक, अम्ब = माता, आँख, कारण, मूल रूप की ओर संकेत करता है। अतः संसार रूपी रचना के तीनों रूपों (सृष्टि, पालन, संहार) को जो करता है, जिसका अ-उ-म् के योग से बना ओ3म् नाम है। ऐसे ही ज्ञान-कर्म-उपासना रूपी तीन प्रकार के ज्ञानों के आधारभूत चारों वेदों के ज्ञान का देने वाला है। वह परमपिता प्रभु ही त्र्यम्बक है। अतः उसी का ही पूजन हमें करना चाहिए।
कैसे त्र्यम्बक का हम पूजन करें? उसके गुण एवं विशेषण बताते हुए मन्त्र में आगे कहा है कि वह त्र्यम्बक सुगन्धिम् है। जैसे फूल की सुगन्ध सबको सुवासित करती है, ऐसे ही जो सबको सुख, यश, शान्ति देने वाला है। सुगन्ध की तरह यत्र-तत्र, इधर-उधर व्याप्त है। मन्त्र में दूसरा विशेषण है- पुष्टिवर्धनम्। यह पुष्टि, दृढता, टिकाव को बढाने वाला है। किसी की पुष्टि से ही उसका कर्म सामर्थ्य प्रकट होता है। जिस तत्व से किसी का टिकाव और विकास होता है, उस पुष्टि को वह बढ़ाने वाला है। अतः ऐेसी आधारभूत शक्ति को देने वाला भी त्र्यम्बक पद वाच्य ईश्वर ही है।
मन्त्र की दूसरी पंक्ति में इस त्र्यम्बक को स्पष्ट करने वाली एक उपमा दी गई है। इस उपमा से आगे आ रही दूसरी क्रिया पर भी बहुत अच्छा प्रकाश पड़ता है। उर्वारुकमिव=उर्वारुक की तरह, उर्वारुक खरबूजे के लिए प्रसिद्ध है। वह पकने पर सुगन्धि से भर उठता है तथा ग्रीष्म ऋतु में ऋतु के अनुकूल सेवन करने पर पुष्टि = स्वास्थ्य का देने वाला होता है। उसी की तरह अध्यात्म जीवन के लिए त्र्यम्बक स्वास्थ्यप्रद होता है।
मन्त्र के अग्रिम भाग में यजन के परिणाम के रूप में प्रार्थना की गई है। अर्थात् इस उपासना से हमारे अन्दर ऐसी योग्यता, पात्रता आ जाती है, जिसका भाव है कि साधना से व्यक्ति इस प्रकार सिद्ध हो जाता है। इसको प्रार्थनामय शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है कि मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। अर्थात् मुझे मृत्यु से मुक्त कीजिए, अमृत से नहीं।
जिस प्रकार जब एक खरबूजा पकने की स्थिति में पहुँचता है, तो वह सुगन्ध से भर जाता है तथा पुष्टि देने वाला बन जाता है। इस स्थिति में पहुँचा हुआ खरबूजा स्वतः अपने डण्ठल से अलग हो जाता है। अर्थात इस स्थिति को प्राप्त हुए खरबूजे को फिर किसी को तोड़ना नहीं पड़ता। क्योंकि वह स्वतः ही पहले डण्ठल से पृथक हो चुका होता है। ठीक ऐसे ही यजनात्मक उपासना से सिद्ध होकर हम मृत्यु रूपी स्थिति से मुक्त हो जाएँ।
हाँ, जो अमृत वाली स्थिति है, उससे हम दूर न हों। अर्थात् उससे सदा भरपूर हों। ऐसी योग्यता से सदा सम्पन्न रहें। अमृत शब्द न +मृत से बनता है अर्थात् जिसकी मृत्यु जैसी नाश, बिगाड़, बिखराव वाली स्थिति न हो। अतः अमृत = जीवन, टिकाव जैसी दशा का बोधक है। ’अमृत’ शब्द सबसे अधिक ईश्वर, मोक्ष पर चरितार्थ होता है। ईश्वर जहाँ अविनाशी है, वहाँ मोक्ष में 36000 वार जब तक सृष्टि-प्रलय होता है, तब तक जन्म-मरण से छुटकारा हो जाता है। जिन-जिन स्थितियों में या जिस-जिस दशा में कोई टिका रहता है, वह भी अमृत है। जैसे कि संगठन व विद्या से किसी में स्थायित्व आता है। यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् से एक भावना यह भी ली जा सकती है कि सुगन्धित व पुष्टिकारक पदार्थों से यजन करना चाहिए। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | सफलता का विज्ञान | वेद कथा - 90 | यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या | Science of Success | Ved Gyan