ओ3म् स्वस्तिपन्थामनुचरेम सूर्वाचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताघ्नता जानता संगमेमहि॥ ऋग्वेद 5.51.11॥
शब्दार्थ- सूर्याचन्दमसौ इव = सूर्य और चान्द की तरह स्वस्तिपन्थाम् = कल्याण के मार्ग का अनुचरेम = अनुसरण करें, मार्ग पर चलें। पुनः = बारम्बार ददता = सहयोग देते हुए, देने वाले के साथ अघ्नता = हानि न पहुँचाते, कष्ट न देते हुए, कष्ट न देने वाले के साथ जानता = एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए, एक-दूसरे की भावनाओं को जानने वाले के साथ संगमेमहि = संगठित हों, सामाजिक जीवन जिएँ, मिलकर रहें।
व्याख्या- इस मन्त्र की दोनों पंक्तियों में अलग-अलग क्रियापद हैं। अतः दो भिन्न-भिन्न वाक्य मानकर अर्थ करना अधिक संगत होगा। सूर्य और चन्द्रमा की तरह हम सदा सर्वत्र कल्याण के मार्ग पर चलें। कभी किसी का कहीं अकल्याण, बुरा करने का प्रयास न करें। सूर्य-चन्द्र दोनों के दोनों प्रत्यक्ष हैं। ये प्रतिदिन हमारे सामने कार्य करते हैं। अतः हम इनके कार्य को प्रत्यक्ष रूप में देखते हैं कि ये किस प्रकार संसार का कल्याण करते हुए अपना-अपना कार्य कर रहे हैं। सूर्य प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रकाश, ऊर्जा और उष्मा से सभी को नियमित रूप से लाभान्वित कर रहा है। इन तीनों से हमारे अनेक कार्य होते हैं। सूर्य कभी किसी को अपना गुण, लाभ देने में किसी आधार पर किसी प्रकार का पक्षपात नहीं करता है। हाँ, आज अनेक लोग विज्ञान के साथनों की सहायता से सौर ऊर्जा का विशेष लाभ ले रहे हैं। परन्तु बहुत लोग इसका लाभ नहीं लेते, तो भी सूर्य की ओर से किसी प्रकार की रोक नहीं है।
सूर्य हमारी फसलें पकाने, पर्यावरण को शुद्ध रखने आदि के कार्यों को नियमित रूप से करता है। चन्द्रमा अपनी चान्दनी, शीतलता, स्निग्धता, रस आदि जिस प्रकार से बरसाता है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। ये दोनों कभी किसी प्रकार की किसी की हानि नहीं करते। हम प्रातः न उठकर या किसी विशेष ढंग से दूर रहकर उनका लाभ न लें, तो यह हमारी इच्छा पर है। पर दाता की ओर से अपनी देन देने में कोई अन्तर नहीं किया जाता।
’स्वस्ति’ शब्द कल्याण के अर्थ में आता है। इसका भाव है कि जिस स्थिति में जिसका लाभ, भला, अच्छा हो। प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक काल में हर व्यक्ति हर प्रकार से अपना कल्याण (भला) ही चाहता है। स्वस्ति शब्द के आन्तरिक विश्लेषण से भी इस अर्थ की पुष्टि होती है। जैसे कि स्वस्ति = सु+अस्ति = अच्छी स्थिति, सत्ता। जिसमें कोई सु रहे, अच्छा अनुभव करे। प्रत्येक अपने कल्याण में ही सु अनुभव करता है। इसी को अपना भला (अच्छा) मानता है।
यहाँ पहली क्रिया अनुचरेम है। इसमें अनु = अनुकरण, उस जैसा भाव दर्शाता है। इस आधार पर अनुचरेम का प्रसंग प्राप्त अर्थ होगा कि जैसे सूर्य-चन्द्र अपनी-अपनी व्यवस्था, परिक्रमा का पालन करते हैं, ठीक उसी प्रकार नियमित, व्यवस्थित रूप से हम भी अपनी-अपनी मर्यादाओं का अनुपालन करें। यहाँ केवल चरेम न होकर अनुचरेम है, जो क्रिया प्राकृतिक व्यवस्थाओं के सदृश अनुकरण की भावना को प्रकट करती है। अतः यह स्वारस्य पूर्ण क्रिया अपना विशेष रूप दर्शाती है।
मन्त्र की दूसरी पंक्ति में कहा- संगमेमहि। अर्थात् हम परस्पर संगठित हों, मिलकर रहें, सामाजिक जीवन जीएं। सामाजिक जीवान के मूलभूत आधार व प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए ही कहा है- पुनदर्दता। समाज का प्रत्येक सदस्य दूसरे को अपेक्षा के अनुरूप बार-बार सद्भाव एवं सहानुभूतिपूर्वक परस्पर सहयोग दे। क्योंकि समाज या परिवार में कुछ बड़े होते हैं अर्थात अनेक रूपों में समर्थ, समृद्ध होते हें। वे संसार में पहले आते हैं या विशेष गुण अथवा शक्तियुक्त होते हैं। अतः वे अपनों से दिशा-निर्देश तथा विविध प्रकार का सहयोग प्राप्त करके पहले स्वावलम्बी बन जाते हैं। इस परम्परा के अनुसार स्वावलम्बी तब अपने अनुजों को प्रत्येक प्रकार से संज्ञान और विविध वस्तुओं आदि का भरपूर सहयोग दे सकते हैं। इस प्रकार हर तरह से फूलता-फलता है।
अघ्नता- यह सर्वविध सहयोग परस्पर अघ्नता बिना हानि व बिना हिंसा की स्थिति और रूप तक हो। अर्थात् यह सहयोग तभी स्थायी एवं लाभप्रद रहता है, जब परस्पर हानि न हो, दाता और ग्रहीता, हिंसा की स्थिति में न आएँ। यह सहयोग परस्पर कष्ट या दुःख देने की स्थिति में न जाए। अन्यथा तब वह निभता नहीं, स्थायी नहीं बन सकता। क्योंकि प्रत्येक की शक्ति सीमित है।
जानता- यह अनुभव या स्थिति तभी हो सकती है, जब एक-दूसरे को और उसकी स्थिति सामर्थ्य को समझा जाता है। अर्थात् एक-दूसरे को समझने पर ही अघ्नता की भावना को चरितार्थ किया जा सकता है। इस सबका सबसे अच्छा उदाहरण पति-पत्नी का व्यवहार है। वे दोनों बारम्बार सद्भाव और सहानुभूतिपूर्वक सहयोग देते हैं। यह सहयोग परस्पर नुकसान न पहुँचाने की स्थिति तक होता है। यह सारा व्यवहार परस्पर को समझते हुए या एक-दूसरे को समझने को आधार बनाकर किया जाता है। ठीक ऐसे ही हमारे सामाजिक जीवन का व्यवहार भी इसी कसौटी से हो।
भारतीय परम्परा में पति-पत्नी की उपमा सूर्य-चन्द्र से दी जाती है। इन दोनों की तुलना भी अनेकदा सूर्य-चन्द्र से की जाती है। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | वेद कथा - 88 | वेद सन्देश - ज्ञान के अनुसार कर्म । वैदिक कर्म विज्ञान | Explanation of Vedas Hindi