विशेष :

व्यक्ति के सुधार से ही समाज सुधरेगा

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मुम्बई के एक भीड़ भरे स्टेशन पर एक छोटा बच्चा माँ-बाप से बिछुड़ने के कारण जोर-जोर से रो रहा था। उसके पास जाकर रोने का कारण पूछा गया तो उसने बताया कि मेरे पप्पा-मम्मी खो गए हैं। बात दृष्टिकोण की थी। उसके पप्पा-मम्मी के लिये बच्चा खोया था और बच्चे के लिए पप्पा-मम्मी खोए थे।

ज्यों-ज्यों धन का लोभ लोगों को लगने लगा, लोगों ने धन कमाने के लिये किसी भी रास्ते को गलत नहीं माना। बस, धन आना चाहिए भले ही रास्ता कोई भी हो! यह भी उतना ही सही है कि व्यवसाय में धन कमाने के भी उसूल होते हैं और उसूलों से धन सीमित मात्रा में ही कमाया जा सकता है। पर व्यवसाय में जब बेईमानी जुड़ जाती है तो वह मुनाफाखोरी बन जाती है और मुनाफाखोरी के लिए कोई उसूल, सीमा या आदर्श नहीं होता। मुनाफाखोरी लालच का दूसरा नाम है।

लालच की कोई सीमा नहीं होती। उससे आदमी धन को नहीं, धन आदमी को कमाने लगता है, धन आदमी के ईमान पर हावी हो जाता है। फिर धन आदमी के सिर पर सवार हो जाता है, जिसे ’अहम्’, ’अहंकार’ कुछ भी कहा जा सकता है। सिर पर चढ़ा हुआ बुद्धि पर भी परदा डाल देता है। तब आदमी धन के साथ-साथ अक्ल का भी प्रदर्शन करने लगता है। इसी अक्ल का परिणाम है धन की फिजूलखर्ची। वह रोज-रोज नए रास्ते धन खरचने के लिए खोजने लगता है।

मुनाफाखोरी और बेईमानी की कमाई का धन सात्त्विक मार्ग पर तो वह लगा नहीं सकता। वह लगता है दिखावे की उछल-कूद में, ऐय्याशी और फिजूलखर्ची में। वैसी स्थिति में उन नवधनाढ्यों के यहाँ प्रसंग चाहे सत्यनारायण की कथा का हो या बच्चों की वर्षगांठ का, सभी में फिजूलखर्ची का भोण्डापन दिखाई देगा। नये रिवाज व रिवाजों में नई-नई कलाबाजियाँ, कलाबाजियों में वैभव और वैभव के प्रदर्शन में अहम् का भाव। बस, फिर नव धनाढ्यों की नकल उनसे कम धनाढ्य से लेकर साधारण परिवार तक होने लगती है। अच्छे का अनुकरण कम होता है। पर गलत का अनुकरण छूत की तरह फैलने लगता है। अच्छा व्यवहार अच्छा आचरण प्रचार और प्रयास करने पर भी लोग नहीं सीख पाते। पर गलत व्यसन, गलत आदतें सिर्फ देखा-देखी से ही बिना किसी क्लास-कोचिंग के सीख जाते हैं।

इस तरह मुनाफाखोरी की कमाई किसी न किसी रूप से उछलने लगती है। उन्हीं गुणों की सम्पन्नता समाज का नेतृत्व करने निकल पड़ती है। जिस धन ने उनके जीवन को उन्मत्त कर रखा है उससे वे कीर्ति प्राप्त करने की लालसा लिए फिरते हैं। इसलिए समाज में थोड़ा रुपया बिखेरकर अपना प्रभुत्व जमाने लगते हैं। धन से नेतृत्व तो मिल जाता है पर चिन्तन और निष्ठा कहाँ से लाएंगे? उनके प्रयास अपनी ही फिजूलखर्ची, दिखावे आदि दुर्गुर्णों को समाज पर थोपते हैं। ऊपर से समाज को उपदेश देने की धृष्टता करने लगते हैं।

अपनी फिजूलखर्ची और वैभवी प्रदर्शन को रोकने के बजाय वे समाज को सुधारने की भूमिका पर उतर आते हैं। वे अपने-आपको सुधारक मानने लगते हैं। यही बात उस खोए बच्चे की है जो खोया तो स्वयं है पर बताता है कि मम्मी-पापा खो गए हैं। बिगड़े तो वे स्वयं हैं। उन्होंने ही धन-वैभव का गलत प्रचलन कर गलत और भौण्डे रिवाज शुरू किए हैं। पर यत्न समाज-सुधार के करने लगते हैं। समाज-सुधार के नाम पर जलसे की सदारत करना, जो जी में आए भाषण करना, प्रस्ताव करना, नियम बनाना आदि सभी कुछ बिना सूझ-बूझ के करने लगते हैं। तब शायद वे उस कीर्ति मद में डूबे रहते हैं जिससे उन्हें स्वयं तक का भान नहीं रहता। बात तालियों के शोर-शराबे में पारित हो जाती है। पर जब कुछ अर्से बाद वही उनके घर में प्रसंग आता है तो उन नियमों का जान-बूझकर खण्डन करते हैं।

तब उन्हें खुद के बनाए हुए नियम, प्रस्ताव भाषण आदि निरर्थक, बेकार या समाजघातकी लगने लगते हैं। नियम बनाते समय, भाषण करते समय, मञ्च पर बैठते समय उन्हें समाज की संगठन शक्ति का दर्शन होता है। पर अपने घर में वैभवी नशे में संगठन टूटने का कारण दिखता है। पहले बाल-विवाह के फेरे बच्चे नींद में ही लगा लेते थे जो उन्हें बाद में याद नहीं रहतेथे। ठीक इसी तरह इन्हें भी अपने भाषण, प्रस्ताव आदि याद नहीं रहते।

न तो समाज बिगड़ा है, न नियम बिगड़ा हैं। बिगड़ा अगर कोई है तो व्यक्ति बिगड़ा है। जो बीमार है इसका इलाज तो नहीं मगर खटिया और बिस्तर का इलाज-इंजेक्शन चलता है। तो फायदा कैसे होगा? किसे होगा?

सुधार समाज का नहीं, व्यक्ति का होना है। सुधार नियमों का नहीं, निष्ठा का होता है। नियम तभी अच्छे रहेंगे जब उनका पालन निष्ठा से होगा।

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