ओ3म् सं वर्चसा पयसा तनूभिरगन्महि मनसा सं शिवेन।
त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायोऽनु मार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम्॥ (यजुर्वेद 2.24)
शब्दार्थ- हम लोग (वर्चसा) ब्रह्मतेज से (पयसा) अन्न और जल से (तनूभिः) दृढ़ और नीरोग शरीरों से (शिवेन मनसा) शिवसंकल्पयुक्त मन में (सम् अगन्महि) भली प्रकार संयुक्त रहें। (सु-दत्रः) उत्तम-उत्तम पदार्थों का दाता (त्वष्टा) सर्वोत्पादक परमात्मा हम सबको (रायः) धन=विद्या और सदाचाररूपी धन (विदधातु) प्रदान करे और (तन्वः) हमारे शरीरों में (यत्) जो कुछ (विलिष्टम्) प्राणघातक पदार्थ हों उनको (अनुमार्ष्टु) शुद्ध करे।
भावार्थ-
1. हम लोग ब्रह्मतेज से युक्त रहें।
2. अन्न और जल, शरीर संचालनार्थ आवश्यक भोग्य सामग्री हमें प्राप्त होती रहे।
3. हमारे शरीर पत्थर के समान दृढ़ और नीरोग हों जिससे आन्तरिक और बाह्य शत्रु हमारे ऊपर आक्रमण न कर सकें।
4. मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में शारीरिक स्वास्थ्य भी समाप्त हो जाता है, अतः हमारा मन भी स्वस्थ और शिवसंकल्प वाला हो।
5, सृष्टिकर्ता परमात्मा हमारे लिए विद्याधन, ज्ञानधन, विज्ञानधन, सदाचार धन आदि नाना प्रकार के धन प्राप्त कराए।
6. हमारे शरीर में जो हानि पहुँचाने वाले तत्व हैं उन्हें शुद्ध करके हमारे शरीरों में जो न्यूनता है उसे पूर्ण कर दे। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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