ओ3म् यथाहान्यनुपूर्वं यथा भवन्ति ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु।
यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम्॥ (ऋग्वेद 10.18.5)
शब्दार्थ- (यथा) जिस प्रकार (अहानि) दिन (अनुपूर्वंम्) एक दूसरे के पीछे अनुक्रम से (भवन्ति) होते हैं (यथा) जिस प्रकार (ऋतवः ऋतुभिः साधु यन्ति) ऋतुएँ ऋतुओं के साथ एक-दूसरे के पीछे चलती हैं (यथा) जैसे (अपरः) पिछला, पीछे उत्पन्न होने वाला (पूर्वम्) पहले को, पूर्व विद्यमान पिता आदि को (न जहाति) न छोड़े, न त्याग करे (एवा) इस प्रकार (धातः) सबको धारण-पोषण करने वाले प्रभो! (एषाम्) इन हमारी (आयूंषि) आयुओं को (कल्पय) बनाइये।
भावार्थ- दिन और रात्रि अनुक्रम से एक दूसरे-के पीछे आती हैं। उनका क्रम भंग नहीं होता। ऋतुएं भी एक क्रम विशेष के अनुसार ही आती हैं। गर्मी के पश्चात् बरसात और फिर सर्दी। इस क्रम में व्यक्तिक्रम नहीं होता। इसी प्रकार आयु मर्यादा भी ऐसी हो कि पिछला पहले को न छोड़े अर्थात् जो पहले उत्पन्न हुआ है वह पहले मरे, जो पीछे उत्पन्न हुआ है वह पीछे मरे। भाव यह है कि पुत्र पिता के पीछे आता है तो उसकी मृत्यु भी पीछे ही होनी चाहिए। पिता के समक्ष पुत्र की मृत्यु नहीं होनी चाहिए।
आज दूषित खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार और व्यवहार के कारण हमारे जीवन में विकार आ रहे हैं। आज पिता के समक्ष पुत्रों की और दादा के सामने पौत्रों की मृत्यु हो रही है। हमें अपने आहार-विहार आदि में परिवर्तन कर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे पिता को पुत्र-शोक न हो। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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