बड़े ही लाड़-प्यार में पली हमारी बेटी युवा होने पर सुखी दाम्पत्य जीवन का सपना मन में संजोकर रखती है। इसका स्वप्न साकार होने की जब शुभ घड़ी आती है, तब माता-पिता धूमधाम के साथ विवाह कर पति के साथ विदा कर देते हैं। वह अपने सुखमय भविष्य के प्रति आश्वस्त होकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करती है। चन्द्रमा की शीतल चाँदनी और उसकी अमृतमयी किरणें नवजीवन में उसका भव्य स्वागत करती हैं।
कभी-कभी सूर्योदय की प्रथम किरण ही नवविवाहिता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण संदेशा लेकर आती है। नवप्रभात की खुशियाँ दुःख की कालिमा में डूब जाती हैं। दहेज रूपी दानव अपना विकराल रूप धारण कर उसे निगलने को तत्पर हो जाता है। ससुराल में उपेक्षा, घृणा, आलोचना और अनादर का सामना प्रारम्भ हो जाता है। ऐसा दुर्व्यवहार करने के बाद भी जब पति, सास, ससुर और ननद सन्तुष्ट नहीं होते, तब या तो जीवन भर तड़प कर मरने के लिये अकेली छोड़ देते हैं अथवा दहेज की बलिवेदी पर जलाकर मार डालते हैं। ऐसी मर्मान्तक पीड़ा से आहत होकर हमारी अनेकों बेटियाँ इस संसार से विदा हो जाती हैं। पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित वैभवपूर्ण जीवन का सुख भोगने की विकृत मानसिकता इस बहशी कुकर्म का मुख्य कारण है।
इसका एक कारण यह भी है कि पश्चिम की चकाचौंध से प्रभावित कुछ बेटियाँ अपनी अनमोल परम्पराओं का त्याग कर सास-ससुर तथा अन्य परिजनों की उपेक्षा, पति से अनावश्यक तर्क-वितर्क, लघुजनों से ईर्ष्या, रूखा व्यवहार, सामाजिक मान्यताओं से विमुखता, धर्म के प्रति अरुचि, वाणी में मधुरता का अभाव, शिष्टाचार से अनभिज्ञ तथा गृहस्थ धर्म को अपमानित करने वाली आधुनिक शिक्षा से प्रभावित होकर अपने विनाश का कारण स्वयं ही बन जाती हैं। भारत जैसी पवित्र देवभूमि में जन्म लेकर पूजापाठ, भगवत् स्मरण और अपनी संस्कृति के अनुरूप पारम्परिक व्यवहार के प्रति रूचि, रसोई के कामकाजों में प्रवीणता, अतिथि सत्कार, परिजनों एवं समाज के प्रति अपने दायित्व, यह आधुनिक पीढ़ी आवश्यक नहीं समझती। वर्तमान शिक्षा से प्रभावित माताएं भी अपने बेटियों के ऐसे आचरणों में सही मार्गदर्शन नहीं करती। इनकी ऐसी प्रवृत्ति बेटी का भविष्य बिगाड़ने में सक्रिय भूमिका निभाती है ! विवाहित बेटी का जीवन नारकीय बनाने में ससुराल पक्ष के कार्यकलापों को भी नकारा नहीं जा सकता।
बेटी के सुखी वैवाहिक जीवन के प्रति माता-पिता का दायित्व- हमारे परिवारों में बेटी जब यौवन की दहलीज पर कदम रखती है, तब सुयोग्य वर और घर के लिए माता-पिता की चिन्ता स्वाभाविक ही है। भगवती पार्वती जब विवाह योग्य हो गई, तब उनके पिता हिमवान को भी वर ढूंढने की चिन्ता हुई थी-
कुँवारी सयानी बिलोकि, मातु पितु सोचहिं।
गिरिजा जोग जरिहि, बरु अनुदिन लोचहिं॥
महाराजा जनक जी को भी जानकी के लिए स्वयंवर का आयोजन करना पड़ा था। इस भौतिकवादी संसार में अपने मापदण्ड के अनुसार सुखी परिवार देखकर हमारे समाज में कन्या का सम्बन्ध कर देने की प्रथा है। जैसे हर चमकदार वस्तु सोना नहीं होती, हर सीप में मोती नहीं होता और हर पत्थर हीरा नहीं होता, उसी प्रकार हर परिवार श्रेष्ठ और युवक चरित्रवान नहीं होता। परिणाम यह होता है कि हर परिवार में बेटियों को सुख नहीं मिलता।
घर और वर देखते समय हमसे भूल कहाँ होती है ? सामाजिक परम्परा के अनुसार हम अपनी पुत्री के योग्य युवक को देखते हैं। यदि वह आकर्षक व्यक्तित्व का सुन्दर युवक है, बड़े बाप का बेटा है, व्यवसाय अथवा उच्चकोटि की नौकरी में लगा है, तो उसके गुण-अवगुणों की अनदेखी कर उसे वर रूप में स्वीकार कर लेते हैं। इस विषय में सन्त तुलसीदास, ने सचेत करते हुए लिखा है-
तुलसी देख सुवेषु भूलहिं मूढ न चतुर नर।
सुन्दर केकहि पेखु वचन सुधा सम असन अहि॥
सुन्दर वेष देखकर चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाता है। मोर का स्वरूप और सौन्दर्य अनुपम और वाणी अत्यन्त मधुर होती है, परन्तु उसका आहार सर्प होता है अर्थात् सुन्दर शिष्टाचारी और मृदुभाषी युवक अनाचार में लिप्त हो सकते हैं। युवक के पश्चात् हम देखते हैं, उस परिवार का व्यवसाय । भौतिक सम्पन्नता के अन्तर्गत उसका वैभव, बंगला और गाड़ियाँ देखकर मुग्ध हो जाते हैं और उनके पक्ष में निर्णय ले लेते हैं। हम समझने लगते हैं कि इस घर में बेटी राज करेगी, परन्तु यह सोच भी कभी-कभी गलत हो जाती है क्योंकि-
ऊँच निवासु नीचि करतूति, देखि न सकहिं पराई विभूति।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि भव्य महलों में रहने वाले तथाकथित रईस नीच प्रकृति के भी मिल जाते हैं, जो दूसरों की धन सम्पदा पर गिद्ध जैसी दृष्टि जमाये रखते हैं। ये ऐसी प्रवृत्ति के होते हैं जैसे-
छुद्र नदी भरि चली तोराई, जस थोरेहुं धन खल इतराई।
बरसाती नदी वर्षा ऋतु में उफनकर अपने किनारे तोड़ने लगती है, उसी प्रकार येनकेन प्रकारेण अल्प समय में धन कमाकर वैभव प्रदर्शित करने वाले व्यक्ति अस्थाई धन कुबेर होते हैं। ऐसे परिवारों के प्रति तुलसी बाबा सचेत करते हुए लिखते हैं-
हृदय कपट वर वेष धरि, वचन कहहि गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों, क्यों मिलिये मन खोलि।
छल और कपट से भरे जिनके आकर्षक व्यवहार और मीठे बोल होते हैं, उनसे सम्बन्ध स्थापित नहीं करना चाहिए। संत तुलसी ने आदर्श कुल की व्याख्या करते हुए हमारा इस प्रकार मार्गदर्शन किया है-
सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत।
श्री रघुवीर परायन, जेहिं नर उपज विनीत॥
जिस परिवार में श्रीराम जी के भक्त और विनम्रता की मूर्तियाँ हैं, वह परिवार धन्य है, श्रेष्ठ है। श्रेष्ठजन की परिभाषा बताते हुए सन्तश्री ने आगे लिखा है-
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहिं, गिरि निज सिरनी सदा तृन धरहिं।
जलधि अगाध मौलि वह फेनू, संतन धरनि धरत सिर रेनू॥
श्रेष्ठजन सदैव अपने लघुजनों पर स्नेह रखते हैं, सबके प्रति विनम्र बने रहते हैं जैसे पर्वत अपने शीश पर छोटे-छोटे तिनकों को और महासागर अपने ऊपर फैन धारण करता है, पृथ्वी धूल को अपने ऊपर आश्रय देती है। इस प्रकार के संस्कारित परिवारों में अपनी लाड़ली का सम्बन्ध करना चाहिए। बिटिया सदा सर्वदा सुखी रहेगी।
बेटी के सुखी वैवाहिक जीवन के प्रति माता-पिता का योगदान- बेटी को विदा करते समय माता-पिता की शिक्षा का उसके सुखमय जीवन में विशेष महत्व होता है। कैसी सीख देनी चाहिए, उसके लिए जनकनंदिनी जानकी की माता सुनयना से प्रेरणा लें। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में लिखा हैकि जनकपुर की चारों लाडली सीता, उर्मिला, माण्डवी और श्रुतकीर्ति के क्रमशः श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के साथ विवाह बन्धन में बंधने के पश्चात् अयोध्या प्रस्थान के समय माता सुनयना उन्हें शिक्षा देते हुए कहती हैं, हे पुत्रियो-
सास ससुर गुरु सेवा करहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहु। रुकहि धर्म एक व्रत नेमा। कांय वचन मन पति पद सेवा।
आज से तुम्हारा नया जीवन प्रारम्भ हो रहा है। ससुराल में जाकर सास, ससुर और गुरु की सेवा तथा पति के मन के अनुकूल उनकी आज्ञा का पालना। करना। मन-वचन और शरीर से पति की सेवा करना ही नारी का धर्म होता है।
हमारा समाज साक्षी है कि आधुनिक माताएं अपनी बेटियों को ठीक इसके विपरीत शिक्षा देकर उनके जीवन में विष घोल रही हैं । उनकी कल्पना है कि मेरी बेटी ससुराल में ऐश्वर्य पूर्ण जीवन का भोग करे। उसके लिए सास-ससुर, ननद, देवर, ज्येष्ठ और लघु भ्राताओं से दूरी बनाकर अकेले ही घर बसाकर रहने की प्रेरणा ये माताएं ही देती हैं। जरा सोचिये ! क्या ऐसी शिक्षा से हमारी बेटियाँ सुखी रह सकती हैं।
हमारे देश के वे माता-पिता जिनकी बेटियाँ दहेज अथवा अन्य कारणों से जलाकर या विष देकर मार दी जाती हैं अथवा ससुराल में पिंजरे के पंछी की भाँति घोर यन्त्रणाओं को सहते हुए भूखी-प्यासी अपनी सांसों को पूरी कर रही हैं, विचार करें उनसे कहाँ गलती हुई है।
हमारी इस देवभूमि भारत में नारी को उत्तम जीवन संगिनी, वात्सल्यमयी माँ, सेवा और त्याग की साक्षात मूर्ति और श्रद्धा की पात्र माना गया है। हमारे शास्त्रों में नारी के प्रति आदरभाव दर्शाया गया है । नारी पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन की आधारशिला होती है। कहा जाता है कि जिस कुल में नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है।
प्रत्येक माता पिता का कर्त्तव्य है कि अपनी पुत्रियों को भारतीय संस्कृति और अपनी प्राचीन परम्पराओं के अनुकूल संस्कारित करें। इसी में बेटी के सुखी वैवाहिक जीवन का मर्म छिपा है। - अर्जुन बन्सल
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