शिक्षा का क्षेत्र विस्तृत है। जीवन-निर्माण का यह सर्वोत्कृष्ट साधन है। जिस प्रकार की शिक्षा दी जाती है, उसी शिक्षा के अनुसार मानव एवं समाज का निर्माण होता है। शिक्षा के कारण ही मानव अपने जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता हैतथा शिक्षा के कारण ही वह पतित भी हो सकता है। यह सब श्रेष्ठ-शिक्षा और निकृष्ट-शिक्षा का ही फल है। वास्तविक शिक्षा भी वही है जो मानव को अपने इस जीवन रूपी सागर से पार पहुँचा देवे। अतएव महर्षि दयानन्द सरस्वती ने स्वमन्तव्यामन्तव्य में शिक्षा के विषय में प्रकाश डालते हुए लिखा है- “जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियता आदि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें उसको शिक्षा कहते हैं।’’
आज के इस भौतिक साधनों से सम्पन्न संसार में शिक्षा के विषय में पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। परन्तु वह ध्यान उस आध्यात्मिक लक्ष्य से गिराने वाला है, जिससे कि मनुष्य अपने जीवन का निर्माण कर सकता है। आज की शिक्षा केवल भोग विलास की शिक्षा है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने उद्देश्य से पतित हो रहा है। आज के शिक्षा शास्त्रियों ने, जिन्होंने पाश्चात्य ढंग से शिक्षा प्राप्त की है, शिक्षा के उद्देश्यों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्रत्येक पाश्चात्य शिक्षा विशेषज्ञ का भिन्न-भिन्न मन्तव्य है, जबकि हमारे ऋषि मुनियों का शिक्षा पर विशेषतया एक ही मन्तव्य है।
‘शिक्षा’ शब्द की निष्पत्ति ‘शिक्ष विद्योपादाने‘ धातु से ‘अ’ और ‘टाप्’ प्रत्यय करने पर होती है। वेद में भी पर्याप्त स्थानों पर इस शब्द का प्रयोग हुआ है। शिक्षा ग्रन्थों तथा वेद के व्याकरण नियामक प्रातिशाख्य ग्रन्थों का भी ‘शिक्षा‘ शब्द से ग्रहण होता है। आचार्य यास्क ने शिक्षा के तीन मुख्य उद्देश्यों को लेकर ‘आचार्य’ शब्द की निरुक्ति निरुक्तशास्त्र में की है- आचार्यः कस्मात् ? आचार्य आचारं ग्राहयति, आचिनोत्यर्थान्, आचिनोतिबुद्धिमिति वा (अध्याय 1, खण्ड 4) आचार्य को आचार्य किसलिये कहा जाता है ? आचार्य को आचार्य इसलिये कहा जाता है कि वह शिष्य को आचार का ग्रहण करवाता है। पदार्थों का संचय करवाता है तथा बुद्धि का निर्माण और विकास करता है।
मनु महाराज ने भी आचार्य का लक्षण करते हुए यास्क के एक उद्देश्य का संकेत दिया है। यथा-
उपनीय तु य शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः।
संकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥
काशिकावृत्ति में आचार्य को चार्वी नाम से भी कहा गया है। चार्वी बुद्धि का भी पर्यायवाची है। बुद्धि के योग से आचार्य भी चार्वी कहलाता है। क्योंकि आचार्य पदार्थों को उपपत्तियों से स्थिर करके शिष्यों को उनसे अवगत कराता है। अतः यास्क का ‘आचिनोत्यर्थान्’ कहना सर्वथा सार्थक है। इस प्रकार हम जब ‘आचार्य’ शब्द पर विचार करते हैं, तो हमें शिक्षा के उद्देश्यों का ज्ञान बहुत सरलता से हो जाता है।
‘आचार्य’ शब्द के विवेचन से शिक्षा के तीन मुख्य उद्देश्य स्पष्ट हो जाते हैं-
1. विद्यार्थी को सदाचारी बनाना।
2. विद्यार्थी के अन्दर पदार्थों के बोध का संचय करना।
3. विद्यार्थी की बुद्धि का विकास करना।
आज की शिक्षा पद्धति में किताबी शिक्षा देते हुए यत्किञ्चित् द्वितीय उद्देश्य को ही पूर्ण किया जाता है। अतः आज की पद्धति अधूरी है। आइये! अब इन तीनों पर विचार विमर्श करें।
शिक्षा की तीन मुख्य विशेषताओं में या यों शिक्षा के तीन मुख्योद्देश्यों में प्रथम विशेषता यह है कि विद्यार्थी को सदाचारी बनाया जाये। वैदिक और संस्कृत ग्रन्थों में सदाचार की महिमा का विस्तृत वर्णन मिलता है। महाभारत में एक स्थान पर आया है कि “सदाचार से हीन व्यक्ति को तो वेद भी पवित्र नहीं करते, चाहे उसने षडङ्ग सहित वेद का अध्ययन किया हो। छन्द भी इसको मृत्यु के समय ऐसे छोड़ देते हैं, जिस प्रकार पंख आ जाने पर पक्षी अपने घोंसले को छोड़ देते हैं।’’
मनु महाराज ने भी कहा है कि “आचार से मनुष्य आयु को प्राप्त करता है। ईप्सित प्रजा=सन्तान को प्राप्त करता है तथा आचार से अक्षय धन को प्राप्त करता है। मनुष्य चाहे समस्त शुभ लक्षणों से हीन है, परन्तु यदि वह सदाचारवान् है, श्रद्धा रखने वाला है, निन्दा न करने वाला है, तो वह शतवर्ष पयर्न्त जीवन धारण करता है । आचार से हीन विप्र वेद के फल को प्राप्त नहीं करता। यदि वह आचार से युक्त है तो ही सम्पूर्ण फल को प्राप्त करने वाला होता है।“ इस प्रकार से मनु महाराज ने अनेक स्थानों पर सदाचार की प्रशंसा की है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थप्रकाश में दूसरा समुल्लास सदाचार की शिक्षाओें के लिये तथा विद्याध्ययन के विषय में लिखा है। अन्य शास्त्रों में भी इसका विशद वर्णन है।
आचार्य यास्क ने प्रथम उद्देश्य से यजुर्वेद अध्याय 6 में प्रतिपादित चरित्र निर्माण का संकेत किया है। वेद के ये मन्त्र हैं-
ओ3म् वाचं ते शुन्धामि प्राणं ते शुन्धामि चक्षुस्ते शुन्धामि श्रोत्रं ते शुन्धामि नाभिं ते शुन्धामि मेढ्रं ते शुन्धामि पायुं ते शुन्धामि चरित्राँस्ते शुन्धामि ॥ यजुर्वेद 6.14॥
ओ3म् मनस्त आप्यायतां वाक् त आप्यायतां प्राणस्त आप्यायतां चक्षुस्त आप्यायतां श्रोत्रं त आप्यायताम्।
यत्ते क्रूरं यदास्थितं तत्त आप्यायतां निष्टयायतां तत्ते शुध्यतु शमहोभ्यः। ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिंसीः॥ यजुर्वेद 6.15॥
ओ3म् इदमापः प्रवहतावद्यं च मलं च यत्।
यच्चाभिदुद्रोहानृतं यञ्च शेषे अभीरुणम्।
आपो मा तस्मादेनसः पवमानश्च मुञ्चतु॥ यजुर्वेद 6.17॥
यहाँ पर यह बतलाया गया है कि गुरु या आचार्य शिष्य को सभी तरफ से सदाचारी बनाये। देह, इन्दिय, अन्तःकरण, मन आदि सभी की शुद्धि करना भी आचार्य के लिए अत्यावश्यक है। यह सब इन वेद मन्त्रों में कहा गया है। ऋषि दयानन्द ने इन तीनों मन्त्रों को शिक्षा परक लगाया है। साधारण संस्कृत पढ़ा-लिखा भी इन मन्त्रों के भाव को जान सकता है। भाव यह है कि वेद भगवान् ने आचार्य को यह प्रेरणा दी है कि हे आचार्य! तू अपने शिष्य को पुत्रवत् सभी प्रकार से सदाचारी बना, बलवान् बना तथा आत्मवान् बना। शिष्य को आदेश दिया गया है कि हे शिष्य ! तू अपने आचार्य की आज्ञा को, गुरु को पित्वत् मानकर शिरोधार्य किया कर, आचार्य का कोई अहित न करना आदि । वास्तव में यह शिक्षा भी तब ही प्राप्त हो सकती है,जबकि गुरुकुल में शिष्य श्रद्धाभाव से जाये। विद्यार्थी सदाचारी भी इसी पद्धति से विद्याध्ययन करके हो सकता है।
शिक्षा का द्वितीय उद्देश्य यह है कि विद्यार्थी के मन के अन्दर पदार्थों के बोध का सञ्चय किया जाये। आचार्य जब शिष्य को अपने गुरुकुलरूपी गर्भ के अन्दर धारण करता है, तब उसको पहले सदाचारी बनाकर बाद में वर्णोच्चारण से लेकर वेदों के ज्ञान को प्राप्त करवाता है। इतना अध्ययन करने पर शिष्य को समस्त पदार्थों का बोध हो जाता है।
प्रमाण और प्रमेय का ज्ञान आचार्य, न्यायादि शास्त्रों के आधार पर करवाये। क्योंकि इन शास्त्रों में प्रमेय की परीक्षा भलीभान्ति की गई है। परस्पर इन दर्शनों में कोई भी विरोध दृष्टिगोचर नहीं होता, जबकि अन्य नास्तिक दर्शनों में पर्याप्त विरोध पाया जाता है। अनार्ष ग्रन्थों को पढ़ना तो एक प्रकार से विषपान करना है। अतः महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्ष-अनार्ष का भली-भांति विवेचन किया है। भाव यह है कि आचार्य शिष्य को सीधे मार्ग से पदार्थ बोध करावे, जिससे अल्प समय में ही शिष्य पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लेवे। पदार्थ और प्रमेय का ज्ञान होने के बाद शिष्य अध्यात्म विषय में अबाधगति से गमन कर सकता है। तृतीय मुख्य उद्देश्य बुद्धि का विकास करना है। बुद्धि का विकास मनोवैज्ञानिक ढंग से करना चाहिये, जिससे सात्त्विक बुद्धि का निर्माण हो। आचार्य बुद्धि का विकास-निर्माण करके शिष्य पर वह उपकार कर देता हैकि जिससे शिष्य सांसारिक विषय-वासनाओं को दूर से ही छोड़ देता है। वह किसी भी प्रकार से लोकहित और देशहित का विरोधी नहीं हो सकता तथा वेद विरुद्ध सिद्धान्त का मानने वाला नहीं हो सकता। अतः शिक्षा का तीसरा उद्देश्य बुद्धि का विकास करना है। इन तीनों उद्देश्यों के आधार पर शिक्षा प्राप्त करने वाला मनुष्य वास्तव में ही देव बन जाता है। मनुष्य कोटि को छोड़कर देव की कोटि को प्राप्त कर लेता है। देव और मनुष्य का भेद शतपथ में इस प्रकार से बतलाया है- सत्यं वै देवाः,अनृतं मनुष्याः॥
The Purpose of Education | Life Formation | Best Education | The Glory of Virtue | Uninterrupted Speed | Chromaticity | Sattvik Intelligence | Public Interest and Nationality |