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विश्‍व को परिवार मानने वाले पड़ोसी-धर्म ही भूल गए

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हम आर्य-संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं जिसमें सम्पूर्ण विश्‍व को एक परिवार की भाँति स्वीकार किया गया है। हमारे विवेक में ‘मनुष्य मात्र बन्धु है’ की भावना रही है। शक, हूण आदि विदेशी जातियाँ हमारे यहाँ आई और हमारी उदारता के परिणामस्वरूप हमारे बीच रच-पच गई। पारसी समाज आज भी हमारे बीच प्रतिष्ठा प्राप्त है। अरे! मनुष्य ही क्या हमारे राम तो सबमें बसे हुए हैं। कृष्ण सबके हृदय में निवास करते हैं। ईशावास्यमिदं सर्वम्। ईश्‍वरमय सब जड़-चेतन है। प्राणिमात्र का पिता केवल एक परमपिता परमेश्‍वर को हृदय की गहराई से स्वीकार करने वाली विश्‍ववरेण्य वैदिक संस्कृति हमें उत्तराधिकार में प्राप्त हुई है। इसी के आधार पर हमारी कर्म साधना होती रही है। और अब.....?

हमारे कथन की सीमा उस वर्ग तक सीमित है जो अपने को आर्य मानते हैं और हिन्दू कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं। यही वर्ग आज ’विश्‍व बन्धुत्व’ तो क्या पड़ोसी-धर्म ही भूल गया है। परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। इस धर्म का पूर्णतः परित्याग का मनुष्य स्वयं की और अपने परिवार की सम्पन्नता में वृद्धि करने के लिए यहाँ तक गिर गया है कि वह भ्रष्टाचार की ओर इतना बढ़ता जा रहा है कि उसे खाद्यानों और दवाइयों में भी मिलावट कर जन-जीवन को खतरे में डालने का भी उसे कुछ भी संकोच नहीं है। देशहित और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए कुछ करने की बात तो बहुत दूर की बनती जा रही है। भारत और भारतीय-संस्कृति तो खतरे में है ही, इन स्वार्थी और भ्रष्टाचारियों का जीवन भी मृत्यु के कगार पर है। शिक्षित-वर्ग तो गले-गले तक भ्रष्टाचार, द्वेष, स्वार्थ आदि में डूबा हुआ है। प्रश्‍न उठता है कि इस घोर पतन के क्या कारण हो सकते हैं? उत्तर सीधा सा है कि हम पथ-भ्रष्ट हो गए हैं। पिता हमारे मस्तिष्क के मार्गदर्शक और माता हमारे हृदय का शृंगार होती है। वेद का कथन है-पुत्र पिता का अनुयायी हो, माता से हो उत्तम मन।

हृदय की श्रेष्ठ व उत्तम भावनाएँ और मस्तिष्क के ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न उत्तम विचार मिलकर ही श्रेष्ठ अर्थात् मानवोचित आचरण का आधार होते हैं। आर्य संस्कृति के निर्माता व दिशादर्शक ऋषिगण हमारे सर्वप्रथम पिताश्री हैं। इनसे मार्गदर्शन लेना त्यागकर आज का भारतवासी विभिन्न मत, पन्थ, सम्प्रदाय और वर्गों में न केवल विभक्त हो गया है, बल्कि एकमात्र परमपिता परमेश्‍वर का भी विभाजन कर बैठा है। हर वर्ग अपने को दूसरे से श्रेष्ठ मानकर थोथे अहं को पाले बैठा है। ऐसे व्यक्ति स्वार्थी, अहंवादी और भ्रष्ट नहीं होंगे तो क्या होंगे? वर्तमान पतन का यह एक कारण है। दूसरा है माता के हृदय में निहित श्रेष्ठ भाव जैसे वात्सल्य, प्रेम, निस्वार्थ सेवा की लगन जैसे भावों को ग्रहण न कर उनकी अवहेलना। मातृप्रेम व मातृभक्ति के आधार पर ही मानव मातृभाषा, मातृसंस्कृति व मातृभूमि के प्रति आदर करना सीखता है और जिस तरह माता अपने पुत्र पर आए संकट से उसे बचाने के लिए सिंह का साहस धारण कर लेती है, उसी प्रकार मानव उपर्युक्त तीनों माताओं के स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपूर्व साहस धारण कर दुश्मन के दाँत खट्टे करने में समर्थ हो जाता है। ऐसे पुरुष स्वार्थी, दम्भी, भ्रष्ट व कायर कैसे हो सकते हैं? ऐसे चरित्र को धारण करने के लिए आवश्यक है- अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु सम्मनाः॥ (अथर्ववेद) पुत्र पिता का अनुयायी हो, माता से हो उत्तम मन। पिता से तात्पर्य वेदवेत्ता ऋषिगण से भी होता है। तब पड़ोसी-धर्म ही क्या विश्‍व को परिवार मानने वाले सच्चे अर्थों में भारतीय कहला सकेंगे। - प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी

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