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सदाचार/नैतिकता क्या क्यों, कैसे?

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भ्रष्टाचार व अनैतिकता वर्तमान में राष्ट्रीय चिन्ता का विषय बन गया है। इससे छुटकारा पाने के प्रयास भी चरम सीमा पर लाए जा रहे हैं। भारत के वन्दनीय पुरुषों ने इस बीमार से राष्ट्र को उबारने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा रखी है। सम्पूर्ण राष्ट्र इस दिशा में उठ खड़ा हो गया है। महापुरुषों के अथक परिश्रम के परिणाम स्वरूप इस दिशा में सुधार की झलक दिखाई देने लगी है।

इस प्रसंग पर राष्ट्रव्यापी चिन्तन अपेक्षित है। अनैतिकता, भ्रष्टाचार समाप्त करने के प्रयासों के साथ सदाचार-नैतिकता के बीजारोपण की ओर सर्वाधिक ध्यान देने की नितान्त आवश्यकता है। सदाचार-नैतिकता के सूर्योदय के होते ही भ्रष्टाचार-अनैतिकता का अन्धेरा स्वयं पलायन कर जाता है।

सदाचार-नैतिकता किसे कहा जाता है? सन्त आधारित आचरण सदाचार और नीति आधारित आचरण नैतिकता माना जाता है। सत् परमेश्‍वर का नाम और सत् ही उनका परिचय है। इसके अनुसार आचरण के लिए कहा गया है- ‘सत्यमेव जयते’। सत्य आधारित जीवन जीने की कलाओं व नीतियों का संकलन ही धर्म है। यही नीतियों का निदेशक है। इसी से निर्देशित आचरण ही नैतिकता है। इसी को आत्मसात करने के लिए प्रार्थना है- “.....धियो योनः प्रचोदयात्’। यह ब्रह्माण्ड उसी सत्य की अभिव्यक्ति है। उसी नियम पर चलकर नियति प्राणिमात्र का निस्वार्थ एवं उदारभाव से पालन-पोषण करती है। हम सभी प्रकृति की उपज हैं। बीज की अभिव्यक्ति ही फल होता है। वही फल बीज बनकर फल में परिवर्तित होता है। फल अपना स्वभाव नहीं बदला। मानव भी परा प्रकृति की अपरा प्रकृति के रूप में अभिव्यक्ति है। इस अभिव्यक्ति को उसके मौलिक रूप में स्वस्थ बनाए रखना है, तो वर्तमान बीज को स्वस्थ बनाए रखना आवश्यक है। इसी स्वस्थता के लिए मानव का सत्य आधारित आचरण अर्थात् सदाचार परम आवश्यक है। यही सदाचार के क्यों का उत्तर है।

यह सदाचार-नैतिकता कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इसके लिए विगत कल के पृष्ठों का गहराई से चिन्तन-मनन करना होगा। वही व्यवहार आइना है। आजकल संस्कार-हीनता की चर्चा सार्वजनिक रूप से होती रहती है। संस्कारों का निर्माण कर्मों के आधार पर होता है। उदाहरणार्थ, जिन घरों में पशुओं के बच्चों को बड़े प्यार से अपने बच्चों के समान पालते हैं। घर के बालक भी उन्हें प्यार करने लगते हैं। बड़े होने पर उन मूक प्राणियों का वध करके खाते रहते हैं। घर के बालकों के संस्कार में निर्दयता आ जाना स्वाभाविक है। खाद्यानों और दवाइयों में मिलावट करने वाले पिता से उनके बच्चे मिलावट करना बुरा नहीं समझते। इससे सिद्ध होता है कि कर्मों से संस्कार और स्वाभाव बन जाते हैं। इसी प्रकार सदाचार की पृष्ठभूमि में श्रेष्ठ कर्मों की प्रेरणा होती है, जो परिवार में ही उपलब्ध होती है। कहावत है-
“जैसे होते नदी नाले-वैसे उसके खड़का-खड़की,
जैसे होते मात-पिता, वैसे उनके लड़का-लड़की।’
यही क्रम चलता-रहता है। क्रान्तिवीर, देशभक्त और बलिदानियों को उनके परिवार की शौर्यपूर्ण बलिदानी परम्परा वरदान के रूप में प्राप्त हुई थी। वे उसी महान् परम्परा की उपज थे। गुरु गोविन्दसिंह जी को अपने पूर्व गुरुओं की गौरवशाली परम्परा प्राप्त थी, जिसकी प्रेरक शक्ति उनके संघर्ष-सहन करने की शक्ति थी। उनके वीर पुत्रों का बलिदान उन्हीं का व्यावहारिक शिक्षण ही तो था। महारानी लक्ष्मीबाई के शौर्यपूर्ण चरित्र की पृष्ठभूमि इस प्रकार थी-
‘वह नाना के संग खेली थी, नाना के संग पढ़ती थी।
बरछी, ढाल, कृपाण कटारी, उसकी संग सहेली थी,
वीर शिवाजी की गाथाएं, उनको याद जबानी थी।
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, उनके थे प्रिय खिलवाड़,
महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, वीर सावरकर आदि समस्त क्रान्तिकारियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि उनकी प्रेरक शक्ति थी। प्राचीनकाल में सोलह-संस्कार, यज्ञ, दान, सेवा, गो-रक्षा, धर्मवीर, दानवीर आदि महापुरुषों की गाथाएँ, सोलह संस्कार आदि सदाचारी व नैतिक युवा पीढ़ी के निर्माण की प्रयोगशाला थी। इसमें निर्मित सदाचारी पुरुष राष्ट्र और विश्‍व को एक परिवार की दृष्टि से देखते थे। फिर परिवार में भ्रष्टाचार कैसे सम्भव था।

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए कठोर दण्ड व्यवस्था एक साधन अवश्य है, परन्तु सदाचार को जीवन-चरित्र का अंग बनाने के लिए परिवार और शिक्षालयों के वातावरण को मानवीय मूल्यों के साथ निष्काम कर्मयोग की प्रयोग स्थली बनाना होगी। एक समय था जब-
‘आगे-आगे दो कदम चले,
पीछे-पीछे इतिहास चला।’
और अब भी सम्भव है-
‘आगे-आगे चलकर देखो,
इतिहास हमारे हाथों में।
सदाचार के पाठ पढ़ाओ,
भविष्य हमारे हाथों में।’’ - प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी

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