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माताएँ सपूतों को खोज रहीं हैं

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एक गीत के बोल जिसमें माताओं के हृदय की अन्तर्वेदना निहित है-
माँ अपने लाल कहाँ ढूंढ फिरेंगी !
हाय ये क्या पैदा हुए, कीट हुए हैं,

ऐसे कपूतों से भली बाँझ रहेंगी।
ये माताएँ हैं- मातृभाषा (राष्ट्रभाषा के सन्दर्भ में), मातृ-संस्कृति और मातृभूमि। ये तीनों माताएँ अपने सपूतों को खोज रही हैं, जो उसकी रक्षा और समृद्धि का उत्तरदायित्व पूर्ण कर सकें। राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी लिपि देवनागरी ब्रह्माण्डव्यापी समस्त ध्वनियों को उसके मौलिक रूप में अभिव्यक्त करने में समर्थ है। किसी भी अन्य लिपि में इतना सामर्थ्य और क्षमता नहीं है। वर्तमान में महाविद्यालयों में हिन्दी पढ़ने वालों का अभाव यह दर्शाता है कि हिन्दी पढ़ने वालों के लिए सेवा के अवसर नहीं है। महत्वपूर्ण कम्पनियों में, कार्यालयों में सभी जगह अंग्रेजी का बोलबाला है। इसी कारण सब अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में प्रवेश दिलाने के पक्षधर होते जा रहे हैं।

दूसरी माँ है ‘भारतीय-संस्कृति’। भाषा संस्कृति का आधार होती है। जब भाषा की घोर उपेक्षा हो रही है तो संस्कृति का लुप्त होते जाना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय संस्कृति मानव में राष्ट्रीय स्वाभिमान प्रेरित करती है। मानव में मानवता जाग्रत कर उसमें करुणा, सेवा, देशप्रेम के भाव जाग्रत करती है। मानव इसके अभाव में स्वार्थी, भ्रष्टाचारी, घूसखोर, मिलावटी बन जाता है। आज हमारी यही दशा है। देश के लिए मर मिटने की बात तो बहुत दूर हो गई है। राष्ट्र पर कितने भी संकट आ जाएं, गरीबी-भुखमरी कितनी भी बढ़ जाए, आतंकवादी खून की होली खेलते रहें, तो भी स्वार्थी मानव अपने और अपने परिवार की समृद्धि के लिए भ्रष्टाचार में लिप्त रहता है। इस सन्दर्भ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ चिन्ता का स्पष्ट संकेत दे रही हैं-
हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी। आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएं सभी॥
कहाँ है भारत-माता का वह सपूत महाकवि तुलसीदास, जिसने बादशाह अकबर के निमन्त्रण को ठुकराकर राष्ट्रीय स्वाभिमान के गौरव की रक्षा की थी। उसी काल का एक दूसरा सपूत महाराणा प्रताप जिसने राष्ट्रीय गौरव की रक्षा के लिए वन-वन भटकना स्वीकार किया, परन्तु मानसिंह की तरह अकबर के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया। इसी सन्दर्भ में छत्रपति शिवाजी का नाम भी गौरव के साथ भारतीय मानस की अमूल्य निधि है। संस्कृति की अमर धरोहर के रूप में चाणक्य नीति-सूत्र एवं कौटिल्य का अर्थशास्त्र के रचयिता विष्णुगुप्त चाणक्य सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक हैं। संस्कृति-माता खोज रही है ऐसे ही पुत्रों को, जो उसे पुनः जगतगुरु के वैभव से अलंकृत करवा सकें। कुपुत्रों की हरकतें देख माँ की आँखों में अश्रु आ जाना स्वाभाविक है। इनकी हरकतों में कहा गया है कि “राम और कृष्ण कल्पना के पात्र हैं। ऐतिहासिक नहीं हैं। ये तो कवियों के काल्पनिक पात्र हैं। वेद विश्‍व के प्रथम ग्रन्थ नहीं हैं। इनसे भी पूर्व अन्य देशों में ग्रन्थ लिखे जा चुके थे।’’

तीसरी माता है- ‘मातृभूमि’। इस माता का रुदन तो हृदय-विदारक है। यह बहुत ही चिन्तातुर है। उसी के नासमझ पुत्रों ने उसके दुश्मनों से समझौता कर उसका अंग-भंग करवा ही दिया है। उन्हीं पुत्रों से अब वह निराश है। उस पर संकट के बादल अभी भी मण्डरा रहे हैं। उसके दुश्मन और भी विभाजन का षडयन्त्र रच रहे हैं। साहस के साथ शक्ति प्रदर्शन से दूर वर्तमान पुत्र समझौता करने पर ज्यादा विश्‍वास करते हैं। इन पर मातृभूमि भारत-माता को जरा भी विश्‍वास नहीं है।

आज भारत माता अपने साहसी पुत्रों को याद करते हुए विलाप कर रही है। “कहाँ है मेरा प्रिय राम जिसने स्वर्णमयी लंका की तुलना में अपनी जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी अधिक गौरवशाली और प्रिय कहा था। कहाँ है वह पुत्र चन्द्रगुप्त मौर्य जिसने मुझ पर आँख उठाने वाले यूनान को न सिर्फ परास्त ही किया, बल्कि उसकी सीमा उत्तर में दूर-दूर तक बढ़ा दी थी। वहाँ की कन्या से विवाह कर मुझे सुरक्षा प्रदान की थी। असुरों ने जब मेरी भूमि पर कब्जा कर लिया था, तब मेरे क्रान्तिकारी पुत्रों ने अपने सुखों को त्यागकर मुझे स्वतन्त्र करने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब आदि सभी क्षेत्रों के क्रान्तिवीर मेरी स्वतन्त्रता के लिए शहीद हो गए थे। जय-हिन्द का उद्घोष करने वाला सुभाषचन्द्र बोस, सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, फड़के बन्धु सभी मेरे हृदय में बसे हैं।’’

आज भारतमाता अपने साहसी सुपुत्रों को याद करते हुए विलाप कर रही है। तीनों माताएँ मातृभाषा, मातृसंस्कृति और मातृभूमि उनके लिए मर मिटने वाले पुत्रों को याद कर-कर उन सुपुत्रों के लिए आशा लगाए बैठी हैं, जो उसके भोले-भाले पुत्र-पुत्रियों की रक्षा कर सकें तथा मातृभूमि के टुकड़े होने से बचा सकें। आतंकी राक्षसों से लोगों को बचा सकें और दण्ड दे सकें। उसे ‘जगद्गुरु का वैभव’ पुनः प्रदान करा सकें। ये तीनों माताएं ऐसे सपूतों को खोज रही हैं । - प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी

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