विशेष :

दीपों की आभा में रत्नों की जगमग दीपावली

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deepawali

कई हजार साल पहले दक्षिण भारत में गोलकुंडा की हीरे की खानों से एक हीरा निकला था, जिसका नाम ‘प्रभामेरु’ (कोह-ए-नूर,कान्ति का पहाड़) रखा गया । कहा जाता है कि वैसा चमकदार निष्कलंक रत्न आज तक संसार में और कोई नहीं पाया गया । यद्यपि उससे बड़े कई हीरे मिले, परन्तु किसी के रंग में कमी थी, किसी में मामूली सा दाग- धब्बा था, जिसके कारण वे ‘प्रभामेरु’ की तुलना में टिक नहीं पाते थे ।

हीरे की दमक- हीरे में कई फलक होते हैं । जिसमें जितने अधिक फलक होते हैं, वह उतना ही मूल्यवान होता है । प्रकाश की किरण किसी भी एक फलक से प्रवेश करती है, तो वह हीरे के सभी फलकों से एक साथ बाहर निकलती है । इसी कारण हीरा दमकता है, जगमगाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें सब ओर से प्रकाश फूटा पड़ रहा है ।
हीरे की इसी विशेषता के कारण यह आवश्यक है कि उसमें बाल की नोक बराबर भी कोई धब्बा या मलिनता न हो । सूक्ष्म सा धब्बा भी हर फलक में से निकलते प्रकाश में दीखेगा और उसकी चमक मारी जायेगी।
प्रभामेरु-‘प्रभामेरु’ इसलिए अमूल्य है कि उसमें कोई ‘बाल’(खरोंच) या ‘दाग’(धब्बा) नहीं है । प्रभामेरु को शाहजहां ने अपने मयूर सिंहासन में जड़वाया था । बाद में उसके वंशज मुहम्मदशाह से लुटेरा नादिरशाह प्रभामेरु समेत मयूर सिंहासन को छीनकर ले गया। फिर महाराजा रणजीतसिंह ने ईरान से उसे छीन लिया । इस समय वह हीरा इंग्लैंड के राजमुकुट में जड़ा है ।
महाकवि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण में एक नहीं, बहुत से प्रभामेरु बिखेर दिये हैं, जो सहस्राब्दियों से जगमगा रहे हैं । राम और सीता, लक्ष्मण और भरत, हनुमान और जटायु, रावण और मेघनाद, विभीषण और निषादराज गुह, एक से एक देदीप्यमान चरित्र हैं, प्रभामेरु जैसे ही देदीप्यमान ।
पुरुष की कल्पना- वेद के पुरुष सूक्त में ब्रह्मांड पुरुष (परम पुरुष, ईश्‍वर) की कल्पना की गई है । वह परम मेधावी (सहस्रशीर्षा), सर्वदर्शी(सहस्राक्ष) और सर्वत्र पहुंचने में समर्थ (सहस्रपात्) है । वह चराचर का स्वामी है । उससे बड़ा कोई नहीं है । वह देवों का देव है। उसमें ब्रह्म की क्रान्ति है ।
श्री और लक्ष्मी-उस परम पुरुष की दो पत्नियां हैं- श्री और लक्ष्मी। श्रीश्‍च लक्ष्मीश्‍च ते पत्न्यौ । यह वेद की काव्य भाषा है, अलंकार है ।
वाल्मीकि लौकिक कवि थे । उन्होंने उस परम पुरुष और उसकी श्री एवं लक्ष्मी रूपिणी पत्नी को राम और सीता का रूप दे दिया । इन चरित्रों को एक मनोहारिणी कथा में गूंथ दिया, जिस कथा को पढकर हम विस्मित होते हैं, रोते हैं, पुलकित होते हैं, हंसते हैं और अन्त में राम की विजय पर संतोष की सांस लेते हैं । लाखों वर्षों से लाखों-करोड़ों लोग इस कथा पर मुग्ध हैं । इसे पढते हैं, इसे गाते हैं, मंच पर इसका अभिनय करते हैं।
ब्रह्म और क्षत्र-राम ब्रह्मवर्चस् और क्षात्र तेज का अद्भुत मिश्रण हैं । वह मानो शरीर धारण किये हुए आर्यत्व हैं । वह शूर हैं, सब विद्याएं उन्होंने पढी हैं, वाग्मी हैं, शिष्टाचार जानते है, भय उनके पास नहीं फटकता ।
वह वशिष्ठ के शिष्य होने के साथ विश्‍वामित्र के भी शिष्य हैं । सज्जनों की सेवा करने के साथ-साथ दुर्जनों के दमन का व्रत भी उन्होंने लिया है । पराजय और अपमान उन्हें छू नहीं सकता। क्योंकि पराजित और अपमानित होन पर वह रहेंगे ही नहीं। वह रहे तो पराजय और अपमान करने वाला जीवित नहीं रहेगा । मूर्ध्नि वा सर्व लोकस्य, शीर्यते वन एव वा । रहेंगे तो सबके सिरमौर बन कर, नहीं तो वन में बिखर जायेंगे।
राम में ब्रह्म और क्षत्र का मेल है, तो सीता श्री और लक्ष्मी स्वरूपिणी हैं । श्री है आभा, जैसी फूल में होती है, कमल की पंखड़ी पर पड़ी पानी की बूंद में होती है, आश्‍विन की पूर्णिमा की छिटकती चांदनी में हाती है,
दुधमुंहे शिशु की अकारण मुस्कान में होती है । यह अच्छी लगती है, मन को मोहती है, पर लौकिक दृष्टि से इसका मूल्य नहीं जैसा होता है । ऐसा ही, जैसे कृष्ण ने कहीं कदम्ब के नीचे बैठकर बंसी बजा दी । दस-पांच मिनट बड़ा आनन्द मिला, फिर सब समाप्त ।
लक्ष्मी सुख का स्रोत- पर लक्ष्मी उससे भिन्न है । लक्ष्मी है धन सम्पत्ति। इसका भारी मूल्य है । इससे जीवन की सब सुविधाएं जुटती हैं । यह दर्पण पर सूर्य किरणों का प्रतिफलन मात्र नहीं है । यह हीरे-मोतियों और स्वर्ण मुद्राओं का अम्बार है, जिसे जब चाहे किसी भी अभीष्ट वस्तु में रूपान्तरित किया जा सकता है । इससे आप महल बना सकते हैं, घोड़े हाथी खरीद सकते हैं, सेनाएं खड़ी कर सकते हैं । सीता श्री और लक्ष्मी स्वरूपिणी हैं।
राम का वनवास-और ये ब्रह्म तेज और क्षात्र शौर्य के अवतार राम और श्री एवं लक्ष्मी स्वरूपिणी सीता चीर वस्त्र धारण करके वन को चल देते हैं । मुंह पर उदासी नहीं, मन में मलाल नही, जैसे पिकनिक पर जा रहे हों । तभी तो लक्ष्मण कहते हैं कि मैं भी साथ चलूगा। जैसे वहाँ लड्डु बंट रहे हैं ।
घटना की गुरुता अयोध्या के हाहाकार करते हुए नर-नारियों को देखकर पता चलती है । राम और सीता क्या जा रहे हैं, जैसे उनके प्राण निकले जा रहे हैं । दशरथ के तो प्राण निकल ही गये ।
राम में ईश्‍वरीय शक्ति- राम को पता है कि वह वन में मौज मनाने नहीं जा रहे हैं । वह वहाँ वनवास के कष्ट सहने भी नहीं जा रहे हैं । कष्ट सहना कोई बड़ी बात नहीं है । वह बड़ी बात के लिए जा रहे हैं । विश्‍वामित्र ने उन्हें बता दिया है कि उन्हें वन में जाकर निष्क्रिय नहीं बैठ जाना है, उन्हें राक्षसों का संहार करना है । मनुष्य मात्र में ईश्‍वरीय शक्ति होती है । राम में औरों से अधिक, असाधारण ईश्‍वरीय शक्ति है । जो कुछ औरों के बस का नहीं, वह उनके बस का है । सुख में प्रसन्न, दु:ख में अविचलित, युद्ध में जय संकल्प, विजय में दयालु, शरणागत पर कृपालु राम दमकते प्रभामेरु हैं ।
चन्द्रमा के साथ चांदनी की तरह साथ रहने वाली सीता अपनी धीरता,सहिष्णुता और राम के साथ एकात्मता के कारण सागर सारभूता मुक्तामाला के समान हैं ।
लक्ष्मण सच्चा हीरा- और लक्ष्मण ? यह एक निराला ही चरित्र उसे राजा नहीं बनना है । वह रामानुज रहकर ही प्रसन्न है । चित्त को अशान्त रखने वाली महत्वाकांक्षा उसमें नहीं है । होती, तो राम के लिए न जाने कितनी समस्याएं खड़ी होतीं । अपनी नवोढा पत्नी को अयोध्या में छोड़कर वह दंडकारण्य में पड़ा है, जिससे भाई-भाभी को सहारा रहे । लंका युद्ध में उसने प्राणों की बाजी लगा दी । वह तो मर ही जैसे गये थे । सुषेण वैद्य की संजीवनी से वह दुबारा सचेत हुए । काश, लक्ष्मण जैसे हीरे आज भारत में होते!
हनुमान अद्वितीय, अनुपम- और हनुमान ! राम की सेवा ही जिसका एक मात्र धर्म था । बहुतों के लिए वह राम समान ही पूज्य बन गया । संकट मोचक ! जब राम और लक्ष्मण भी संकट में पड़े, तब इस महावीर सेवक के बल पर वे संकट से उबर पाये । हनुमान की अपनी शक्ति का कोई अन्त नहीं, फिर भी लक्ष्मण की ही भांति वह भी निजी महत्वाकांक्षा से बिल्कुल शून्य। आज भारत को लक्ष्मणों और हनुमानों की कितनी आवश्यकता है ! राम की योग्यता और सामर्थ्य न होते हुए भी आज हर कोई राम पद पाने के लिए लालायित है ।
जटायु धर्म- जटायु ! बूढा था, अशक्त था, पर अपहरण की जा रही सीता की पुकार सुनकर क्षण भर के लिए भी उसने यह नहीं सोचा कि महाबली रावण से लड़कर जीत पाने की कोई संभावना नहीं है, फिर व्यर्थ ही क्यों प्राण गंवाये जायें ? पीड़ित की आर्त पुकार सुनकर तुरन्त न लड़ मरने से उसका क्षत्रियत्व, उसकी मनुष्यता कलंकित होती थी, इसलिए वह लड़ मरा । आज हमें घर-घर में जटायुओं की आवश्यकता है ।
विभीषण धर्म का समर्थक- और रावण का सगा भाई विभीषण ? क्या धर्म है, क्या अधर्म, क्या उचित है क्या अनुचित। यह हममें से सबको मालूम होता है, पर भाई-बन्धुओं के दबाव में आकर हम धर्म का साथ नहीं दे पाते, अन्याय से समझौता कर लेते हैं । ‘घर का भेदी लंका ढावे’ कहकर विभीषण की निन्दा करने वाले भी लोग हैं, पर वह डकैतों की संस्कृति है । न्याय-अन्याय का विचार न करके केवल अपने गिरोह का साथ देने वालों की आसुरी संस्कृति । विभीषण ने अपनों का विरोध सहकर भी न्याय का साथ दिया। आज हमें न्याय का पक्ष लेने वाले विभीषणों की कितनी आवश्यकता है !
हीरा पहनें- दीपावली के दिन ये सब प्रभामेरु अयोध्या में एकत्रित हुए थे । राक्षसों की शक्ति पर पूर्ण विजय ने उनकी दमक को सौ गुना बढा दिया था । ये सब हीरे जगमगायें, इस उद्देश्य से नगरवासियों ने घी के दीप जलाये थे ।
कहते हैं कि अंगूठी में नग पहनने से लाभ होता है। तो आप भी इन अनमोल प्रभामेरुओं में से अपनी पसन्द का कोई रत्न छांट लीजिये । उसे अंगूठी में या गले में पहन लीजिये । शायद उसमें से गुजरकर आपके शरीर में प्रवेश करने वाली किरणें उनके कुछ गुण आपमें, हममें भर सकें । काश ! आप और हम राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, जटायु, विभीषण, कुछ तो बन सकें । दीपाली की श्री और लक्ष्मी आपको और हमें कुछ तो प्राप्त हो ।• - डॉ.इन्दिरा मिश्र

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