विशेष :

वैदिक संस्कृति एवं संस्कारों को ध्वस्त करती पाश्‍चात्य संस्कृति

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आज राष्ट्र राष्ट्रीयता से, मानव मानवता से तथा जीवन जीवन-मूल्यों से अलग हो रहा है। जिस देश में राष्ट्रीयता के लिए उपदेश देने की अपेक्षा हो तथा मातृभाषा को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता हो, वहाँ मान लेना चाहिए कि जनता का चरित्र पतन के मार्ग पर है।

हम भारतीय किसी आस्था के तहत अंग्रेजी भाषा से नहीं जुड़े हैं। बल्कि सदियों से आ रही गुलामी की मानसिकता तथा स्वयं को बुद्धिजीवी और अभिजात्य साबित करने का अथक प्रयास ही हमें हिन्दी जमीन पर खड़े होकर सिंहासन पर दर्प में बैठी अंग्रेजी के तलुए चाटने को लालायित किए रहता है। गोरी चमड़ी तथा गोरी चमड़ी के संस्कारों के प्रति हमारा आकर्षण बढ़ रहा है। विभिन्न तरीकों से हम इसका प्रदर्शन भी करते हैं। हम चिल्ला-चिल्लाकर पश्‍चिम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं कि देखो- “हम भी तुम्हारी जैसी ही पोशाक पहनते हैं, तुम्हारे जैसा ही बोलते हैं, पढ़ते हैं, गाते हैं। तुम्हारी तरह ही सुबह की शुरुआत ‘गुड मार्निंग’ तथा दिन का अन्त ‘गुड नाइट’ से करते हैं। तुम्हारी तरह माता या माँ को हम भी मम्म, मम्मी, मम्मा और पिता को डेड या डैडी कहते हैं। हमारे बच्चों का तथा हमारा जन्मदिन भी तुम्हारी तरह मोमबत्तियां बुझाकर तथा केक काटकर मनाया जाने लगा है। हमारी पहचान तुम से है। घर के बुजुर्गों को अवांछित समझकर हमने भी उन्हें ‘ओल्ड हाउस’ में जा फेंका है। जो दकियानूस हैं या लोकलाज की वजह से ऐसा नहीं कर पाए हैं, वे खांसते-खंखारते माँ-बाप को यहीं नरक का अहसास करा रहे हैं। हमारे यहाँ का बचपन तुम्हारी तरह क्रच के पालने में बड़ा हो रहा है। अब अपनी कमर और बच्चों की चाहे गर्दन ही क्यों न टूट जाए, पर हम उन्हें अंग्रेजी के स्कूल में डालने के लिए ऐड़ी-चोटी एक किए हैं। भले ही तुतलाती बोली वाले नौनिहालों के पल्ले एक भी शब्द न पड़े। हमारे यहाँ के बच्चे भी अब छोटे पर्दे पर आंखें गड़ाए हिंसा और अश्‍लीलता को घंटों देख रहे हैं। स्कूलों में उन्हें प्रेयर (प्रार्थना नहीं) ‘ओ माय गॉड’ वाली ही सिखाई जा रही है तथा हम उन्हें ऐसा ही गाते हुए सुनकर गौरवान्वित हो रहे हैं।’’

संस्कृति एवं संस्कार ध्वस्त- आज परिवर्तन की आंधी हमारी संस्कृति और संस्कारों को ध्वस्त करने पर तुली है। लम्बी वेणी और कुमकुम से सुशोभित बाल, सिर पर सलीके से पल्लू लिए शर्माती भारतीय नारी अब धीरे-धीरे इतिहास की वस्तु बनती जा रही है। हमारे यहाँ की महिलाएं भी अब कॉकटेल पार्टियों तथा किटी पार्टियों में ताश खेलती हैं, शराब पीती हैं, सिगरेट का धुंआ उगलती है। आश्‍चर्य नहीं कि लोरी गाती हुई माँ, कहानी सुनाती हुई नानी, पहाड़ा रटाते हुए हाथ में छड़ी लिए हुए गुरु जी, आंगन में बड़ी-पापड़ बेलती हुई ताई और दादी की तस्वीर पुरातत्व संग्राहालय की दीवारों को सजाने वाली ‘पेंटिंग‘ मात्र रह जाए।

डिब्बाबन्द संस्कृति- हमारे खान-पान एवं रसोई पर भी पाश्‍चात्य देशों का कब्जा हो रहा है। ‘डिब्बाबंद’ संस्कृति को हमने अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है। शुद्ध शाकाहारी भोजन की परम्परा अब सिमटती जा रही है। सरसों का साग, मक्के एवं बाजरे की रोटी, राबड़ी, पुदीने की चटनी आदि धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। भारतीय भोजन की पौष्टिकता एवं शुद्धता धूमिल हो रही है। ‘नॉनवेज‘ भारतीय परिवारों का फैशन बनता जा रहा है। बर्गर, पिज्जा, नुडल्स आदि फास्टफूड का प्रचलन बढ़ रहा है। अंग्रेजी नामों तथा स्टाइलों के व्यामोह में हम गुणवत्ता और पौष्टिकता को भूल रहे हैं।

अंग्रेजियत के मानसपुत्र- अंग्रेजों के जाने के बाद उनके मानसपुत्रों ने एक ओर भारतवर्ष में अंग्रेजियत की जड़ों को सींचा तथा दूसरी तरफ अंग्रेजी और अंग्रेजियत को भगाने का नाटक किया अर्थात् वे अंग्रेजियत के पेड़ के पत्तों की छंटाई करते रहे तथा जड़ों में पानी डालकर सुविधाओं पर कब्जा भी जमाए रहे। वही सिलसिला आज भी जारी है। सेटेलाइट और सूचना क्रांति भी उसी मानसिकता का पोषण कर रही है। आज दृश्य संचार माध्यमों ने हमारी जीवनशैली और मूल्यों को धुंधलाने की जो कुचेष्टा की है, उसके चलते समूचे भारतीय परिवेश में शून्य आ गया है, जिसको हम नैतिक मूल्यों का क्षय भी कह सकते हैं।

आदर्श एवं जीवनमूल्य बिखरे- इन त्रासदपूर्ण तथा विडम्बनापूर्ण स्थितियों में हमारे आदर्श एवं जीवन मूल्य बिखर रहे हैं। सबसे अधिक प्रभाव युवा पीढ़ी पर हो रहा है। नशे में डूबी युवा पीढ़ी के आदर्श माइकल जैक्शन और मैराडोना हैं। राम, कृष्ण, प्रताप, शिवाजी, नानक, दयानन्द, विवेकानन्द, रामतीर्थ जैसे महापुरुषों को अपना आदर्श मानने में हमारी युवा पीढ़ी को शर्म महसूस होती है। बड़ों के चरणों में झुकने, प्रणाम करने या गुरुजनों के मार्गदर्शन का लाभ उठाने की परम्पराएं धूमिल हो रही हैं। अब शुद्ध शाकाहारी होना, भारतीयता के अनन्य भक्त होना, हिन्दी लेखकों को पढ़ना, अपनी मिट्टी से जुड़ना आदि आधुनिक भारत में पिछड़ेपन के प्रतीक हो गए हैं। संस्कृति और जीवन मूल्यों पर मंडरा रहा पाश्‍चात्य संस्कृति का यह प्रभाव त्रासदीपूर्ण है। अच्छाई कहीं से भी मिले, ग्रहण करने में बुराई नहीं हो सकती। पर अपनी अच्छाई को रौंदकर किसी दूसरे की बुराई को आंख मूंदकर ग्रहण करते चले जाना मूर्खतापूर्ण तथा विडम्बनापूर्ण है।

पश्‍चिम की संस्कृति तथा भोगवाद से पीड़ित महानगरों की हमारी युवा पीढ़ी आज एक दिन में हजारों रुपये नशे, होटल, कैबरे और अय्याशी के आधुनिक तौर-तरीकों में खर्च कर देती है। उसे यह अंदाज भी नहीं होगा कि देश में करोड़ों ऐसे युवा हैं, जो दो-तीन हजार रुपयों की नौकरी के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। पीएचडी की उपाधि से लेकर डॉक्टरी और इंजीनियरिंग की उपाधियाँ गले में टांगकर बेरोजगारों की एक लम्बी फौज खड़ी है। ऐसे में पाश्‍चात्य देशों से उधार में ली हुई संस्कृति पर चलने वाले ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ के भोगवादी सिद्धान्त पर चल रहे हैं, जो इन्हें विनाश के गर्त में ही धकेलेगा।

विरासत में हमें जो भारतीय संस्कृति मिली है, युगपुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार यह संस्कृति उस पारस के समान है, जो लोहे को सुवर्ण में परिवर्तित कर देता है। परन्तु आज न केवल युवक-युवतियाँ, बल्कि समूचा परिवेश पारस को ठुकराकर ‘भीख की संस्कृति’ को अपना रहा है। वह अपने देश की लुटती हुई संस्कृति को देखकर ठहाके लगाकर हंस रहे हैं, पर उनके रोनों में भी अधिक समय नहीं लगेगा। जिस प्रकार जलचर जल में तथा थलचर थल पर रहकर ही जीवित रह सकते हैं, उसी प्रकार भारतीय लोग भारतीयता में रहकर ही स्थायी और सार्थक जीवन की दिशाएं उद्घाटित कर सकतेहैं। अपनी जड़ों से कटकर तथा अपनी संस्कृति को विस्मृत करके हम जो कुछ पा लेते हैं, वह क्षणिक मृगतृष्णा मात्र है, जो लम्बे समय तक के लिए हमें खोखला और जर्जर कर देती है। हमारी इसी जर्जरता एवं खोखलेपन में भारतीयता और उसके आदर्श की गौरवमयी छवि कहीं धूलधुसरित न हो जाए।

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