विशेष :

कर्म-फल

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ओ3म् न किल्विषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति।
अनूनं निहितं पात्रं न एतत् पक्तारं पक्वः पुनराविशाति॥ (अथर्व. 13.3.38)

शब्दार्थ- (अत्र) इसमें, कर्मफल के विषय में (किल्विषम् न) कोई त्रुटि, कमी नहीं होती और (न) न ही (आधारः अस्ति) किसी की सिफारिश चलती है (न यत्) यह बात भी नहीं है कि (मित्रैः) मित्रों के साथ (सम् अममानः एति) सङ्गति करता हुआ जा सकता है (नः एतत् पात्रम्) हमारा यह कर्मरूपी पात्र (अनूनम् निहितम्) पूर्ण है, बिना किसी घटा-बढ़ी के सुरक्षित रक्खा है (पक्तारम्) पकाने वाले को, कर्म-कर्त्ता को (पक्वः) पकाया हुआ पदार्थ, कर्मफल (पुनः) फिर (आविशाति) आ मिलता है, प्राप्त हो जाता है।

भावार्थ- मन्त्र में कर्मफल का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। कर्म का सिद्धान्त इस एक ही मन्त्र में पूर्णरूप से समझा दिया गया है-
1. कर्मफल में कोई कमी नहीं हो सकती। मनुष्य जैसे कर्म करेगा उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ेगा।
2. कर्मफल के विषय में किसी की सिफारिश नहीं चलती। किसी पीर, पैगम्बर पर ईमान लाकर मनुष्य कर्मफल से बच नहीं सकता।
3. मित्रों का पल्ला पकड़कर भी कर्मफल से बचा नहीं जा सकता।
4. किसी भी कारण से हमारे कर्मफल-पात्र में कोई कमी या बेशी नहीं हो सकती। यह भरा हुआ और सुरक्षित रक्खा रहता है।
5. कर्मकर्त्ता जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त हो जाता है। यदि संसार से त्राण पाने की इच्छा है, तो शुभकर्म करो। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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