ओ3म् उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥ (यजुर्वेद 19.57)
शब्दार्थ- (सोम्यासः) चन्द्रमा के तुल्य शान्त, शम, दम आदि गुणों से युक्त (पितरः) माता, पिता, पितामह आदि पालकजन (बर्हिष्येषु) आसनों पर बैठने के लिए और (प्रियुषु निधिषु) प्रिय कोशों पर उनका सेवन करने के लिए (उपहूताः) आमन्त्रित किये जाते हैं। हमारे द्वारा बुलाये जाकर (ते आगमन्तु) वे लोग आएँ (ते इह श्रुवन्तु) यहाँ आकर वे हमारी बात सुनें (ते अधि ब्रुवन्तु) वे हमें उपदेश दें और (ते अस्मान् अवन्तु) वे हमारी रक्षा करें।
भावार्थ- पितर शब्द ‘पा रक्षणे’ धातु से सिद्ध होता है। जो पालन और रक्षण करने में समर्थ हो उसे पितर कहते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में पितरों के सम्बन्ध में कुछ बातें कही गई हैं। पितर लोग आसनों पर बैठने के लिए और कोशों का उपभोग करने के लिए निमन्त्रित किये जाते हैं। हमारे द्वारा आमन्त्रित वे पितर-
1. हम लोगों के पास आएँ।
2. यहाँ आकर वे हमारी बात सुनें।
3. हम लोगों को अधिकारपूर्वक उपदेश दें
4. हमारी रक्षा करें।
आना, सुनना, उपदेश देना और रक्षा करना जीवित में ही घट सकता है मरे हुए में नहीं। अतः सिद्ध हुआ कि पितर जीवित होते हैं। चारों वेदों में कहीं भी किसी मन्त्र में मृतक पितर का अथवा मरों के लिए श्राद्ध करने का विधान नहीं है। मृतक-श्राद्ध अवैदिक, कपोल-कल्पित और तर्करहित है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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