ओ3म् यत्र ब्रह्म च क्षत्रञ्च सम्यञ्चौ चरतः सह।
तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना॥ (यजुर्वेद 20/25)
विश्व के सभी प्रबुद्ध जन यह मानते हैं कि वेद संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। वेद में पृथ्वी से द्यौलोक पर्यन्त तथा परमाणु से लेकर सम्पूर्ण विश्व जगत् पर्यन्त समस्त ज्ञान-विज्ञान राष्ट्रीय परिकल्पना तथा उसके व्यापक व्यवहारों का वर्णन तो मिलता ही है, उत्तम राष्ट्र कौन हो सकता है, यह संकेत भी है।
राष्ट्रवादियों और राष्ट्रभक्तों के लिये प्रस्तुत इस मन्त्र में स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं। राष्ट्र-कार्य सम्पादनार्थ राष्ट्रनायकों में समुचित ज्ञान का होना परमावश्यक है। बिना जाने या बिना ज्ञान के साधारण से साधारण कार्य भी सम्पादन और सम्पन्न नहीं होता तो करोड़ों की जनसंख्या वाले राष्ट्र का कार्य सम्पादित करना तथा उसे पूर्ण करना किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? लाखों-करोड़ों मानवों की विविध समस्याओं को फूंक मारते ही अथवा पलक झपकते सुलझाया नहीं जा सकता है। इसके लिये तो बृहन्मस्तिष्क, महान बुद्धि रखने वाले विचारकों की आवश्यकता होती है। ऐसे विचारक ही राष्ट्र संचालन तथा राष्ट्र के कार्य सम्पादन की विधि-व्यवस्था के निर्माता होते हैं। यह कार्य सामान्य मस्तिष्क के लोगों द्वारा सम्पादित नहीं हो सकता। विधि-व्यवस्था का निर्माण करने में यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि किस परिस्थिति में किस प्रकार की उलझन-बाधा उपस्थित हो सकती है ? फिर उसका निराकरण किस प्रकार से करना होगा ? इस ज्ञान के बिना राष्ट्र के लिए विधि व्यवस्था अर्थात् संविधान निर्माण नहीं किया जा सकता । यह महत् कार्य तो ऋषि कोटि के व्यक्तियों द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए जिन ऋषियों की आवश्यकता है, वह नामधारी ऋषि नहीं अपितु वैदिक ज्ञान सम्पन्न ऋषि होने चाहिएं।
ऋषित्वयुक्त तथा ऋषि मेधा सम्पन्न जनों द्वारा संविधान के निर्माण का सम्पादन कर प्रचारित और प्रसारित किया जाना आवश्यक तो है ही। किन्तु परमात्मा की इस विविधताओं और विचित्रताओं से भरी हुई सृष्टि में मानव-स्वभाव और मानव-मस्तिष्क भी तो विविध प्रकार के होते हैं । फिर इस विविधताओं से भरी सृष्टि में अनेकानेक आकर्षण भी तो हैं, जिनमें मानव बहककर उचित-अनुचित का विचार भी नहीं कर पाता। कर पाये भी तो सृष्टि की विविधताओं के आकर्षण में दिग्भ्रमित होकर और प्रलोभनों में फंसकर तथा कामनाओं और वासनाओं के वशीभूत अन्धा होकर न किये जाने योग्य दुष्कर्मों को भी कर बैठता है। ऐसे कर्म कर बैठता है, जिनसे दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन होता है। ऐसे व्यक्ति ऋषि बुद्धि और उपेदशों की चिन्ता नहीं करते, अपितु अनेक अवसरों पर पूरी-पूरी उच्छृंखलता का प्रदर्शन करते और उद्दण्डता पर उतर आते हैं।
सीमा का उल्लंघन करने तथा उद्दण्डता पर उतर आने वालों के लिये दण्डविधान होता है, परन्तु उस दण्डविधान को लागू करने के लिये शासन शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। वही शासनशक्ति होती है दण्ड देने और दिलाने वाली जिसे पुलिस, सेना तथा दण्डाधिकारियों के नाम से पुकारा जाता है, यही क्षत्रिय वर्ग है।
राष्ट्र की दो प्रबल और सर्वोच्च शक्ति या तत्व-होते हैं ब्राह्मण और क्षत्रिय। वेद के शब्दों में ब्रह्म और क्षत्र। इन दोनों का होना तो राष्ट्र में अत्यावश्यक है ही, परन्तु साथ ही इन दोनों में सन्तुलन का होना भी परमावश्यक है।
इन्हीं दोनों के लिये प्रस्तुत मन्त्र में कहा गया है- ‘यत्र ब्रह्म च क्षत्रं’ जहाँ ब्रह्म और क्षत्र, ब्रह्म-शक्ति और क्षत्र-शक्ति दोनों ‘सम्यञ्च’ ठीक प्रकार से ‘चरतः सह’ सहयोगपूर्वक गति करती, कार्य करती हैं- वही देश ‘तम् लोकम्’ पवित्र, उत्तम समझा जाता है- ‘पुण्यं-पज्ञेषम्’।
किसी देश या किसी राष्ट्र को पुण्य (पवित्र) देश बनाना है तो यह आवश्यक है कि उस राष्ट्र में ब्रह्मशक्ति, नेतावर्ग तथा शासनशक्ति अर्थात् प्रशासन में पूरा-पूरा सहयोग हो। यदि नेतृवर्ग, विधि-व्यवस्था का निर्माण करने, प्रणयन करने वाले तथा प्रसारक जनों और प्रशासनिक अधिकारियों में ठीक-ठीक तालमेल नहीं होगा तो राष्ट्र उन्नति तो क्या करेगा, अपनी बनी बनाई व्यवस्था की पवित्रता भी स्थिर नहीं रख सकता। इन दोनों का पारस्परिक तालमेल न केवल आवश्यक है अपितु परम आवश्यक है।
विधान उत्तम हो, दण्ड-व्यवस्था की जो संहिता हो वह केवल ठीक ही हो अपितु देवोचित हो किन्तु उसे लागू करने वाला प्रशासन भ्रष्ट हो तो राष्ट्र का विनाश शीघ्र ही सुनिश्चित है, अवश्यम्भावी है, उसे संसार की कोई भी शक्ति पतन से बचा नहीं सकती।
विधायिका, नेतृवर्ग, ब्रह्मशक्ति और शासनतन्त्र में सन्तुलन के बिना राष्ट्र की स्थिति न तो सुदृढ़ ही हो सकती है और न सुरक्षित रह सकती है। यही कारण है कि वेद ने निर्देश कर दिया है कि दोनों ‘सम्यञ्चौ’ भलीभाली ‘सह’ साथ-साथ सहयोगपूर्वक सन्तुलितरूपेण अपने-अपने दायित्वों का पालन ‘चरतः’ करती रहें।
विधायिका व्यवस्था बनाये और प्रशासन-तन्त्र को लागू करने के लिए प्रेषित कर दे, किन्तु प्रशासन तन्त्र ढीला हो, समयानुसार विधायिका द्वारा निर्देशित व्यवस्था को लागू न करे अथवा प्रशासन तन्त्र में अयोग्य लोग बैठे हुए हों तो किसी भी उत्तम से उत्तम विधि व्यवस्था से तथा किसी उत्तमोत्तम योजना के भी उत्तम परिणाम सामने नहीं आ सकते। वेद का दोनों को ठीक कार्य करने का ही नहीं अपितु सहकारितापूर्वक कार्य करने का स्पष्ट निर्देश है। सहकारिता सन्तुलन रखने का तत्व है।
विधायिका प्रशासन तन्त्र को यथोचित कार्य करने का निर्देश कर देती है, किन्तु प्रशासन व्यवस्था ढीली, निर्बल अथवा जर्जर है तो वह कैसा भी उत्तम संकल्प क्यों न हो लागू नहीं हो पाता और वह लागू नहीं होता तो उसका फल प्राप्त नहीं हो पाता। लागू हो, ढीलेपन से हो, त्वरित गति से न हो, विलम्ब से हो, तब भी उसका वह लाभ जो होना चाहिए, नहीं हो पाता। उस लोकोक्ति वाली स्थिति हो जाती है- ‘का वर्षा जब कृषि सुखानी’ । एतदर्थ दोनों तत्वों ब्रह्म और क्षत्र में सन्तुलन और सहकारिता परमावश्यक है।
मन्त्र की दूसरी पंक्ति है- तं लोकं पुण्य प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना। इस पंक्ति में पुण्य, पवित्र, उत्तम लोक उसी राष्ट्र को बताया है, जहाँ के देव अर्थात् विद्वान तेज, अग्नि, क्षत्र-शक्ति के साथ रहते हैं। जिस देश के विद्वानों को क्षत्रशक्ति द्वारा संरक्षण प्राप्त रहता है, जिस देश में क्षात्र-बल ब्राह्मणों, मनीषियों, विचारकों को संरक्षित और सुरक्षित रखता है, उसी देश में नित नये अनुसंधान, आविष्कार तथा परीक्षण होते रहते हैं। वही देश वास्तविक अर्थों में राष्ट्र बन पाता है अन्यथा वह मात्र भूमि का एक भाग, एक क्षेत्र मात्र है, जहाँ दो हाथ और दो पैर का आदमी नामक प्राणी रहता है। मात्र इस प्रकार के प्राणी समूह को राष्ट्र नहीं कहा जा सकता। राष्ट्र की परिकल्पना के मन में आते ही मस्तिष्क कह उठता है कि जहाँ ब्रह्म और क्षत्र ठीक प्रकार कार्य कर रहे हों, जहाँ के ब्राह्मणों और क्षत्रियों में पारस्परिक सहकारितापूर्वक सहयोग हो, जो स्वदेश के हित में मिलजुलकर स्व-स्व कर्तव्यों को पूर्ण करने में लगे रहते हों वही देश, राष्ट्र कहलाने का अधिकारी होता है।
साथ-साथ तो भेड़ों का झुण्ड भी चरता रहता है, किन्तु यदि भेड़िया आ जाए तो प्रत्येक को अपने ही प्राण बचाने की सूझती है। उनमें सहकारिता, सहयोग का तत्व नहीं होता। जब भेड़ों को चराने के पश्चात् भेड़ों वाले सांयकाल अपने घरों को लौटते हैं तो अपनी-अपनी भेड़ों को हांककर अपने-अपने बाड़े में बन्द कर देते हैं और भेड़ें उनके डण्डे के प्रभाव से उनके आगे-आगे चल देती हैं।
संसार में किसी भी क्षेत्र, किसी भी देश में रहने वाले व्यक्तियों की भी जब तक उनमें सहभागिता, सहकारिता और सहयोग की भावना जागृत नहीं होती भेड़ों वाली ही स्थिति रहती है। कोई भी बाहुबली, कोई भी शक्ति और सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति उन्हें भेड़ों की भांति हांकता रहता है और उन पर शासन करता रहता है। इस स्थिति से उबारने का कार्य होता है ब्रह्मशक्ति के द्वारा। मानवता का वास्तविक हित सम्पादन तो ब्रह्मशक्ति से ही होता है। जो जन्म जन्मान्तर के संस्कारों से संस्कारित होते हैं, ऐसे संस्कारित जन अपनी ब्रह्मशक्ति के द्वारा बृहद् जनसमूह में से कुछ ऐसे व्यक्तियों का चयन कर लेते हैं, जो अन्यों की अपेक्षा कुछ सूझ-बूझ वाले होते हैं तथा ब्रह्मशक्ति सम्पन्न जनों से ज्ञान प्राप्त कर उनके निर्देशानुसार उनको सहयोग करते हुए कार्यक्षेत्र में उतरते हैं और इस प्रकार इन दोनों के सहकार से वास्तविक शासन सत्ता की स्थापना होती है। वही शासन-सत्ता अपने देश को सुनियोजित ढंग से राष्ट्र में परिवर्तित कर देती है अर्थात् सर्वसाधारण जन में भी राष्ट्रीय भावनाओं को भर देती है।
राष्ट्र बन जाने पर भी ब्रह्म और क्षत्र का सहयोग तो रहना ही चाहिये और उसी रूप में रहना चाहिए, जिस रूप में वेद के इस मन्त्र में बताया गया है। इतना सब होने पर भी कोई देश (कोई राष्ट्र बना हुआ) ‘पुण्य प्रज्ञेषं’ पवित्र जाना जाने योग्य वास्तविक रूप में नहीं बन जाता, जब तक इस मन्त्र के अन्तिम वाक्य ‘यत्र देवाः सह-अग्निना’ के अनुरूप नहीं हो जाता।
(यत्र) जहाँ (देवाः) विद्वान् (सह-अग्निना) अग्नि के, तेज के साथ रहतेहैं। क्षत्रशक्ति, शासन तन्त्र उन्हें सुरक्षा प्रदान करता रहे, जिससे उनके द्वारा नवीन-नवीन अन्वेषण होते रहें। यह ब्रह्मशक्ति सम्पन्न लोग राष्ट्र की मेधा, राष्ट्रीय प्रज्ञा होते हैं। परन्तु इस वाक्य में एक और महान् भाव, गम्भीर रहस्य भी भरा हुआ है कि वह देव, वह ब्रह्मशक्ति सम्पन्न लोग क्षात्रशक्ति से रक्षित तो रहें किन्तु उनमें स्वयं में भी अग्नि, तेज होना चाहिए। ‘सह-अग्निना’ वह स्वयं भी अग्नि, तेज सहित हों, तेजस्वी हों। स्मरण रखिए कि ‘परान्नभोजी’ ब्राह्मणों से राष्ट्रहित सम्पादन संभव नहीं। ऐसे लोगों की आत्मा मृत ही समिइए। ऐसे लोगों में मनोबल नहीं रहता। परान्नभोजियों के विषय में एक श्लोक यहाँ प्रस्तुत किया जात है-
भोजनं कुरु दुर्बुद्धे ! मा शरीर दयां कुरु।
परान्नं दुर्लभं लोके शरीरं तु पुनः पुनः॥
परान्नभोजी, दूसरे के अन्न पर जीने वाले लोगों में हीनता की भावना इस सीमा तक भर जाती है कि उन्हें खाते समय यह भी विश्वास नहीं रहता कि दूसरे दिन तो क्या, न जाने दूसरे समय भी भोजन मिलेगा या नहीं। ऐसे ही पेटार्थी पुजारियों का वर्णन उपर्युक्त श्लोक में किया गया है।
पण्डित जी अपने पुत्र सहित किसी यजमान के यहाँ निमंत्रण पर गए हुए भोजन कर रहे थे और बार-बार अपने पुत्र को अधिकाधिक खाने के लिये संकेत तथा आग्रह कर रहे थे। लड़के का पेट भर चुका था। उसके पेट में सांस लेने को भी स्थान नहीं था, भोजन मुंह में से बाहर लौट-लौटकर आ रहा था । तब पेटार्थी पण्डित जी ने संस्कृत श्लोक में बेटे को अपनी बात कही, जिससे यजमान न समझ सके। उसने कहा- दुर्बुद्धि, मूर्ख ! भोजन कर, शरीर पर दया मत कर। पराया अन्न संसार में कठिनता से मिलता है, शरीर तो बार-बार मिलता ही रहता है। मर जाएगा तो फिर भी शरीर तो मिल ही जाएगा, क्योंकि पुर्नजन्म होना ही है। परन्तु यह पराया अन्न, दूसरे की परिश्रम की कमाई का अन्न संसार में कठिनता से प्राप्त होता है। ऐसे ब्राह्मणों की राष्ट्र को आवश्यकता नहीं। यह पेटार्थी तो देश की खाद्य समस्या पर भी भार होते हैं तथा राष्ट्र को निर्बल और सत्वहीन बनाने का कार्य करते हैं। राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में राष्ट्र, सबल तथा समर्थ वही ब्राह्मण बना सकते हैं, जो उपर्युक्त मन्त्र के ‘देवाः सहाग्निना’ वाक्य में वर्णित हैं। अर्थात् कोई ब्रह्मशक्ति, ब्रह्म विवेचक, आध्यात्मिक और वह भी वाचिक-शाब्दिक आत्मज्ञान वाले नहीं अपितु अग्नि से, तेज से युक्त हों अर्थात् ब्रह्मतेज भी जिनमें भरा हो, जो स्वाभिमान भी रखते हों।
महाभारत काल के ऐसे एक ब्राह्मण की चर्चा कर देना भी इस प्रसंग में उपयोगी है। द्रुपद और द्रोण दोनों गुरुभाई थे, सहपाठी रह चुके थे। तब दोनों में परस्पर मित्रता हो गई थी। प्रगाढ मैत्री, ऐसी मैत्री कि एक बार अपनी मैत्री की भावना से अभिभूत हुए युवक द्रुपद ने अपने मित्र द्रोण से कहा, मित्र ! अब कुछ दिन बाद हम लोग गुरुकुल से स्नातक होकर अपने-अपने घर चले जायेंगे। मैं राजपुत्र हूँ, अतः यदि कभी कोई ऐसा अवसर आये कि आपको मेरी सहायता की आवश्यकता अनुभव हो तो आप निःसंकोच मेरे पास चले आना ।
दैव दुर्विपाक से द्रोण की स्थिति निर्धन सुदामा वाली हो गई और तब वह द्रुपद से सहायता प्राप्ति की दृष्टि से उसके पास गया । दु्रपद अब राजपुत्र नहीं, अपितु पांचाल नरेश बनकर शासन सत्ता के सुखोपभोग में डूबे हुए था। प्रसिद्ध लोकोक्ति है- प्रभुता पाय काहि मद नाहीं । द्रुपद जी को भी राजमद चढ़ा हुआ था। वह कृष्ण तो थे नहीं, जो सुदामा की दीन दशा देखकर रो पड़ते। यह तो थे द्रुपद और पांचाल नरेश महाराजा द्रुपद।
बेचारे द्रोण द्वार पर गए। महाराजा को सूचना दी तो उन्होंने अन्दर बुलवा लिया और परिचय तथा आने का कारण कृपा करके पूछ लिया। द्रोण ने जब पिछली स्मृति दिलाई तो द्रुपद ने कहा मैं तो लेशमात्र भी तुम्हें नहीं पहचानता । हो सकता है मेरे विद्यार्थी जीवन में आप मेरे साथ पढें हों। तब न जाने कितने और कौन-कौन विद्यार्थी वहाँ पढ़ते थे। मैं किस-किसको पहचान सकता हूँ? द्रोण नामक भी कोई रहा होगा। परन्तु मेरी किसी से कोई मित्रता नहीं हुई। यदि हुई भी हो, तो तुम ही मेरे साथी द्रोण हो, इसका निर्णय करने का मेरे पास कोई आधार नहीं।
द्रुपद का यह उत्तर सुनकर द्रोण का ब्राह्मणत्व जाग उठा, तो उसने कहा कि द्रुपद ! आज आप सम्राट् हो तो अपने अनन्यतम सखा से भी इस प्रकार का व्यवहार कर रहे हो, जो किसी भी सभ्य पुरुष को शोभा नहीं देता। यदि उस समय के मैत्री से अभिभूत होकर कहे गये आपके वह शब्द मुझे स्मरण न हो आते और यह लेश भी ज्ञात होता कि आप सत्ता के मद में विगत सब कुछ भूल बैठे हो या जानबूझकर भूलने का इस प्रकार नाटक करोगे तो मैं कदापि आपके पास नहीं आता। सम्राट द्रुपद तो राजसत्ता के मद में था ही, अन्य भी कुछ अपमानजनक शब्द द्रोण को कह बैठा। तब द्रोण का ब्राह्मणत्व पूर्ण ‘अग्निना सह’ पूरा अग्नि के साथ अर्थात् ब्रह्मतेज के साथ प्रकट हुआ और तब उन्होंने कहा-
अग्रतश्चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः।
इदं ब्राह्मं इदं क्षत्रं शास्त्रादि शरादपि ॥
द्रुपद ! आज राजमद में तुझे यह कहने का साहस हुआ है कि एक कंगले-भिखारी ब्राह्मण और सम्राट् की क्या मैत्री, कहीं बैठकर वेदपाठ कर। परन्तु तुझे केवल मेरा वेदपाठ ही स्मरण रहा। यह ठीक है कि मेरे आगे चारों वेद हैं, किन्तु मेरी पीठ पर देख, जहाँ धनुष भी बाणों के साथ शोभायमान हो रहा है। जिस प्रकार की तेरी इच्छा हो, मैं उसी प्रकार से तैयार हूँ। तुझे शास्त्र से भीपराजित करूंगा और शस्त्र से भी । किसी भी प्रकार कम नहीं हूँ द्रुपद। दु्रपद ! बेचारा क्या बोलता? वह तो जानता ही था कि द्रोण का सांमुख्य शास्त्र से तो क्या मैं शस्त्र से भी नहीं कर सकता। इस प्रकार सम्राट् द्रुपद का मद चूर्ण करके द्रोणाचार्य वापस अपने स्थान को लौट गये।
यह है ‘देवाः सहाग्निना’ देव-विद्वान्-ब्राह्मण न केवल क्षत्रियों द्वारा रक्षित रहें अपितु स्वयं भी तेजयुक्त, ब्रह्म तेजयुक्त हों, परान्नभोजी नहीं। परान्नभोजी होना तो मानव को आत्महीन, स्वत्वहीन बना देता है और इस प्रकार के लोग तो न केवल स्वराष्ट्र में ही अपितु पृथिवी पर भी भार रूप ही होते हैं। ब्रह्मतेज रहित तथा परान्नभोजी ब्राह्मणों के कारण ही संसार का शिरोमणि राष्ट्र आर्यावर्त पददलित होकर लगभग एक हजार वर्ष तक विदेशियों द्वारा पराधीनता भोगता रहा तथा सुवर्ण-समृद्ध न रहकर दर-दर का भिखारी हो गया।
किसी देश को यदि अपने राष्ट्रीय स्वरूप को बनाये रखना है, तो उसे अपने यहाँ ब्रह्मतेज युक्त ब्राह्मण तैयार करने होंगे। तब वह ब्रह्मबल और क्षात्रबल संयुक्त रूपेण राष्ट्र को समुन्नत और सुरक्षित रख सकेंगे। तभी राष्ट्र पुण्य राष्ट्र, पवित्र देश, वैदिक राष्ट्र बन सकेगा। - स्वामी वेदमुनि परिव्राजक
Vedic Nation | Ved | Ancient Texts | Vedic Religion | Ved Mantra | Humane Society | Knowledge Science | Mahabharat | Brahmin | Kshatriya | Brahmashakti | Maharaja Dhrupad | Wisdom | Time | Power | Resources | Divya Yug | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Budhgaon - Palayam - Handiaya | News Portal, Current Articles & Magazine Divyayug in Budhpura - Palej - Hariana | दिव्ययुग | दिव्य युग |