विशेष :

मेरे सत्कर्म जीवन को यज्ञमय बना दें

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ओ3म् मह्यं यजन्तु मम यानि हव्याकूतिः सत्या मनसो मे अस्तु।
एनो मा नि गां कतमच्चनाहं विश्‍वे देवासो अधि वोचता नः॥ ऋग्वेद 10.128.4
ऋषिः विहव्यः। देवता विश्‍वेदेवाः। छन्दः निचृत्त्रिष्टुप्।
शब्दार्थ- (मम) मेरे (यानि) जो (हव्या) संसार के व्यवहार को चलाने वाले सद्गुण हैं, वे (मह्यम्) मेरे लिए (यजन्तु) हितकारक हों (मे) मेरा (मनसः) मन का (आकूतिः) चिन्तन (सत्या) सत्य (अस्तु) होवे। (अहम्) मैं (कतमच्चन) किसी भी अवस्था में (एनः) पाप (मा नि गाम्) न करूं (विश्‍वेदेवासः) हे सब विवेकी विद्वानो ! (नः) हम लोगों को (अधिवोचत) उपदेश करो, अच्छाई और सच्चाई का प्रचार करो।

व्याख्या- इस ऋचा में चार बातें कही गयी हैं। पहली यह है कि मेरे सद्गुण मुझमें विकसित होकर मेरा कल्याण करें। दूसरी यह है कि मेरे संकल्प सत्य हों। तीसरी यह कि मैं किसी भी अवस्था में पापाचरण न करूं। चौथी यह कि विद्वानों का यह कर्त्तव्य है कि वे संसार को सन्मार्ग पर चलने का उपदेश करते रहें।
अब थोड़ा विस्तार से कीजिए। संसार का कोई पतित से पतित मनुष्य ऐसा न मिलेगा जिसमें सब दुर्गुण हों, कोई भी सद्गुण न हो। इसी प्रकार ऐसे भी विरले ही महापुरुष होंगे, जिनमें अच्छाइयाँ ही हों, कोई दुर्गुण न हो। यदि कोई हैं तो वे देव-कोटि के हैं, सामान्य नहीं। क्योंकि शतपथ ब्राह्मण ने देवों और मनुष्यों के बीच सीमा-रेखा खींचते हुए लिखा है- सत्यं वै देवाः अनृतं मनुष्याः। अर्थात् देवों का जीवन तपःपूत सत्यमय होता है। मनुष्य उस भव्य भवन पर चढ़ने के लिये यत्नवान् तो है, पर मनःस्थिति के अपरिपक्व होने से संसार के प्रलोभन उसे पथभ्रष्ट कर डालते हैं।

हम सभी महाभारत के प्रसिद्ध दो पात्रों दुर्योधन और कर्ण को अच्छा नहीं समझते। ऋषि दयानन्द जी महाराज ने दुर्योधन को गोत्र-हत्यारा शब्द से सम्बोधित किया है। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि दुर्योधन और कर्ण में कोई सद्गुण न था। महाभारत में इनके चरित्र के अनुशीलन से विदित होता है कि इनके कुछ गुण बहुत ही असाधारण और मोहक थे। कर्ण की वीरता, सच्चरित्रता और दानशीलता अद्भुत थी। उसकी वीरता और उदारता का वर्णन करते हुए व्यास ने लिखा है-
यस्य चेतसि निर्व्याजं द्वयं तूलकणायते।
क्रोधो विरोधिनां सैन्यं प्रसादे कनकोच्चयः॥
जिस कर्ण के चित्त में दो वस्तुएँ एक समान रूई के रेशे की तरह उड़ती रहती हैं। क्या-क्या? क्रोध आने पर शत्रुओं की सेना और प्रसन्न होने पर सोने के ढेरे। अर्थात् कर्ण उच्चतम कोटि का वीर और दानी है। दूसरे श्‍लोक में उसकी शूरता और उदारता का वर्णन करते हुए लिखा-
अर्थिप्रत्यर्थिलक्ष्येष्वपराङ्मुखचेतसम्।
यं पराङ्मुखतां निन्युः केवलं परयोषितः॥
लाखों याचक और शत्रुओं को देखकर कर्ण ने कभी अपनी पीठ नहीं दिखायी। उसे विमुख करने वाली केवल पराई स्त्रियाँ ही हैं, अन्य कोई नहीं।
जीवनलीला समाप्ति से पूर्व भीष्म ने कर्ण को बुलाकर कहा-
ब्रह्मण्यता च शौर्यं च दाने च परमां स्थितिम्।
न त्वयासदृशः किश्‍चित् पुरुषेष्वमरोपम॥
हे देवतुल्य कर्ण! ईश्‍वरभक्ति। शूरता और अत्यन्त दानशीलता, इन गुणों में तेरे समान कोई दूसरा नहीं है।
कुलभेदभयाच्चाहं सदा परुषमुक्तवान।
इष्वस्त्रे चास्त्रसंधाने लाघवेऽस्त्रबले तथा।
सदृशः फाल्गुनेनासि कृष्णेन च महात्मना॥
हे कर्ण ! कुल की फूट को देखते हुए मैं सदा तुझे कठोर वचन कहता रहा हूँ। नहीं तो अस्त्र-शस्त्रों के चलाने और चुस्ती में तुम अर्जुन और महात्मा कृष्ण से किसी प्रकार कम नहींं हो। इससे भी बढ़कर कर्ण के जीवन का उज्ज्वल पक्ष वह है, जब राज्य का प्रलोभन देकर कृष्ण ने दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए कर्ण से कहा-
त्वमेव कर्ण जानसि वेदवादान् सनातनान्।
त्वमेव धर्मशास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठितः॥ महा. 5.138.7
हे कर्ण ! तुम सनातम वैदिक मन्तव्यों से परिचित हो और सूक्ष्म धर्मशास्त्रों में तुम्हारी पैठ है।
कानीनश्‍च सहोढश्‍च कन्यायां यश्‍च जायते।
वोढारं पितरं तस्य प्राहुः शास्त्रविदो जनाः॥8॥
कुमारावस्था में उत्पन्न हुई सन्तान उसी की मानी जाती है जिसके साथ उस लड़की का विवाह होता है। यह शास्त्रीय मर्यादा है।
सोऽसि कर्ण तथा जातः पाण्डोः पुत्रोऽसि धर्मतः।
निग्रहाद्धर्मशास्त्राणमेहि राजा भविष्यसि॥9॥
सो इस प्रकार की उत्पत्ति के कारण तू धर्मानुसार पाण्डु का ही पुत्र है। अतः धर्मशास्त्र की मर्यादा के अनुसार तू इस ओर आ। यहाँ तू राजा होगा।
पितृपक्षे च पार्था मातृपक्षे च वृष्णयः।
द्वौ पक्षावभिजानीहि त्वमेतौ भरतर्षभ॥10॥
तेरे भाई-बन्धु युधिष्ठिर आदि हैं और ननसाल में हम वृष्णि लोग हैं। तू इन दोनों पक्षों को भी समझ ले।
मया सार्धमितो यातमद्य त्वां तात पाण्डवाः।
अभिजानन्तु कौन्तेयं पूर्वजातं युधिष्ठिरात्॥11॥
हे तात ! आज तू जब मेरे साथ वहाँ जावेगा तो पाण्डव लोग युधिष्ठिर से भी पूर्व कुन्ती से उत्पन्न हुए बड़े भाई के रूप में तुझसे परिचित होंगे।
पादौ तव ग्रहीष्यन्ति भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः।
द्रौपदीयास्तथा पञ्च सौभद्रश्‍चापराजितः॥12॥
पांचों पाण्डव तेरे छोटे भाई होने के कारण तेरे चरण-स्पर्श करेंगे। द्रौपदी के पांचों पुत्र तथा सुभद्रा का अपराजित पुत्र अभिमन्यु ये सब चरणस्पर्श करेंगे। साथ ही पाण्डव-पक्ष में एकत्र हुए सब अन्धक, वृष्णि तेरे अनुयायी होंगे। ये सभी तथा-
अहं च त्वाभिशेष्यामि राजानं पृथिवीपतिम्।
मैं तुझे पृथिवी के स्वामी राजा के रूप में तेरा अभिषेक करूंगा।
युवराजोऽस्तु ते राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
गृहीत्वा व्यजनं श्‍वेतं धर्मात्मा संशितव्रतः॥18॥
धर्मपुत्र युधिष्ठिर युवराज के रूप में श्‍वेत व्यजन (पंखा) हाथ में लेकर तेरी सेवा में खड़ा रहेगा। भीमसेन विशाल श्‍वेत छत्र तेरे ऊपर लगाकर खड़ा रहेगा। सफेद घोड़ों वाले तेेरे सुन्दर रथ को अर्जुन हांकेगा। नकुल, सहदेव, अभिमन्यु, पाञ्चाल आदि सब तेरे पीछे-पीछे चलेंगे-
स त्वं परिवृतः पार्थैर्नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः।
प्रशाधि राज्यं कौन्तेय कुन्तीञ्च पतिनन्दय॥27॥
तू पांचों पाण्डवों में नक्षत्रों में चन्द्रमा के समान सुशोभित होकर राज्य का शासन कर, कुन्ती को आनन्दित कर।
ऊपर के उद्धरणों में यह अच्छी तरह से स्पष्ट है कि कृष्ण ने कितने बड़े प्रलोभन देकर तथा धर्मानुसार कर्ण को अपनी ओर करना चाहा था। पर यह सुनकर कर्ण ने बहुत विनीत भाव से निम्न उत्तर दिया-
असंशयं सौहृदान्मे प्रणयाच्चात्थ केशव।
सख्येन चैव वार्ष्णेय श्रेयस्काम तथैव च ॥5.139.1
हे केशव ! निःसन्देह आपने प्रेम, सौहार्द, मित्रता और मेरे कल्याण की भावना से ही ये बातें कहीं हैं।
सर्वं चैवाभिजानामि पाण्डोः पुत्रोऽस्मि धर्मतः।
निग्रहाद्धर्मशास्त्राणां यथा त्वं कृष्ण मन्यसे॥2॥
मैं यह सब जानता हूं कि धर्मशास्त्र की व्यवस्था के अनुसार जैसा आप कहते हैं, मैं पाण्डु का पुत्र हूँ।
किन्तु जब उत्पन्न होेते ही कुन्ती ने मुझे त्याग दिया तो अधिरथ सूत मुझे प्रेम से उठाकर अपने घर ले गये और उन्होंने मुझे अपनी पत्नी राधा को ले जाकर दिया।
मत्स्नेहाच्च राधायां सद्यः क्षीरमवातरत्।
सा मे मूत्रपुरीषं च प्रतिजग्राह माधव॥6॥
मेरे ऊपर प्रेम के कारण राधा के स्तनों में दूध उतर आया और उसी ने मेरा मल-मूत्र साफ किया।
तस्याः पिण्डव्यपनं कुर्यादस्मद्विधः कथम्।
धर्मविद्धर्मशास्त्राणां श्रवणे सततं रतः॥7॥
हे कृष्ण ! मेरे जैसा व्यक्ति जो सदा धर्मशास्त्रों का अध्ययन करता है और धर्म को जानता है, वह राधा के उपकार की उपेक्षा कैसे कर सकता है? इसी प्रकार अधिरथ भी मुझे पुत्र समझते हैं और मैं भी उन्हें अपना पिता मानता हूँ। उन्होंने ही शास्त्रानुसार मेरे सब संस्कार कराये और पुरोहितों से वसुषेण मेरा नाम रखवाया है। युवा होेने पर विवाह कराया और अब मेरे पुत्र तथा पौत्र हैं। उन सबके साथ मैं आत्मीयता के सूत्र में बँधा हुआ हूँ।
न पृथिव्या सकलया न सुवर्णस्य राशिभिः।
हर्षाद्भयाद्वा गोविन्द मिथ्याकर्तुं तदुत्सहे॥12॥
हे कृष्ण ! समस्त पृथिवी और सोने के ढेरों पर भी तथा किसी हर्ष और भय के कारण भी मैं इन सम्बन्धों को नहीं झुठला सकता। इसके अतिरिक्त हे कृष्ण !
धृतराष्ट्रकुले कृष्ण दुर्योधनसमाश्रयात्।
मया त्रयोदश समा भुक्तं राज्यमकण्टम्॥13॥
दुर्योधन के बूते पर धृतराष्ट्र के परिवार में मैंने निष्कंटक 13 वर्ष तक राज्य का सुख भोगा है।
मां च कृष्ण समासाद्य कृतः शस्त्रसमुद्यतः।
दुर्योधनेन वार्ष्णेय निग्रहश्‍चापि पाण्डवैः॥15॥
हे कृष्ण ! मेरे भरोसे ही दुर्योधन ने पाण्डवों से शत्रुता की है और मेरे ही भरोसे यह युद्ध रोपा गया है। इसके अतिरिक्त अर्जुन के साथ लोहा लेने के लिये तो दुर्योधन ने मुझे ही चुना है। अतः-
वधाद्बन्धाद्भयाद्वापि लोभाद्वापि जनार्दन।
अनृतं नोत्सहे कर्तुं धार्तराष्ट्रस्य धनिनः॥17॥
हे जनार्दन! मृत्यु अथवा बन्धन के डर से अथवा किसी भी प्रलोभन के कारण मैं दुर्योधन के इस विश्‍वास को ठेस नहीं पहुँचा सकता। निश्‍चय ही आपने मेरे हित के कारण ही ये बातें कहीं हैं और मुझे विश्‍वास है कि आपके निमन्त्रण के कारण पाण्डव करेंगे भी वैसा ही। फिर भी मैं आपको परामर्श देता हूँ कि आप मेरे जन्म के तथा पाण्डवों का बड़ा भाई होने के रहस्य को अपने तक ही गुप्त रखें। मैं इसी में सबका कुशल समझता हूँ। क्योंकि-
यदि जानाति मां राजा धर्मात्मा संयतेन्द्रियः।
कुन्त्याः प्रथमजं पुत्रं न स राज्यं ग्रहीष्यति॥21॥
जितेन्द्रिय धर्मात्मा युधिष्ठिर को यदि यह पता चल गया कि मैं कुन्ती का ज्येष्ठ पुत्र हूँ तो वह राज्य लेना स्वीकार नहीं करेगा और मुझे ही अर्पित कर देगा।
प्राप्य चापि महद्राज्यं तदहं मधुसूदन।
स्फीतं दुर्योधनायैव संप्रदद्यामरिन्दम॥22॥
हे मधुसूदन! युधिष्ठिर के दिये हुए उस महान् राज्य को मैं दुर्योधन के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये दुर्योधन को ही दे दूँगा। इस प्रकार आपका यह महान् संघर्ष निरर्थक हो जायेगा। इसलिये मेरी कामना है कि-
स एव राजा धर्मात्मा शाश्‍वतोऽस्तु युधिष्ठिरः।
नेता यस्य हृषीकेशो योद्धा यस्य धनंजय॥23॥
जिसका नेता कृष्ण है और योद्धा अर्जुन है वह राजा युधिष्ठिर ही सदा सर्वदा बना रहे।
कर्ण का यह चरित्र लोकोत्तर है या नहीं? इसके अतिरिक्त भी कर्ण के जीवन में अनेक प्रेरक प्रसंग हैं, किन्तु हम विस्तार-भय से उन्हें छोड़ देते हैं
इसी प्रकार की वीरता, कर्ण के साथ मैत्री की निर्व्याजता, अपनी बात रखने के लिये सब निछावर करने की धुन दुर्योधन के चरित्र के भी अविभाज्य अंग हैं। कर्ण के सेनापति बनने पर अश्‍वत्थामा ने यह प्रण कर लिया था कि मैं उसके सेनापतित्व में शस्त्र नहीं उठाऊंगा। जब अर्जुन ने कर्ण को युद्ध में मार दिया, तब समाचार पाते ही अश्‍वत्थामा गरजता हुआ दुर्योधन के पास पहुँचा और बोला- “राजन् ! जिस कर्ण के ऊपर आपने पाण्डवों को परास्त करने की आशा बाँध रखी थी, वह उनका कुछ भी बिगाड़ न सका और संसार से चल बसा। अब तुम मेरा जौहर देखना। मैं केवल एक दिन में ही ‘निष्पाण्डवा मेदिनी’ संसार को पाण्डवों से विहीन कर दूँगा।’’

राजनीति की यह सामान्य सी बात है कि अपने विजय के लक्ष्य को पूरा करने के लिये जहाँ से भी सहायता मिले, ले लेनी चाहिए। कर्ण तो अब संसार से गया, उससे अब किसी प्रकार की आशा ही कहाँ हो सकती थी? अतः दुर्योधन को अश्‍वत्थामा से लाभ उठाना चाहिये था। किन्तु दुर्योधन ने यहाँ मानवीय और नैतिक पक्ष को प्राथमिकता देते हुए कहा- “गुरुपुत्र ! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘जब तक कर्ण जीवित है, मैं शस्त्र नहीं उठाऊंगा।’ अब तुम यह प्रतिज्ञा और कर लो कि जब तक दुर्योधन नहीं मर जाता, मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा। मेरी दृष्टि में तुम और अर्जुन एक समान हो। एक ने मेरे मित्र कर्ण के भौतिक शरीर को नष्ट किया है और तुम उसके मरने पर कटुवचन कहके उसके यशरूपी शरीर को नष्ट कर रहे हो। जैसे मैं अपने मित्र के शत्रु अर्जुन से दी हुई राज्यलक्ष्मी को स्वीकार नहीं कर सकता, उसी प्रकार तुम्हारे शौर्य से लाभ उठाना मैं वैसा ही नीचकर्म समझता हूँ।’’ यह है दुर्योधन का नैतिक स्तर, जिसे आज की राजनीति स्वप्न में भी नहीं पा सकती।

धृतराष्ट्र ने अन्तिम बार दुर्योधन को बुलाकर समझाते हुए कहा- “दुर्योधन ! अब भी तुझे युधिष्ठिर से सन्धि करके युद्ध समाप्त कर देना चाहिये।’’ दुर्योधन ने उत्तर दिया- “पिताजी सन्धि समान स्थिति में होती है। इस युद्ध में मेरी शक्ति लगभग नष्ट हो गयी है। मेरे सब भाई भी चल बसे, अच्छे-अच्छे योद्धा खप गये, युधिष्ठिर के सभी भाई सकुशल हैं, सैनिक शक्ति भी सुरक्षित है, तो सन्धि की सम्भावना कहाँ है?“ धृतराष्ट्र ने उत्तर दिया- “नहीं, अब भी सन्धि का अवसर है। क्योंकि चाहे पाण्डव पाँचों जीवित हैं, किन्तु तुझसे युद्ध करने के लिये एक समय में एक ही आवेगा। तू इतना वीर है कि एक किसी के लिये भी तुझे परास्त करना सरल नहीं है। इस स्थिति में अब भी विजय उतनी संदिग्ध है, जितनी युद्ध से पूर्व थी। साथ ही युधिष्ठिर का यह प्रण है कि ‘मेरे चारों भाइयों में से कोई एक भी मर जायेगा तो मैं स्वयं अपना जीवन त्याग दूँगा।’ अतः सन्धि का प्रस्ताव रखा जाये तो मेरा विश्‍वास है कि युधिष्ठिर मान लेगा।’‘ किन्तु यह सुनकर दुर्योधन बोला- “पिताजी! इस स्थिति में भी मुझे युद्ध ही करना चाहिये। क्योंकि युधिष्ठिर जब एक भाई के न रहने पर भी जीवन त्याग सकता है तो क्या दुर्योधन इतना पतित है कि इतने भाइयों को बलिवेदी पर चढाकर भी राज्यसिंहासन और जीवन की इच्छा करे!’‘ देख लीजिये दुर्योधन कितना महान् है!

दुर्योधन की वीरता का दिग्दर्शन कवि भास के शब्दों में पढ़िये। दुर्योधन के सीधे ही जब युद्धभूमि में उतरने का अवसर आया तो पाण्डवों की ओर से प्रस्ताव हुआ-
पञ्चानां मन्यसेऽस्माकं यं सुयोधं सुयोधन।
वर्मितस्यात्तशस्त्रस्य तेन तेऽस्तु रणोत्सवः॥
हे दुर्योधन हम पाँचों में से तुम जिसके साथ लड़ना अनुकूल समझते हो, उसके साथ कवच पहनकर और शस्त्र लेकर युद्ध करो। इस प्रस्ताव को सुनकर और भीम की ओर देखकर दुर्योधन ने उत्तर दिया- अप्रियोऽपि प्रियो योद्धुं त्वमेव प्रिय साहसः। भीम! हो तो तुम मेरे सबसे बड़े विरोधी, किन्तु मुझे युद्ध करना तो तुम्हारे साथ ही प्रिय है। दोनों की मुठभेड़ हुई और एक पैंतरे पर गदा के प्रहार से भीम घुटने के बल गिर गया और मात खा गया। उसे इस स्थिति में देखकर दुर्योधन ने कहा-
वीर्यालयो विविधरत्नविचित्रमौलिः।
युक्तोऽभिमानविनयश्रुतिसाहसैश्‍च॥
वाक्यं वदत्युपहसन्नतु भीम दीनम्।
वीरो निहन्ति समरेषु भयं त्यजेति॥
अत्यन्त वीर, अनेक रत्नजटित मुकुट धारण किये हुए अभिमान, विनय और कान्ति से सुशोभित दुर्योधन ने हंसी उड़ाते हुए भीम को फीका पड़ा देखकर कहा- भीम! युद्ध में वीर कभी दीन-शत्रु पर प्रहार नहीं करते। अतः डर छोड़कर साहस से सामने आ। भीम ने रोष में आकर कृष्ण का संकेत पाकर युद्ध के नियम के विपरीत गदा-प्रहार करके दुर्योधन की जंघा चूरचूर कर डाली। उस अवस्था में भुजाओं के सहारे शरीर को घसीटते हुए दुर्योधन की उक्ति-
भीमेन भित्वा समयव्यवस्थां गदानिपातक्षतजर्जरोरुः।
भूमौ भुजाभ्यां परिकर्षमाणं स्वदेहमर्धोपरतं वहामि॥
भीम ने युद्ध के नियमों का अतिक्रमण करके गदा के प्रहार से मेरी जंघाओं को चूरचूर कर डाला है। अब मैं अपनी भुजाओं के सहारे पर अर्धमृत शरीर को भूमि पर घसीट रहा हूँ। इस प्रकार युद्ध के नियमों को भंग होता हुआ देखकर बलराम ने क्रोध में आकर कहा कि- “इस अनर्थ करने वाले भीम का वध अब मैं करूँगा।’‘ इस बात को सुनते ही दुर्योधन ने कहा कि अब ऐसा करके पाण्डवों के रंग में भंग मत डालिये-
जीवन्तु ते कुरुकुलस्य निवापमेघाः।
वैरं च विग्रहकथा च वयं च नष्टाः॥
कुरुकुल की अग्नि को बुझाने वाले अब पाण्डवरूपी बादल सलामत रहें। अब तो बैर-झगड़े की बात और हम ही नष्ट हो गये। अब आप उन्हें क्यों छोड़ते हैं, मेरे मरने के आप नियम-विरुद्ध समझते हैं तो मेरे लिये बस वीरता के नाते इतना ही प्रमाणपत्र पर्याप्त है-
यद्येवं समवैषि मां छलजितं भो राम नाहं जितः।
हे राम (बलराम!) छल से हराकर भीम मुझे वास्तव में जीत नहीं सका।
दुर्योधन के घायल होने का समाचार उसकी पत्नी भानुमती ने सुना तो विलाप करती हुई युद्धभूमि में पहुंची। पत्नी को इस प्रकार रोता हुआ देखकर जो शब्द दुर्योधन ने कहे वे वीरता के इतिहास में सदा अमर रहेंगे-
भिन्ना में भ्रुकुटी गदानिपतितैर्या युद्धकालोत्थितैः।
वक्षस्युत्पतितैः प्रहाररुधिरैर्हारावकाशोद्धृतैः।
पश्येमौ त्रणकाञ्चनाङ्गदधरौ पर्याप्तशोभौ भुजौ।
भर्ता ते न पराङ्मुखो युधि हतः किं क्षत्रिये रोदिषि॥
युद्ध के समय हुए गदा-प्रहारों से मेरी भौहें फट गयी हैं। छाती पर लगे हुए प्रहारों से बहते हुए रक्त ने अब मुक्ताहार की आवश्यकता ही नहीं छोड़ी। दोनों भुजाएं भी घावों से सोने के बाजूबन्दों से भी अधिक सुशोभित हो रही हैं। तेरा पति युद्ध में पीठ दिखाकर नहीं मारा गया। तो हे क्षत्राणी! फिर तू रोती क्यों है? रोने की बात तो तब होती जब मैंने युद्ध में पीठ दिखाई होती।
वेदोक्तैर्विविधैर्मखैरभिमतैरिष्टंधृता बान्धवाः।
शत्रूणां उपरि स्थितं प्रियशतं न व्यंसिताः संश्रिताः।
युद्धेऽष्टादशवाहिनी नृपतयः सन्तापिता निग्रहे।
मानं मानिनि वीक्ष्य मे नहि रुदन्त्येवं विधानां स्त्रियः॥
हे देवि ! वेदोक्त विविध यज्ञ करके मैंने अपने इष्टबन्धुओं का भरण-पोषण किया। सदा शत्रुओं को दबा के रखा। सैकड़ों की मनोकामनाएँ पूरी की। किसी प्रकार की कमी कभी खली नहीं। युद्ध में अठारह सेनाओं के शासकों को अपने नियन्त्रण में रखा। तो हे मानिनि! मेरे स्वाभिमान पर तो एक दृष्टि डाल, ऐसे गौरवपूर्ण पुरुषों की पत्नियाँ रोया नहीं करतीं।

कितनी उच्चकोटि की वीरता के वचन हैं। कर्ण और दुर्योधन के ये प्रसङ्ग कुछ अधिक लम्बे हो गये। किन्तु इनसे एक बात स्पष्ट हो गई कि निकृष्ट से निकृष्ट व्यक्ति में भी कुछ अच्छाइयाँ होती हैं। यदि किसी प्रकार सद्गुणों की ओर ही मनुष्य के चिन्तन और क्रिया का प्रवाह मुड़ जाय तो कहना ही क्या, एक-एक सत्कर्म का ही इतना विस्तार हो सकता है कि किसी बुरे काम को सोचने और करने का अवकाश ही नहीं होगा।

महर्षि दयानन्द से बंगाल के एक नेता अश्‍विनीकुमार दत्त ने पूछा था- “महाराज! मनुष्य के मन में वासना जगे और उसे वह अपनी विचारशक्ति से शान्त करके सत्पथ से विचलित न हो यह तो समझ में आता है, किन्तु मैं जानना चाहता हूँ कि आपके मन में कभी वासना भी जगी है या नहीं?’’ यह प्रश्‍न सुनकर ऋषि ने थोड़ी देर आत्मनिरीक्षण किया, फिर उत्तर दिया- “मुझे अपने जीवन में ऐसा कोई अवसर स्मरण नहीं आता जब मेरे मन में कुविचार कभी पैदा भी हुए हों।’’ इस पर चकित होकर अश्‍विनी बाबू ने कहा- “यह कैसे सम्भव है?’’ तो ऋषि ने सहज भाव से उत्तर दिया- “मेरे पास करने के इतने काम हैं कि उनसे भिन्न कोई बात मन में सोचने और करने को मेरे पास समय ही नहीं है।’’ अतः मन्त्र में पहली प्रार्थना है कि मेरे सद्गुण मेरे जीवन में विकसित होकर जीवन को यज्ञमय बना दें, ताकि मैं अपना और समाज का भला कर सकूँ।

मन्त्र की दूसरी बात है कि मेरे संकल्प सत्य हों। ऐसा न हो कि मैं व्यर्थ की उधेड़बुन में पड़ा रहूँ। अर्थात् मेरे चिन्तन की दिशा ठीक हो। जब मुझे ठीक विचार करने का अभ्यास होगा तो आचरण भी ठीक ही करूँगा। यदि चिन्तन ही बेतुका होगा, तो उसके फल का ठीक-ठीक होने का प्रश्‍न ही कहाँ उपस्थित होता है? महत्वाकांक्षाएँ तो मस्तिष्क में भले ही रहें, किन्तु अपनी योग्यता और क्षमताओं के अनुसार ही वे क्रियान्वित हो पाती हैं। अतः मनुष्य को सन्तुलित विचार का अभ्यस्त होना चाहिये। तभी मानसिक शान्ति भी रह सकती है। अतः दूसरी प्रार्थना है कि मेरे संकल्प सत्य हों।

मन्त्र की तीसरी बात है कि कोई दोष अनजाने मेरे जीवन में रह जाए यह सम्भव है, पर जान लेने पर कि यह बुराई है, फिर चाहे कुछ हो जाये मैं उसे सर्वस्व की बाजी लगाकर भी समाप्त करके ही छोडूँगा। पाप को पाप जानते हुए आचरण करना जीते जी मरने समान है। अतः मेरी इच्छाशक्ति इतनी प्रबल होनी चाहिये कि वीर के समान डटकर मैं उस पाप को जीवन में से निकाल फेंकूँ। मृत्यु स्वीकार हो किन्तु पापमय जीवन नहीं। इस बात को समझने के लिये स्वामी श्रद्धानन्द जी की आत्मकथा की एक घटना बहुत प्रेरणास्पद है-
एक दिन प्रातः लाला मुन्शीराम (स्वामी श्रद्धानन्द का पूर्वनाम) लाहौर के एक चौराहे पर खड़े हुए थे। सामने से एक व्यक्ति एक कटा हुआ बकरा टोकरे में सिर पर उठाये ले जा रहा था। बोझ के कारण जब वह व्यक्ति ऊपर-नीचे होता था तो कटे बकरे की लाल-लाल टांगें हिलती हुई बहुत बीभत्स लग रही थीं और उन्हें देख पाना कठिन था। उसे देखकर इनके मन में विचार आया कि कहाँ तो तू इसे देखकर भी परेशान हो रहा है और कहाँ इसे चटकारे ले-लेकर खाता है। सोचते सोचते ऐसी ग्लानि हुई कि वहीं यह निश्‍चय कर लिया कि आज से मांस नहीं खायेंगे। शाम को ही एक भोज में सम्मिलित हुए। मेज पर जहाँ अन्य मित्र वकील आदि बैठे थे, बैठ गये। भोजन परोसा जा रहा था। इन्होंने देखा कि सब्जियों के साथ एक कटोरी में मांस भी है। विचार आया कि आज ही तो प्रातः तुमने यह प्रण किया कि आगे से मांस नहीं खायेंगे। फिर दूसरा विचार आया कि तुम्हारे इस निश्‍चय का किसे पता है? आज खा लो। आगे से फिर देख लेना। इसके बाद फिर विचारतरंग आयी कि एक संकल्प करके उसके विपरीत चलना तो थूके को चाटने के समान अत्यन्त नीचकर्म है। मैं ऐसा नहीं करूँगा। बस थाली में से मांस की कटोरी निकालकर दीवार पर दे मारी। इसके छींटों से अपने कपड़े भी खराब हो गये और मेज के दूसरे व्यक्तियों पर भी छींटें पड़े। पास के दूसरे व्यक्तियों ने आश्‍चर्य में पूछा क्या हुआ? कटोरी में मक्खी थी क्या? इन्होंने उत्तर दिया कि ऐसा तो कुछ नहीं था। मैंने आज ही प्रातः मांस न खाने का प्रण किया है। इसलिये कटोरी निकाल फेंकी। इस बात को सुनकर साथियों ने कहा कि इसके लिये भी कटोरी को दीवार पर दे मारने की क्या आवश्यकता थी? आप निकलवा भी तो सकते थे। मुन्शीराम जी ने हँसते हुए इसका उत्तर दिया कि चुपचाप निकलवाने से आप लोगों को कैसे पता चलता कि मैंने मांस छोड़ने की प्रतिज्ञा की है। अभी-अभी मेरा मन यही युक्ति दे रहा था कि तेरे मांस छोड़ने का किसको पता है? अब मन को यह युक्ति देने का अवसर तो नहीं मिलेगा। एक प्रकार से कटोरी दीवार को मारकर मैंने अपने मन की भर्त्सना की है।

इससे यह शिक्षा मिलती है कि बुराई को दृढ़ निश्‍चय के साथ वीरोचित व्यवहार से ही छोड़ा जा सकता है, बुराई से समझौता करके नहीं। अतः मन्त्र की तीसरी बात हुई कि ‘चाहे कुछ हो’ मैं पाप का आचरण कभी न करूँ।

अब मन्त्र की अन्तिम और चौथी बात आयी कि हे संसार के बुद्धिमान व्यक्तियो ! आप जानी हुई सच्चाई और अच्छाई का प्रचार करें। प्रचार के बिना वह अच्छाई केवल चाहने से नहीं फैलेगी। यह एक बहुत आवश्यक और विचारणीय विषय है।

मनुष्य एक विचारशील सामाजिक प्राणी है। उस पर अच्छे और बुरे संस्कारों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। अतः संसार को सन्मार्ग पर लाने के लिये मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है कि वह शुभ विचारों का सन्देश दूसरों को देता रहे। यदि इस आवश्यक कर्त्तव्य की उपेक्षा की जायेगी तो कपिल मुनि के शब्दों में- उपदेश्योपदेष्टृत्वात् तत्सिद्धिरन्यथान्धपरम्परा। (सांख्यदर्शन) अच्छे वक्ता व श्रोता शुभकर्मों के मार्ग को प्रशस्त करने के लिये सद्विचारों के प्रचार में लगे रहते हैं तो संसार में धर्म की वृद्धि होती है, अन्यथा अज्ञान के अंधेरे में स्वार्थ-सिद्धि और भोग का वातावरण तैयार हो जाता है।

इस दासता के अन्धकार में भटकती हिन्दूजाति को ऋषि दयानन्द ने भारत के अतीत के आधार पर एक दिव्य आलोक दिया। उन्होंने उस अवस्था में भी चक्रवर्ती राज्य का स्वप्न देखा और अतीत का महर्षि मनु का गौरवमय उद्घोष कह सुनाया-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथ्व्यिां सर्वमानवाः॥ मनु. 2.20
भारत में उत्पन्न हुए विद्वानों ने भूतल के मानव-समाज को आचार और व्यवहार सिखाया। यह जीवट भरा सन्देश उसी महापुरुष ने मृतप्राय जाति को सुनाकर जीवनदान दिया। रिचर्ड पाल के शब्दों में किसी व्यक्ति की महत्ता की कसौटी उसकी विचार-सरणी ही है-
The greatness of a man of a nation is measured not by the brutal victories attained by him but it is know by the greatness of an ideal (To the nations)
अर्थात् किसी मनुष्य अथवा राष्ट्र का बड़प्पन उसके आदर्श की महत्ता से जाना जाता है। बड़े-बड़े राज्यों की जीतने से तथा सारे संसार पर प्रभुत्व जमा लेने से किसी राष्ट्र की सच्ची महत्ता प्रकट नहीं होती।
विचारों का कितना प्रभाव होता है, यह ऋषि दयानन्द के बाद के भारत के परिवर्तन से देखना चाहिये। ऋषि के विचारों ने बौद्धिक जगत् में एक हलचल मचा दी। वह भी केवल दस वर्ष के स्वल्पकाल में। संवत् 1920 (सन् 1863 ई.) में वे स्वामी विरजानन्द जी से दीक्षा लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए और संवत् 1940 (सन् 1883 ई.) तक काम करने का उन्हें अवसर मिल पाया। इन बीस वर्षों में भी पहले के 10 वर्ष तो तैयारी और कार्यशैली निश्‍चित करने में चले गये। वास्तविक कार्य तो अन्तिम 10 वर्षों में हुआ।

उस समय के बालशास्त्री और स्वामी विशुद्धानन्द जैसे विद्वान ऋषि के विचारों की सत्यता को स्वीकार करते थे। उस सत्य-मार्ग को अपनाने के लिये जिस साहस और धैर्य की आवश्यकता थी, उसका वे अपने में अभाव बताते थे और कहते थे कि ‘यह काम तो कोई दयानन्द जैसा फक्कड़ ही कर सकता है’।
ऋषि के प्रचार के विषय में मैडम ब्लेवेट्स्की ने उस युग में एक आकलन किया था। ऋषि के जीवनकाल में ही कम से कम 50 लाख व्यक्ति उनके आदर्शों से प्रभावित थे और उनके अनुयायी भक्त बन चुके थे।

वेद इस प्रचार के पवित्र काम को प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति के कर्त्तव्यों में सम्मिलित करता है। आप कल्पना करिये कि यदि प्रत्येक व्यक्ति इस दायित्व को निभाये तो यह संसार कितना सुखधाम बन सकता हैं !

अतः मन्त्र में चौथी बात कही गयी कि विचारशील व्यक्तियों को जानी हुई अच्छाइयों का संसार में प्रचार करना चाहिये। - शिवकुमार शास्त्री

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