वेद और वैदिक धर्म की दृष्टि से आज के मानव समाज पर दृष्टिपात किया जाये तो यह स्पष्ट ही प्रतीत हो जाता है कि आज का मनुष्य सच्चे ईश्वर और उसके बताये मार्ग से लगभग भटक गया है। आज का मनुष्य अपने नित्य-चेतन आत्म तत्व को भुलाकर मात्र शरीर मासंपिण्ड और इन्द्रियों के समूह को ही अपना स्वरूप मानकर चल रहा है। समस्त बुद्धि, समय, शक्ति, साधन इन्हीं इन्द्रियों के विषय भोगों को भोगने और भोग्य साधनों का संग्रह करने तथा इस हेतु अर्थोपार्जन करने में नियोजित कर रहा है। संक्षेप में मनुष्य का केन्द्र अर्थ-काम बन गया है।
जीवन में, व्यवहार में श्रद्धा-प्रेम-विश्वास-निष्ठा-दया-क्षमा-त्याग-तप-संयम तथा निष्कामता का निरन्तर ह्रास ही होता जा रहा है। प्रातः जागरण, भ्रमण, व्यायाम, ईश्वरोपासना, यज्ञ, स्वाध्याय, सत्संग, सेवा, परोपकार, आत्मनिरीक्षण, यम-नियमों का पालन दिनचर्या में से छूट गये हैं। इसके विपरीत परस्पर द्वेष, उपेक्षा, घृणा, छल, कपट, स्वार्थ, निन्दा, स्पृहा, आलस्य तथा प्रमाद आदि दोष निरन्तर प्रवृद्ध होते जा रहे हैं।
वेद तथा ऋषिकृत सिद्धान्तों के अनुसार कोई कितनी ही भौतिक उन्नति क्यों न कर ले, जब तक अध्यात्म से सम्बन्धित परा विद्या के विज्ञान को नहीं जानता है और उसे जीवन व्यवहार में क्रियान्वित नहीं करता है, तब तक मनुष्य को पूर्ण सुख, शान्ति, सन्तोष, निर्भीकता, स्वतंत्रता की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसमें कोई विकल्प नहीं है।
वर्तमान में विभिन्न मत, पंथ, सम्प्रदायों के धर्मगुरुओं, आचार्यों ने ईश्वर, धर्म, पूजापाठ, भक्ति, ध्यान, जप, तप आदि क्रियाकाण्डों की ऐसी विकृत भद्दी स्थिति बना दी है कि आज के पठित, तर्कशील, बुद्धिमान युवा इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं । यदि कोई अपनाता भी है तो मात्र औपचारिकता को पूरी करने के लिए, मन से नहीं।
किन्तु प्रौढ़ पीढ़ी को जो भोली है, ये तथाकथित सन्त-महन्त-स्वामी-मठाधीश अपने वाक्जाल, चालाकी, अभिनय से कपोल कल्पित देवी-देवताओं, उनके मिथ्या चमत्कारी इतिहासों व चरित्रों से भ्रमित करने में सफल हो ही जाते हैं। ये इन अज्ञानी भावुक जनता को नचाते हैं, हंसाते हैं, गंवाते हैं और अन्त में येन केन प्रकारेण समाज सुधार के कार्यक्रमों की योजनायें बताकर धन सम्पत्ति का संग्रह करके अन्तर्धान हो जाते हैं।
विश्व की मूल समस्याओं को आज के कर्णधार अथवा तो जान नहीं पा रहे या जानबूझकर समाधान हेतु प्रयास नहीं कर रहे हैं। मूल समस्या मुख्य है अनेकेश्वरवाद, साथ ही भाषा, संविधान, कानून, नीति-नियम, शिक्षा, परम्पराओं की अनेकता। जब तक उपर्युक्त विषयों में विश्व एक विषय वाला नहीं बनेगा, तब तक विश्व में विवाद, भय, भ्रम, संशय, वैर, विरोध युद्ध समाप्त नहीं होंगे। संगच्छध्वं संवदध्वं... ही एक अद्वितीय समाधान है, जो वेदों में आया है। अर्थात् समान विचार-वाणी और व्यवहार। - आचार्य ज्ञानेश्वर
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