वेदों में लोकराज्य (गणतन्त्र) के आदर्श का उत्तमता से प्रतिपादन किया गया है, इतना ही नहीं कि उनमें लोकराज्य के मूलभूत राजा के निर्वाचनादि के सिद्धान्त का प्रतिपादन है, प्रत्युत लोकराज्य के पर्यायवाची ‘जानराज्य‘ शब्द का भी यजुर्वेद के निम्न मन्त्र में जो प्रजा द्वारा राजा व राष्ट्रपति के निर्वाचन का स्पष्टतया निरूपण करता है, प्रयोग किया गया है। यह मन्त्र यजुर्वेद में दो बार (9.40,10.18) आया है-
इमं देवा असपत्नं सुवध्वं महते क्षत्राय
महते ज्यैष्ठ्याय महतेजानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय।
इस मन्त्र में देवों अर्थात् विद्वानों को (विद्वांसो हि देवा:, शतपथ 3.7.3.10) सम्बोधन करते हुए कहा गया है कि तुम ऐसे मनुष्य को बड़े क्षात्र बल, सब प्रकार के ज्ञानादि की ज्येष्ठता या उन्नति, महान् जनहितकारी राज्य और आत्मा तथा इन्द्रियों की शक्ति के विकास के लिए राजा चुनो जो शत्रुरहित अर्थात् अत्यन्त लोकप्रिय है।
‘जानराज्य‘ का अर्थ भाष्यकारों ने ‘जनानामिदं जानं, जानं च तद् राज्यं च जानराज्यम्‘ इस प्रकार जन-सम्बन्धी वा जनहितकारी राज्य किया है। इससे उसका लोकराज्य पर्यायवाची होना स्पष्ट है। उसका उद्देश्य मन्त्र में महान् क्षात्र बल, ज्ञान, धन, शिल्पोद्योगादि की दृष्टि से ज्येष्ठता व श्रेष्ठता की प्राप्ति, शारीरिक, आत्मिक सब प्रकार की शक्ति का विकास तथा जन कल्याण बताया गया है। यजुर्वेद (20,3) में राज्याभिषेक का उद्देश्य इन शब्दों में बताया गया है -
अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभिषिञ्चामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायान्नाद्यायाभिषिञ्चामि इन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिञ्चामि॥
अर्थात् तुम्हारा यह अभिषेक इसलिए किया जा रहा है कि तुम्हारे राज्य में प्रजाओं को आरोग्य, ब्रह्मतेज और वेदाध्ययन, सुशिक्षिता वाणी, वीर्य, अन्नादि, परमैश्वर्य का धन, बल, राजलक्ष्मी, सत्कीर्ति इत्यादि की प्राप्ति हो।
किसी सुयोग्या देवी को भी राज्य-शासन के लिए चुना जा सकता है। इसके लिये यजुर्वेंद अ.14 के 21, 22 मन्त्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
मूर्धासि राड् ध्रुवासि धरुणा धर्त्र्यसि धरणी।
आयुषे त्वा वर्चसे त्वा कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा॥
यन्त्री राड़् यन्त्र्यसि यमनी ध्रुवासि धरित्री।
इषे त्वोर्जें त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा॥
इन मन्त्रों में ऐसी सुयोग्या देवी को उत्कृष्टा, कर्त्तव्य पालन में निश्चला, पुष्टिकर्त्री, धारिका, आधारभूता, भलीभांति नियमनकर्त्री इन विशेषणों से युक्त बताते हुए उसे राट् कहा गया है जिसमें उत्तमगुणगण से राजमाता व प्रकाशमाना होने के अतिरिक्त राज्यकर्त्री का भाव भी स्पष्ट है। उसके राज्य का उद्देश्य आयु, तेज, कृषि, प्रजा-कल्याण, अन्न, बल, धन और सब प्रकार की पुष्टि को बताया गया है। यजु.20,8 में राजा के मुख से कहलाया गया है कि- विशो मेऽङ्गानि सर्वत:।
अर्थात् सारी प्रजायें जो सब दिशाओं में फैली हुई हैं मेरे शरीर के अङ्गों के समान हैं। उनके हित का मैं उतना ही ध्यान रक्खूंगा जितना अपने शरीर के अवयवों का रखता हूँ।
यजुर्वेद 20,8 में लोकराज्य के आधारभूत इस मौलिक सिद्धान्त का प्रतिपादन है कि-
विशि राजा प्रतिष्ठित:॥
राजा की प्रतिष्ठा वा सम्यक् स्थिति प्रजा पर निर्भर है। प्रजा जब तक जिस व्यक्ति को राज्य पद पर रखना चाहे तब तक ही वह उस पद पर रह सकता है, अन्यथा नहीं। ऋग्वेद (10,173.1) में भी इसी तत्व का प्रतिपादन है-
आ त्वाहार्षमन्तरेधि ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि:।
दिशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वाद्राष्ट्रमधिभ्रशत्।
पुरोहित प्रजा के प्रतिनिधिरूप से नव निर्वाचित राजा को सम्बोधन करते हुए कहता है कि मैं तुझे प्रजाओं में से चुनकर ले आया हूँ। तू हमारे बीच में राजा वा शासक बन कर रह। तू स्थिर और कर्त्तव्य से विचलित न होेने वाला रह। सारी प्रजायें तेरी कामना करें, तुझे चाहती रहें जिससे तुझसे राज्य छिन न जाये। मन्त्र में यह ध्वनि स्पष्ट है कि यदि राजा ऐसे कार्य करे जिससे प्रजायें उसे न चाहें तो वे उसे राजा पद से हटा भी सकती हैं।
अथर्ववेद के 3,4 के ‘त्वां विशो वृणतां राज्याय।‘ इत्यादि में भी यही भाव स्पष्ट है कि सारी प्रजाएँ राज्यकर्म के लिए तेरा वरण वा चुनाव करें। इस प्रकार यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वेदों में जनराज्य वा लोकराज्य का प्रतिपादन है, जिसमें राजा का प्रजा द्वारा सर्वजन कल्याण के लिए चुनाव किया जाता है। जो मन्त्र यहाँ उद्धृत किये गए हैं उनमें जहाँ राजा के कर्त्तव्यों का निर्देंश है वहाँ प्रजा वा जनता के इस कर्त्तव्य का भी निर्देश है कि वे जागरूक होकर सुयोग्य व्यक्तियों के चुनाव के कर्त्तव्य का पालन करें, अन्यथा उनका कल्याण नहीं हो सकता।
वेदों में इस जागरूकता पर बड़ा बल दिया गया है और कहा गया है कि -
इच्छन्ति देवा: सुन्वन्तं न स्वप्नाय स्पृहयन्ति।
यन्ति प्रमादमतन्द्रा:। (8,2,18)
अर्थात् सत्यनिष्ठ विद्वान् लोग यज्ञादि शुभ परोपकारक कर्म करने वाले की ही कामना करते हैं, सोने वाले आलसी को वे नहीं चाहते और स्वयं प्रमाद आलस्य रहित होकर वे प्रमाद करने वाले का नियन्त्रण करते, उसे दण्ड देते हैं।
यह जागरूकता सभी के लिए आवश्यक है ताकि वे अपने धर्म का पालन कर सकें। किन्तु ब्राह्मण पुरोहितों के लिए तो यह सबसे अधिक आवश्यक बल्कि अनिवार्य है, क्योंकि उन्हें जनता और शासकों का भी मार्गदर्शन करना है। यदि वही प्रमाद करने लगें तो समाज और राष्ट्र अवनति के गर्त में पतित हो जाता है। अत: यजुर्वेद 9,23 में कहा गया है कि-
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता: स्वाहा॥
हम पुरोहित जिनको लोग प्रत्येक कार्य में आगे रखते हैं ऐसे मार्गदर्शक, राष्ट्र में सदा जागरूक रहें। सदा उत्तम वचनों का उच्चारण करें और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना को रखते हुए राष्ट्र के लिए अपने समस्त स्वार्थ का परित्याग कर दें।
वेदों में ऐसे पुरोहित ब्राह्मणों को ही ‘अग्नि‘ के नाम से भी कहा गया है जिसका अर्थ महर्षि यास्काचार्य ने निरुक्त में ‘अग्नि: कस्मादग्रणीर्भवति‘ इस निरुक्ति के अनुसार अग्रणी नेता किया है। ऐसे अग्निजन नेता के विषय में वेद में कहा है-
अग्निऋषि: पवमान: पाञ्चजन्य: पुरोहित:।
तमीमहे महागयम्॥ (ऋग्वेद 9,66,20)
अर्थात् अग्नि के समान अज्ञानान्धकार को दूर करने वाला ब्राह्मण तत्त्वदर्शी ज्ञानी सबको पवित्र करने वाला सब मनुष्यों का हितकारी सत्योपदेष्टा जन नेता है। ऐसे बड़े भारी विद्यादि ऐश्वर्य सम्पन्न ब्राह्मण को हम चाहते हैं।
ऐसे विद्वानों का कर्त्तव्य वेदों में यह बताया गया कि ‘केतु कृण्वन्नकेतवे‘ (ऋग्वेद1,6,3) जो ज्ञान रहित हैं उनको ज्ञान दें। विद्या का प्रचार करके अज्ञानान्धकार को दूर करें। इसीलिए उसे अग्नि के नाम से पुकारा गया है। इसके लिए ऋग्वेद 3,1,17 में कहा है कि-
आ देवानामभव: केतुरग्ने मन्द्रो विश्वानि काव्यानि विद्वान्॥
अर्थात् हे नेता ! तू मृदु स्वभाव वाला और सबको प्रसन्न करने वाला, सब वेदादि काव्यों को जानने वाला होकर सत्यनिष्ठ विद्वानों का भी ध्वज के समान उत्कृष्ट नायक होता है। इस प्रकार के अग्नि रूप ब्राह्मण स्वयं पवित्र व्रतों के धारण करने के कारण पवित्र और सबको ज्ञान, आनन्द और शान्ति से भरपूर करने वाले कवि होते हैं। इसी कारण वे सर्वत्र प्रकाशमान होते हैं। जैसे कि ऋग्वेद 8,44,21 में कहा गया है-
अग्नि: शुचिव्रततम: शुचिर्विप्र: शुचि: कवि:।
शुची रोचत आहुत:॥
ब्राह्मणों को स्वयं पूर्ण ज्ञानी और सर्वथा पवित्र बन कर लोकराज्य में विद्या-प्रचार, अविद्या, अपवित्रता, भ्रष्टाचार, दुराचार, दुर्व्यसनादि के निवारण में दिन-रात तत्पर होना चाहिए। उनकी संख्या जितनी अधिक होगी उतनी ही समाज और राष्ट्र की शीघ्र उन्नति होगी, इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं है। अत: ब्राह्मण पुरोहितों को सदा जागरूक रहकर अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए।
वेदों में क्षत्रियों के कर्त्तव्यों का ‘मरुत:‘ और इन्द्र के सूक्तों में प्रतिपादन किया गया है। ‘मरुत:‘ के लिए ‘पृश्निमातर:‘ यह विशेषण बहुत स्थानों पर है। इसका अर्थ भूमि और गौ को मानने वाले हैं। उनके लिए ‘समन्यव:‘ इस विशेषण का ऋग्वेद 2,3,4,32,34,6,8,20,1,21 इत्यादि में प्रयोग है। इसका अर्थ है कि अन्याय अत्याचार को दूर करने का उत्साह उनके अन्दर अवश्य होना चाहिए। उनकी वीरता और तेजस्विता का ये शुभ्रा घोरवर्पस: सुक्षत्रासो रिशादस: (ऋग्वेद 8,103,14), सत्वान: घोरवर्पस: (ऋग्वेद 1,64,2), स्थिरा चित् नमयिष्णव: (ऋग्वेद 8,20,1), अच्युता चित् ओजसा प्रच्यवयन्त: (ऋग्वेद 1,85,4), एषाम् अज्येषु भूमि: रेजते (ऋग्वेद 1,87,3), इत्यादि में प्रतिपादन है। इनमें उनको दुष्टों के लिए भयङ्कर, शत्रुओं की हिंसा का नाश करने वाले, अपने ओज से स्थिर और अच्युत समझे जाने वालों को भी हिला देने वाले, जिनके चलने पर भूमि काँपने लगे ‘अग्निश्रियो मरुत:‘ (ऋग्वेद 3,26,5) अग्नि की तरह तेज और शोभा सम्पन्न वीर कहा गया है। ‘मरुत‘ शब्द स्वयं बड़ा महत्वपूर्ण है। इसका वेदों में वीर सैनिकों के लिए प्रयोग है। उसका अर्थ जहाँ मितराविण: वा मितभाषी है, वहाँ राष्ट्र की रक्षा के लिए मरने-मारने को तैय्यार भी है। महद् द्रवन्तीति-बहुत दौड़ने वाले वीर पुरुषार्थी भी उसकी निरुक्ति यास्काचार्य ने की है। राष्ट्र की रक्षा के लिये क्षत्रियों को सदा तैयार रहना चाहिए और बड़े से बड़े त्याग के लिए प्रसन्नता से उद्यत होना चाहिये। ऐसे वीर क्षत्रियों के बिना भी कोई राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता और न अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकता है। वैश्यों के कर्त्तव्यों का वर्णन करते हुए अथर्व 3.15.4,5 में कहा है-
शुनं नो अस्तु प्रपणे विक्रयश्च प्रतिपण: फलिनं मा करोतु॥
येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमान:।
तन्मे भूयो भवतु मा कनीयोऽग्ने सातघ्नो देवान् हविषा निषेध॥
इन मन्त्रों में वैश्य के लिये यह विधान है कि वह व्यापार के द्वारा धर्मयुक्त साधनों से खूब धन कमाये तथा उसको समाज और राष्ट्र की रक्षा के कार्यों में लगाये।
रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्या: पापोस्ता अनीनशम्।
यह वैश्य के लिए वेदोक्त भावना है कि पुण्य-लक्ष्मी (धर्मोपार्जित लक्ष्मी) सदा उसके पास रहे। यदि भूल से भी छल-कपट द्वारा कोई धन उसके पास आया हो तो उसका नाश कर दिया जाये। कभी छल-कपट, भ्रष्टाचार और दुराचारादि द्वारा उसे धन नहीं कमाना चाहिए। किन्तु परिश्रमपूर्वक व्यापार, कृषि और गोपालनादि द्वारा धन कमाकर राष्ट्रोपयोगी कार्यों में लगाना चाहिए। उसे भी विद्वान् और शिल्पोद्योगादि विशेषज्ञ होना चाहिए।
इस प्रकार वेदों में लोकराज्य में जनता के कर्त्तव्यों का विस्तृत प्रतिपादन हैं। यहाँ तो लेख-विस्तार-भय से केवल दिग्दर्शन कराया गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि शब्दों का प्रयोग किसी जन्मसिद्ध जाति विशेष के लिए (जाति तो केवल मनुष्य जाति है) नहीं, गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्णों के लिए वेदों में किया गया है जैसा कि उनके अर्थ से भी स्पष्ट है। इन सब के अन्दर अपनी मातृभूमि और राष्ट्र के प्रति भक्ति भावना रहनी चाहिए जिसका वेद माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या: इत्यादि के द्वारा उपदेश करते हैं। मातृभूमि और राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राणों तक की बलि देने के लिए सबको तैयार रहना चाहिए जैसे कि वेद में-उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूता:।
दीर्घं न आयु: प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम॥
इत्यादि मन्त्रों में बताया गया है कि हे मातृभूमे! हम क्षयादि समस्त रोग रहित होकर तेरी सेवा में सदा उपस्थित रहें। हमारी दीर्घ आयु हो, हम ज्ञान सम्पन्न और कर्त्तव्यपालन करने में जागरूक रहें और आवश्यकता पड़ने पर तेरे लिए प्राणों की भी बलि देने को तैयार रहें। सबका परस्पर प्रेम और सहयोग होना आवश्यक है-
समानी व आकूति: समाना हृदयानि व:।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति॥ (ऋग्वेद 10.191.4)
यह ऋग्वेद का अन्तिम मन्त्र है। इसमें सब मनुष्यों को उपदेश है कि तुम सबके सङ्कल्प समान हों। तुम्हारे हृदय समान रूप से पवित्र और प्रेमयुक्त हों, तुम्हारे मन समान अर्थात् परस्पर मानयुक्त और मिले हुए हों, जिससे तुम्हारा हार्दिक सहयोग हो सके।
जहाँ इस प्रकार जनता अपने कर्त्तव्य का भली-भांति प्रेम और सहयोग पूर्वक पालन करती है, जहाँ जनता के सब प्रतिनिधि जागरूक रहकर राष्ट्र को सब प्रकार से उन्नत करने में तत्पर रहते हैं, वही लोकराज्य (गणतन्त्र) सबके लिए कल्याणकारी और उन्नत सिद्ध होता है। स्वामी धमार्र्नन्द विद्यामार्तण्ड (दिव्ययुग- जनवरी 2014)