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विश्‍व साहित्य की अनमोल निधि वेद (3)

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विश्‍वास और अविश्‍वास की आधार भूमि जब सत्य और झूठ हैं, तब यह स्वाभाविक सा प्रश्‍न आ जाता है कि सत्य क्या है और झूठ का स्वरूप क्या है? क्योंकि अनेक अवसरों पर यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि सत्य कौन सा है? और झूठ क्या है? ऐसी स्थिति में सत्य और झूठ की पहचान तथा लाभ बताते हुए कहा गया है कि समझदार व्यक्ति को मैं एक पते की बात बताता हूँ कि सच्चाई और झूठ एक-दूसरे को दबाने या छिपाने के लिए परस्पर स्पर्धा करते हैं, परस्पर एक-दूसरे को नीचा दिखाते हैं। पर उनमें से सत्य वह है, जो सरल व सीधा है तथा बनावट, भय, छल-कपट से रहित है। परन्तु झूठ कठिन, टेढा, अस्पष्ट, छल-कपट भरा और बनावट से युक्त होता है। इसीलिए कहते हैं कि एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। सोम = ईश्‍वर, प्राकृतिक नियम सत्य की रक्षा करते हैं तथा असत्य का नाश करते हैं। सोम का भाव सुख, शान्ति, सन्तोष और सार भी लिया जा सकता है। क्योंकि सत्य से ही सुख-शान्ति प्राप्त होती है और झूठ से दुःख, क्लेश, अशान्ति और कलह ही उत्पनन होते हैं। अर्थात् सत्य का सोम = सार, परिणाम, फल, सुख, शान्ति आदि सत्य की रक्षा करते हैं और झूठ के फल दुःख, क्लेश आदि अनृत से घृणा उत्पन्न कर उसका नाश कर देते हैं।

प्रत्येक मनुष्य यही चाहता है कि प्रत्येक मेरे साथ सत्य ही बोले और सत्य व्यवहार ही करे। सत्य की महिमा को ध्यान में रखकर प्रत्येक पन्थ में सत्य की प्रशंसा और समर्थन प्राप्त होता है। कोई भी दुनिया में ऐसा मत-पन्थ नहीं है, जो यह कहता हो कि सत्य न बोलो। हर एक समझता और कहता है कि सत्य सबसे अच्छी चीज है। सत्य बराबर तप नहीं। सत्य से बढकर कोई महान धर्म = कर्त्तव्य, नियम, विचार, पुण्य नहीं है। इसीलिए ही कहते हैं कि सत्य ईश्‍वर है और ईश्‍वर सत्य है अर्थात् ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू है। और झूठ से बढकर कोई पाप या बुरा काम नहीं है। ऐसी स्थिति में मन में एक स्वाभाविक सा प्रश्‍न उभरता है कि सत्य की सिद्धि का मार्ग अथवा प्रक्रिया क्या है, जिससे सत्य तक पहुँचा जा सके या सत्य को प्राप्त किया जा सके। मानव की इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए वेद ने कहा है- व्रत = नियमों के पालन से दीक्षा = स्वीकारना जिससे व्यक्ति में योग्यता, पात्रता तथा निपुणता आती है। योग्यता से कार्य की सिद्धि होने पर दक्षिणा=समृद्धि, ऐश्‍वयृ, यश, उत्साह, धन मिलता है। दक्षिणा से श्रद्धा, सत्य का धारण, विश्‍वास बढता है। सत्य के धारण से सत्य की संसिद्धि प्राप्त होती है। तब यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्य यही ही है।

आज संसार में बच्चे से लेकर वृद्ध तक हर क्षेत्र का सदस्य अपने जीवन के हर कदम पर सफलता की प्राप्ति के लिए अपनी शक्ति के अनुसार हर सम्भव प्रयास करता है। आज संसार की गति, चहल-पहल का यही मूल है। वस्तुतः जहाँ विकास है, वहीं जीवन है। अर्थात् विकास का ही दूसरा नाम जीवन है। वेद ने विकास के मूलमन्त्र को दर्शाते हुए कहा है कि विकास उन्हीं के ही चरण चुम्बन करता है, जो जीवन के जिस भी क्षेत्र में सफलता, विकास चाहते हैं, वहाँ वेद के इस सन्देश की ओर ध्यान देते हैं। सत्य= मन, वाणी और कर्म की एकता, छल-कपट के अभाव, ईमानदारी। बृहत्=हृदय की उदारता, विशालता अर्थात् जिनके दिल में अपने-परये का पक्षपात नहीं होता, सहिष्णुता। ऋत = नियम, व्यवस्था, मर्यादा के प्रति लगाव, अनुराग, अनुरक्ति होती है और उसका सदा बिना आगा-पीछा देखे पालन करते हैं। उग्र = दृढता, कठोरता, न्याय, संयम, अनुशासन पालन की भावना, दण्ड के प्रति सजगता। दीक्षा = योग्यता, पात्रता, गुणग्रहण की भावना को स्वीकारना। तप = कष्ट सहन की भावना, शक्ति। ब्रह्म = ज्ञान, विद्या, शिक्षा के प्रति अनुरक्ति। यज्ञ = श्रेष्ठतम कर्म, पर-उपकार की भावना। ये सारे गुण की विकास, फैलाव, सफलता को धारण करते हैं अर्थात् इन्हीं गुणों से पृथिवी पर रहने वाले प्राणियों विशेषतः बुद्धिजीवी मानव समाज का रक्षण, वर्धन, पालन और व्यवस्थीकरण होता है। सत्य आदि गुणों से धारित पृथिवी (विस्तृति) ही हमारे भूत = अतीत, भव्य = वर्तमान तथा भविष्य की रक्षिका है। यही हमारे लोक = जीवन, परिवार, समाज, कार्य, अभिलषित पदार्थ को विस्तृत करती है। अर्थात् इन सत्य, बृहत् आदि गुणों में हर किसी की रक्षा, वृद्धि, सफलता कीर्ति छिपी है। हमारे कार्य, जीवन, समाज, संसार को विकासशील, सुन्दर, स्पृहणीय, प्रियतम बनाने का एकमात्र आधार (उपाय) ये गुण ही है।

यह सर्वसम्मत विचार है कि मेल-मिलाप में ही सुख-शान्ति और आनन्द है। संगठन से ही कोई समाज, राष्ट्र उन्नति करता है तथा जीवित रहता है। अतएव कहते हैं कि आज कलि = कला, मशीन, शोर और युद्ध के युग में संघ में शक्ति = विजय, सफलता निहित है। आज वैसे भी प्रजातन्त्र का युग है, वोट का जमाना है। मतदान एक वरदान है। अतः जिनका संघ है, उन्हीं का शासन और उन्हीं की तूती बोलती है। जो संगठन जितना अधिक सुदृढ, सुगठित, व्यवस्थित होता है, वह उतनी ही अधिक सफलता, विजय, श्री, शोभा को प्राप्त होता है तथा चिरस्थायी होता है। अतः स्वाभाविक रूपेण जिज्ञासा होती है कि कोई संगठन कब, कैसे चिरस्थायी, सुदृढ, सुगठित, व्यवस्थित और सफल होता है। इसका स्वारस्य संगठन सूक्त में बताते हुए वेद ने कहा-
प्रेम से मिलकर चलो, बोलो सभी ज्ञानी बनो।
पूर्वजों की भांति तुम कर्त्तव्य के मानी बनो॥
हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों।
ज्ञान देता हूँ बराबर, भोग्य पा सब नेक हों॥
हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा।
मन भरे हों प्रेम से, जिससे बढे सुख-सम्पदा॥
अर्थात् समाज का प्रत्येक घटक जब समाज के स्वर में अपना स्वर मिलाता है और जब-सबके मन में समाज के हित में मेरा भी हित है कि भावना होती है। जिस समाज में बिना भेदभाव के सबके जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति और उन्नति के लिए समान अवसर मिलता है, वही समाज वास्तविक समाज है। वस्तुतः कोई समाज, संगठन तभी उन्नति को प्राप्त होता है, जब सबकी आवाज एक हो अर्थात् सब एक ही बोली बोलें और सबकी आवाज एक तभी होती है, जब विचार समान हों।

आज संसार का एक बहुत बड़ा भाग अशान्त और दुःखी है, जिसके अनेककरण हैं। परन्तु इसका सबसे बड़ा कारण है- भ्रष्टाचार। वह कहीं भाई-भतीजावाद के रूप में हैं तो कहीं मिलावट, चोरबाजारी, घूसखोरी की शकल में है। एक तरफ युद्धों की विभीषिका है, तो दूसरी तरफ लोभ के विविध रूप हैं। अथवा अपने-अपने मत-पन्थ, सम्प्रदाय के गुण गाकर कोई सबको येन-केन प्रकारेण ईसाई बनाने पर तुला है। तो कोई कहता है, मुसलमान बनो। अन्य की प्रेरणा है, बुद्ध या महावीर की शरण लो। सभी अपने-अपने मत-पन्थ की निशानियों को धारण करने, अपने-अपने व्रत-तीर्थ के पालन करने, अपने-अपने पन्थ के ग्रन्थ के पढने-सुनने में ही जीवन की सफलता अनुभव करते हैं। केवल अपने-अपने मत-पन्थ वालों को ही अच्छा व मुक्ति का पात्र मानते हैं। ऐसे ही कोई समाजवाद के गीत गाकर सबको इस ओर खींचना चाहता है, तो कोई पूंजीवाद या साम्यवाद का नारा देता है।

इस प्रकार विविध वर्गों में बंटता हुआ संसार आए दिन वर्ग संघर्ष का अखाड़ा बनकर अशान्ति को जन्म दे रहा है। इसी का ही परिणाम है कि अपने-अपने वाद की खींचातानी से मानव मानव से दूर होता जा रहा है या कई बार मानव भेड़िये का रूप धारण कर एक-दूसरे के खून का प्यासा बन जाता है। ये भ्रष्ट-आचरण के अनेक रूप तथा वर्ग संघर्ष, घृणा की प्रवृत्तियाँ तथा पन्थ परिवर्तन (धर्म परिवर्तन) आदि की वर्गीय भावनायें तभी उत्पन्न होती हैं, जब वह मानवपन को छोड़ देता है। अपने मानवपन को याद रखने या दूसरों को भी अपने जैसा मानव पर कौन किससे किसलिए विविध भ्रष्टाचार या वर्गीय घृणा करेगा। वह तो मानव-मानव में अपनापन अनुभव कर सहानुभूति से भरकर एक रूप हो जाएगा। अपने से भिन्न या दूसरा अनुभव करके ही व्यक्ति भ्रष्ट-आचरण या वर्गीय घृणा के मार्ग को अपनाता है। अतः वेद में भेदभाव और भ्रष्ट आचरण वाली अन्य प्रवृत्तियों को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए कहा गया है। यदि अपने जीवन, परिवार समाज और विश्‍व को दिव्य, सुखी, शान्त, प्रगतिशील और सुन्दर देखना चाहते हो, तो मानव बनो तथा एतदर्थ सत्कर्मों का तानाबाना बुनते हुए सूर्य के सामान अपने वृत्त = व्रत व नियमों का पालन करो और विवेकशीलों के मार्ग का बुद्धिपूर्वक संरक्षण और संवर्धन करो न कि अन्धानुकरण तथा प्रशंसनीयों = जग के हिताभिलाषियों के समान उलझन रहित कर्म करो।

मानव का भाव है- विवेक, सहानुभूति, सहिष्णुता, समभाव, सहयोग, सच्चरित्र, प्रेम, न्याय, सत्य, अहिंसा, उदारता, सहृदयता, आत्मीयता आदि गुण युक्त होना। तभी तो कहा है-
यही है इबादत, यही है दीनो ईमां।
कि इन्सां के काम आए इन्सां॥
कि काम आए दुनिया में इन्सां के इन्सां।
इन्सान से इन्सान का हो भाई-चारा॥
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वेद में जहाँ आध्यात्मिक तत्त्वों का गूढ विवेचन है, वहाँ रोजमर्रा के जीवन सम्बन्धी लौकिक तत्त्वों का भी बड़ी सरलता से प्रतिपादन किया गया है। वेद लौकिक तथा पारलौकिक जीवन के विकास को समान महत्व देते हुए मानव धर्म के सर्वांगीण तत्वों का चित्रण प्रस्तुत करता है। दोनों जीवनों में सामञ्जस्य रखते हुए किसी की भी उपेक्षा नहीं करता, अपितु धन के प्रति भी बड़ी सुन्दर युक्तियुक्त भावना देता है।
वेद एकांगी दृष्टिकोण से धन की निन्दा नहीं करता है। वेद ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- हम धन- ऐश्‍वर्य के स्वामी हों और सबका धारक व पोषक प्रभु हमें प्रकृष्ट, जीवनोंपयोगी, नाशरहित अर्थात चिरकाल स्थायी धन से युक्त करे। और वह धन हम अपने शुद्ध परिश्रम से प्राप्त करें अर्थात् माया को माया ही नहीं, अपितु मेहनत भी धन को सूझ-बूझ के साथ खींचती है। अग्नि = परिश्रम से ही धन कमाओ, जो दिन-प्रतिदिन पुष्ट हो या पुष्टि का कारण बने और यश = कीर्ति, तेज तथा वीरवत्तम = शक्ति, बल, युक्त हो न कि क्षीणता, बदनामी और दुर्बलता का कारण हो। अतः परिश्रम, पुरुषार्थ से ही हर प्राप्ति की चाहना करनी चाहिए, क्योंकि पुरुषार्थ ही सब सिद्धियों का मूल है।
पुरुषार्थ ही इस दुनिया में सब कामना पूरी करता है।
मन चाहा सुख उसने पाया, जो आलसी बन के पड़ा न रहा॥

अतः विश्‍व साहित्य की अनमोल निधि वेद सर्वथा जीवनोपयोगी तथा अनूठी शिक्षाओं का अक्षय कोश और विवेकशीलों का प्रियतम चक्षु है। अतः -
सब वेद पढें, सुविचार बढें, बल पाय चढें, नित ऊपर को।
अविरुद्ध रहें, ऋजु पन्थ गहें, परिवार कहें वसुधा भर को॥
ध्रुव धर्म धरें, पर दुःख हरें, तन त्याग करें भवसागर को।
दिन फेर पिता, वर दे सविता हम आर्य करें निज जीवन को॥
वेद और विज्ञान- वेद शब्द विद् धातु से करण, अधिकरण में घञ्, प्रत्यय होने पर निष्पनन होता है जो कि ज्ञान, विचार, लाभ, सत्ता अर्थ में है। वेद शब्द ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेद और अथर्ववेद में समाए धर्म तथा सब सत्य विद्यामय ज्ञान के लिए परिभाषित हुआ है। इनमें बीस हजार तीन सौ से अधिक मन्त्र गायत्री आदि सात छन्दों में हैं। वेद ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपांग, अनुक्रमणी, दर्शन, स्मृति, पुराण, उपपुराण, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद तथा लौकिक संस्कृत भाषा के गद्य-पद्यमय काव्यों और आधुनिक भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के शतशः ग्रन्थों के मूल स्रोत हैं। इतना ही नहीं, अपितु बृहद् विमान शास्त्र जैसे शिल्पविद्या के आकर ग्रन्थ भी वेदों को अपना मूल मानते हैं।

वेद ने स्वयं ही अनेक स्थलों पर अपने रचना प्रकार, स्वरूप, प्रभाव पर प्रकाश डाला है। इस दृष्टि से प्रस्तुत मन्त्र विशेष विवेचनीय हैं-
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥ यजुर्वेद 31.7, ऋग्वेद 10.90.9 ॥
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामघेयं दधानाः।

यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥ ऋग्वेद 10.71.1॥
यज्ञेन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दन्नृषिशु प्रविष्टाम्।
तामाभृत्या व्यदधुःपुरुत्रा तां सप्त रेमा अभि सं नवन्ते॥ ऋग्वेद 10.71.3॥
परीत्य भूतानि...। उपस्थाय प्रथमजामृतस्य॥ यजुर्वेद 32.11 ॥
अपूर्वेणेषिता वाचस्ता वदन्ति यथायथम्।
वदन्तीर्यत्र गच्छन्ति तदाहुब्राह्मणं महत्॥ अथर्ववेद 10.8.33 ॥
अपक्रामन् पौरुषेयाद् वृणानो दैव्यं वचः।
प्रणीतीरभ्यावर्तस्व विश्‍वेभिः सखिभिः सह॥ अथर्ववेद 7.105.1 ॥
इन मन्त्रों का मूल अभिप्राय यही है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों के माध्यम से ऋत के प्रतिपादक वेद प्रकाश में आए । यह ऐसा अपूर्व ज्ञान है, जो जीवन के निःश्रेयस तथा अभ्युदय की भरपूर चर्चा करता है।
प्रस्तुत वक्तव्य का दूसरा विशेष पद है- विज्ञान। इसका स्वरूप दर्शाते हुए वेद ने संकेत किया है-
सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
तयोर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित् सोमोऽवति हन्त्यासत्॥ ऋग्वेद 7.104.12॥
दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्सत्यानृते प्रजापतिः।
अश्रद्धामनृतेऽदधाच्छ्रद्धां सत्ये प्रजापतिः॥ यजुर्वेद 19.77 ॥
सत्यस्य ..... अक्षिभुवो यथा ॥ यजुर्वेद 23.29 ॥
स पर्यगात्..... याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात्..... ॥ यजुर्वेद 40.8 ॥
अपूर्वेणेषिता वाचस्ता वदन्ति यथायथम्॥ अथर्ववेद 10.8.33 ॥
येन देवा न वियन्ति न विद्विषते मिथः।
तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः॥ अथर्ववेद 3.30.4 ॥
इन मन्त्रों का निष्कर्ष यही है कि बुद्धिमान मनुष्य को यह विज्ञान, सत्य दिया गया है जो परिपाक, कार्य की प्रक्रिया को सरलता से सामने लाता है। अतः ऐसे सत्य से अपने आपको अनुरक्त करो। यह पूर्णतः यथा को तथा प्रतिपादित करता है। क्योंकि यह उसी का ज्ञान है, जिसने सृष्टि सजाई है। वेद से जहाँ पारस्परिक सद्भाव समृद्ध होता है, वहाँ सारे साध्य भी सिद्ध होते हैं।
वेद की वर्णन शैली- अपनी वर्णन शैली को स्वयं दर्शाते हुए वेद ने कहा है-
प्र नूनं ब्रह्मणस्पति मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्।
यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे॥ (ऋग्वेद- 1.40.5 ॥)
अर्थात् अग्नि, इन्द्र आदि शब्दों को केन्द्र बनाकर यहाँ वर्णन किया गया है। वेद का प्रत्येक पाठक भी यही अनुभव करता है कि यहाँ अग्नि, इन्द्र आदि को केन्द्र बिन्दु बनाकर वर्णन चलता है। वेदार्थ की परम्परा में अग्नि आदि को देवता कहते हैं। इनकी परिगणना करते हुए कहा है-
अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्रा देवताऽऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्‍वेदेवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता॥ यजुर्वेद 14.20 ॥
अग्निरिन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा वायुः पूषा सरस्वती सजोषसः।
आदित्या विष्णुर्मरुतः स्वर्बृहत् सोमो रुद्रो अदिति ब्रह्मणस्पतिः॥ (ऋग्वेद 10.65.1)
वेद प्रत्येक वर्ण्य को देवता के रूप में सम्बोधित करते हुए उसके गुण और कार्यों का वर्णन करता है।

काव्यात्मक रूप- निःसन्देह वैशेषिक दर्शन में वेद के काव्यात्मक रूप के लिए कहा गया है कि- बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे (6.1.1) अर्थात् वेद की वाक्य योजना तदन्तर्गत भावव्यञ्जना बुद्धिसम्मत है। हाँ, यह कसौटी साधना सर्वत्र श्रमसाध्य तथा कहीं दुष्कर भी है। अतः अध्याहार, व्यत्यय (विभक्ति, वचन, लिङ्ग, क्रिया) आदि का आश्रय लेना पड़ता है। अतएव वेदभाष्यकारों, चिन्तकों में अनेक दृष्टियों से अनेक प्रकार के मतभेद मिलते हैं।

वेद के काव्यात्मक होने से उसमें विविध स्तर की वाक्य रचना होना एक स्वाभाविक तथ्य है। वाक्य योजना स्वतः अनेकधा छन्दानुरूप ही होती है। तब भावबोध भी तदनुरूप ग्राह्य हो जाता है।

वेदार्थ की कुञ्जी- वेद के बीस हजार से अधिक मन्त्रों वाला होने से जहाँ उसमें प्रसंगानुरूप उपविषयों का होना स्वाभाविक है, वहाँ मुख्य विषय स्वतः विवेच्रू हो जाता है। अतः वेद में यत्र-तत्र-सर्वत्र आए अग्नि, इन्द्र आदि कहाँ किस-किस के वाचक हैं, यह प्रशन प्रायः यदा-कदा उभरता रहता है। इसकी कुञ्जी देते हुए महर्षि दयानन्द ने अपने महान ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में निर्दिष्ट किया है-
इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ-जहाँ स्तुति, प्रार्थना, उपासना, व्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्ता आदि विशेषण लिखे हैं, वहाँ-वहाँ इन नामों से परमेश्‍वर का ग्रहण होता है। और जहाँ-जहाँ ऐसे प्रकरण हैं कि ततो विराडजायत विराजो अधिपूरुषः (यजुर्वेद- 31.5) ऐसे प्रमाणों में विराट्, पुरुष, देव, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि आदि नाम लौकिक पदार्थों के होते हैं। क्योंकि जहाँ-जहाँ उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, अल्पज्ञ, जड़, दृश्य आदि विशेषण भी लिखे हों, वहाँ-वहाँ परमेश्‍वर का ग्रहण नहीं होता। वह उत्पत्ति आदि व्यवहारों से पृथक है और उपरोक्त मन्त्रों में उत्पत्त्ति आदि व्यवहार हैं। इसी से यहाँ विराट् आदि नामों से परमात्मा का ग्रहण न हो के संसारी पदार्थों का ग्रहण होता है। और जहाँ-जहाँ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख और अल्पज्ञ आदि विशेषण हों, वहाँ-वहाँ जीव का ग्रहण होता है।
सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास

इस प्रकार वेदों को समझने-समझाने के लिए महर्षि ने यहाँ तीन कसौटियाँ प्रथम समुल्लास के प्रारम्भ में दी हैं। इनसे स्पष्ट हो जाता है कि अग्नि, इन्द्र आदि नाम कहाँ किसके वाचक हैं? ये अग्नि, इन्द्र आदि देवता पद जिस-जिस आधार पर परमेश्‍वर के लिए प्रयुक्त हुए हैं, इसका भी विश्‍लेषण युक्ति-प्रमाणपूर्वक यहाँ किया है। इसीलिए वहाँ लिखा है- अब जिस प्रकार विरोट् आदि नामों से परमेश्‍वर का ग्रहण होता है, वह प्रकार नीचे लिखे प्रमाणे जानो।

विज्ञान और प्रार्थना- वेद को जब हम विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं, तब सबसे अधिक वेद की प्रार्थना शैली विचारणीय बन जाती है। यतो हि वेद में स्तुति के साथ प्रार्थनाओं का प्रचुर प्रयोग है। निःसन्देह प्रार्थना प्रेरणा के माध्यम से अपने इष्टदेव के प्रति विश्‍वास दर्शाती है, जिसका मानसिक स्तर पर प्रभाव मान्य है। हाँ, प्रार्थना मात्र से मनोवांछित फल पाने की भावना अवश्य चिन्तनीय हो जाती है। क्योंकि विज्ञान क्रियात्मक प्रयोग है।

यज्ञ विज्ञान- वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः (वेदांग ज्योतिष), दुदोह यज्ञ सिध्यर्थमृग्यजुः साम लक्षणम् (मनुस्मृति 1.23) आदि वचनों में निर्दिष्ट है कि वेदों में सबसे अधिक यज्ञ (परोपकार, श्रेष्टतम कर्म, शिल्प विद्या आदि) का वर्णन प्राप्त होता है। तभी तो वहाँ यज् धातु के नाम तथा क्रियापद सहस्रशः हैं। अग्निहोत्र से लेकर अश्‍वमेध पर्यन्त हवि-पाक-सोम यागों के नाम तथा तद्गत प्रक्रिया का प्रतिपादन यहाँ प्राप्त होता है। अनेक मन्त्रों में यज्ञ तथा देव का संयुक्त वर्णन भी प्राप्त होता है। महर्षि दयानन्द द्वारा विवेचित जल-वायु शोधक, प्रदूषण निवारक यज्ञ का वर्णन भी पर्याप्त रूप में उपलब्ध है। वेद में सृष्टि प्रक्रिया संसृष्ट, जीवन-मनसा सम्बद्ध तथा अध्यात्म रूप में भी यज्ञ का वर्णन प्राप्त होता है। यजुर्वेद के 18 वें अध्याय के 1 से 29 तक के मन्त्रों में सर्वत्र अन्त में यज्ञेन कल्पन्ताम् की अनुवृत्ति है। वहाँ किसी मन्त्र में गणितीय अंकों की, कहीं पशुओं, अन्नों और कहीं धातुओं आदि की चर्चा है, जो यज्ञ को उस-उस क्षेत्र के विशेष ज्ञान के माध्यम से सार्थक साधन सिद्ध करती है।

अधिदैविक विज्ञान- निरुक्तकार ने अपनी व्याख्या में अग्नि आदि देवता पदों को प्राकृतिक पदार्थों का परिचायक प्रतिपादित किया है।34
राजनीति विज्ञान- वेद मन्त्रों में स्पष्ट रूप से राजा, मन्त्री, सेना, समिति, सभा, युद्ध, अस्त्र-शस्त्र जैसे शब्द हैं। अनेकत्र राजनीति= प्रशासन सम्बद्ध विषयों का वर्णन आया है। दृष्टान्त रूप में भी इनका संकेत मिलता है। अनेक भाष्यकारों ने अनेक मन्त्रों की राजनीति परक व्याख्या की है। आचार्य प्रियव्रत जी की ‘वेदों के राजनीतिक सिद्धान्त‘ नाम से तीन भागों में एक रचना है, जिसमें वेदमन्त्रों द्वारा इन्द्र, विष्णु आदि की भारतीय राजनीति के अनुरूप राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री से संगति दर्शाई गई है।
अध्यात्म विज्ञान - वेदों के शतशः मन्त्रों में परमात्मा, जीवात्मा का स्वरूप, प्रभु भक्ति का जहाँ स्पष्ट चित्रण है, वहाँ जीवात्मा से सम्बद्ध अन्तःकरण, बाह्यकरण, शरीर आदि की भी विस्तृत विवेचना मिलती है।
आयुर्वेद- आयु शब्द जीवन अर्थ में भी है। जीवन आत्मा-अन्तःकरण-शरीर के सम्बन्ध से समारम्भ होता है। अतः शरीर-प्राण-चिकित्सा आदि इसके विभाग-उपविभाग हैं। अष्टांग रूप में प्राचीन काल से ही आयुर्वेद प्रचलित है। इन सभी का वेदमन्त्रों में स्पष्ट वर्णन है। आयुर्वेद के नाम से एक उपवेद की जहाँ चर्चा चलती है, वहाँ इस सम्बन्ध में पर्याप्त साहित्य भी प्राप्य है। वेद और आयुर्वेद के सम्बन्ध पर अनेक रचनायें भी प्रकाशित हो चुकी हैं।

अन्य विज्ञान- कृषिशास्त्र, पशुपालन, अर्थशास्त्र आदि अन्य विषयों से सम्बद्ध वेदमन्त्र शतशः प्राप्य हैं। इनसे सम्बद्ध रचनायें भी दृष्टिगोचर होती हैं।

विशेष- वेद विषयक इन विवेचनाओं के साथ इस वक्तव्य का मुख्य मूलमन्तव्य है, वेद प्रेमियों का ध्यान उन शतशः मन्त्रांशों की ओर आकर्षित करना, जो दृष्टान्त रूप में न, इव, यथा जैसे निपातों के साथ उपमार्थक रूप में व्यवहत हुए हैं, जिनमें प्राकृतिक सत्यों व तथ्यों को उजागर किया गया है।

न्यायदर्शनकार महर्षि गौतम ने दृष्टान्त की परिभाषा देते हुए कहा है- लौकिक परीक्षकानां यत्र बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः (1.1.25)। अर्थात दृष्टान्त सर्वसम्मत सिद्धान्त होता है। इस प्रकार के शतशः दृष्टान्त वेदों में विवेचित हुए हैं, जो ऐसे वैज्ञानिक तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में खींचतान का दोष आरोपित नहीं किया जा सकता। जैसे- स नः पितेव सूनवे और पिता पुत्रेभ्यो यथा आदि उदाहरण स्पष्ट हैं।

सन्दर्भ-

13. आर्य ईश्‍वरपुत्रः ॥ निरुक्त - 6.26॥
14. ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः। तेषां श्रीर्मयि कल्पतामस्मिँल्लोके शतं समाः॥ यजुर्वेद 19.46 ॥
15. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ॥ यजुर्वेद 40.2 ॥
16. तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतम् जीवेम शरदः शतं श्रणुयाम शरदः शतं भूयश्‍च शरदः शतात्॥ यजुर्वेद 36.24 ॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि॥ यजुर्वेद 25.21 ॥ अरिष्टिं तनूनाम्॥ ऋग्वेद 2.21.6 ॥
17. जीवातवे कृतः॥ ऋग्वेद - 10.176.4 स नो जीवातवे कृधि ॥ ऋग्वेद - 10.186.20 ॥
18. त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्। यद् देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम्॥ यजुर्वेद - 3. 62 ॥
20. योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥ अर्थववेद- 2.27 ॥
21. देवा द्वेषो अस्मद्युयोतन ॥ ऋग्वेद - 10.63.12 ॥
22. सक्तुमिव तितउना पुनन्तो, यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते, भद्वैषां लक्ष्मीर्निहिताधिवापि॥ ऋग्वेद - 10.71.12 ॥

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | सफलता का विज्ञान | वेद कथा - 96 | यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या | Explanation of Vedas | Motivational Ved Pravachan