यदि वेद की दृष्टि में आर्य और दस्यु जातिवाचक शब्द होते तो जाति, वर्ण = रंग किसी भी स्थिति में बदल नहीं सकते । आज भी रंग तथा शरीर की आकृति विशेष से इनका भेद माना जाता है। परन्तु ऐसी स्थिति में आर्य बनाने का विधान व्यर्थ सिद्ध होता है। अतः गुणवाचक मानने पर ही इस मन्त्र के अर्थ की संगति लग सकती है अर्थात् सभी मानव एक से हैं । उनमें जो दूषित स्वभाव और व्यवहार युक्त हैं, उन्हीं को श्रेष्ठ बनाने का विधान है। अतएव महर्षि यास्क ने निरुक्त13 में आर्य का अर्थ ईश्वरपुत्र किया है। पिता की परम्परा, विरासत, आज्ञा को सम्भालने वाला ही पुत्र कहलाता है।
इस प्रकार जहाँ-जहाँ विशेषण सहित आर्य और दस्यु का वर्णन है, उन-उन स्थलों की भावना के अनुसार ही अन्य स्थलों पर जहाँ-जहाँ विशेषणों के बिना आर्य और दस्यु शब्द का वर्णन हुआ है, वहाँ-वहाँ पूर्व भावना के अनुरूप ही अर्थ की संगति लगानी चाहिए। जैसे कि इन्द्र या अग्नि दस्युओं को मारता है, आर्यों की रक्षा करता है और उनको विशेष ज्योति देता है आदि पक्षपात रूप में दृश्यमान भावनाओं की संगति लगानी चाहिए। यह एक स्वाभाविक बात है कि प्रत्येक उत्तम राजा अपनी प्रजा में से संविधान के पालकों का ही उत्साह वर्धन करता है और नियमों का उल्लंघन करने वाले सदा दण्ड के ही अधिकारी होते हैं। इसी अच्छे-बुरेपन की भावना के अनुसार ही रामायण में रावण को अनार्य और उसके भाई विभीषण को आर्य कहा गया है। महाभारत (उद्योग पर्व) में सद्गुणयुक्त व्यक्ति की ही आर्य संज्ञा दी गई है। सभी संस्कृत नाटकों में नायक, सूत्रधार, बड़े भाई, पति और श्रेष्ठ व्यक्ति को आर्य शब्द से पुकारा गया है। यह वर्णन भी आर्य शब्द को गुणवाचक सिद्ध करता है।
वेद का प्रादुर्भाव- भारतीय मनीषियों की यह मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में सब मानवों के कल्याण के लिए ईश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नामधारी ऋषियों के शुद्ध अन्तःकरण में क्रमशः ऋग्-यजु-साम-अथर्ववेद का प्रकाश किया, जो कि सत्य विद्याओं के मूल होने से मानव जीवन की सफलता के लिए अपेक्षित सर्वविध क्षेत्रों के ज्ञान के निधान हैं। वेदों की भाषा देववाणी अर्थात् वैदिक संस्कृत है, जो कि लौकिक संस्कृत से अनेक दृष्टियों से भिन्न है। समय-समय पर वेदों के भाव प्रकाशन, स्वरूप ज्ञान और संरक्षण के लिए शाखा, ब्राह्मण, उपनिषद्, वेदांग, उपांग, प्रातिशाख्य, अनुक्रमणी और पद आदि पाठ ग्रन्थों की रचना हुई। आज भी मानवता संवर्धन और सुख-शान्ति की प्राप्ति के लिए वेदों की अनूठी शिक्षायें अपना विशेष आकर्षण रखती हैं। वेद की दृष्टि में सब मानव मानवता के नाते समान है14 और ये समान रूप से सबके लिए जीवन की सफलतार्थ सत्पथ के प्रदर्शक हैं।
वेद की अनूठी शिक्षाएं- उन्नीसवीं शताब्दी में विद्या और ज्ञान के प्रकाश के साथ वेदों का क्षेत्र महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से पुनः विस्तृत हुआ। पुनरपि कुछ विशेष कारणों से वेद को गडरियों के गीत तक भी कहा गया अर्थात् वेद आदि मानव की शैशवकाल की शैशवमयी रचना है। यह एक बहुत बड़ा झूठ है। क्योंकि वेद का कम से कम चतुर्थ भाग तो सरल, स्पष्ट, भाषा में है, जो थोड़े से परिश्रम से समझा जा सकता है। एक सामान्य संस्कृत पढा हुआ भी वेद के अध्ययन के बाद सरलता से कह सकता है कि वेद में जीवन के उच्च आदर्शों और सत्य बातों का प्रतिपादन है। स्थाली पुलाक न्याय से कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जिससे हम स्वयं यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वेद में जीवन के विविध क्षेत्रों के सम्बन्ध में कितनी उच्च तथा यथार्थ शिक्षा दी गई है!
यह सर्वसम्मत सत्य है कि जिस संसार में हम रहते हैं, वह कार्य होने से अनित्य है। परन्तु वेद उसके अनित्य होने से झूठा होने की भावना में बहाकर या जीवन को दुःखों का घर अथवा इसके सम्बन्ध में अवास्तविक वैराग्य के नक्शे दिखाकर इस संसार और जीवन के प्रति निराशा की भावना नहीं देता, अपितु उत्साह और आशा का संचार करते हुए इस संसार और जीवन को सफल तथा समुन्नत बनाने की भावनायें वेद भरता है।
आशामय स्पृहणीय जीवन के स्वरूप को प्रदर्शित करते हुए ही कहा गया है- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः (यजुर्वेद 40.1)। अर्थात सावधानी से जीवन को जीओ और कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करो। वह सौ वर्ष का जीवन रोगियों जैसा अधूरा, दुःखभरा, परवश, पराश्रयी, घृणामय न हो। अपितु आँखों से देखते हुए, कानों से सुनते हुए, वाणी से उच्चारण और आस्वादन करते हुए सौ वर्ष ही नहीं, अपितु इससे भी अधिक स्वस्थ, सशक्त, सर्वांगपूर्ण शरीर से जीवन का रस लो। उदीनता के वातावरण में स्वच्छ, स्वस्थ, स्वाधीन श्वास लेते हुए सर्वविध विकासों से विकसित होकर संसार में जीवन व्यतीत करो। अन्यथा रोगयुक्त, अशान्त और दुखी जीवन का क्या लाभ? वेद बार-बार कहता है कि यह जगत और इसकी व्यवस्थाएं सुखद जीवन के लिए हैं, न कि निराश, उदास होकर इससे भागने के लिए। यह जीवन झूठा, दुःखमय, झंझटभरा और परित्याज्य नहीं है। यह तो सुखमय जीने के लिए है। हे प्रभो ! हमें जीवन दो, जमदग्नि और काश्यपीय भावयुक्त तीन सौ वर्ष की आयु वाला करो आदि शब्दों से वेद में प्रार्थनाएं की गई हैं। वेद जीवन को सत्य, शिव और सुन्दर बनाने का पथ दर्शाता है तथा दीर्घ आयु प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन शान्तियुक्त, विकासशील और सुरक्षित रूप में व्यतीत करना चाहता है। यह तभी सम्भव है, जब राज्य और समाज की व्यवस्था उचित, स्थिर, सुदृढ और विकासयोग्य हो। इनकी व्यवस्था के ठीक होने से ही सबका जीवन सुरक्षित तथा शान्तिमय हो सकता है। ऐसा होने पर ही किसी क्षेत्र में विकास की आशा की जा सकती है। आज प्रजातन्त्र का युग है। हम स्वयं अपने शासक व राज्य व्यवस्थापक हैं। क्योंकि प्रजा द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही राज्य व्यवस्था के प्रति उत्तरदायी, संविधान निर्माता और व्यवस्था के व्यवस्थापक होते हैं। आज हमें अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अवसर अनेक बार प्राप्त होता हैं। निर्वाचर के अवसर पर हमारे सामने एक गम्भर समस्या आती है और हम दुविधा में पड जाते हैं कि अपना अनमोल मत किस प्रत्याशी को दें।
वेद ने प्रतिनिधि निर्वाचन के उद्देशय को सामने रखकर हमारी दुविधा का हल बडे सरल और संक्षिप्त शब्दों में दिया है कि- मा वः स्तेन ईशत मा अघशंसः (यजुर्वेद-1.1)। अर्थात् हे मतदाताओ! तुम्हारा प्रतिनिधि (शासक, व्यवस्थापक) स्तेन = चोर और पाप का प्रशंसक, अनुमोदक न हो। समाज के नियमों का उल्लंघन कर दिन या रात को दूसरों के स्वत्व= अधिकार, पदार्थ को ग्रहण करना चोरी है। अर्थात समाज व राष्ट्र के नियमों का उल्लंघन करने वाला स्तेन कहलाता है। नियमों का उल्लंघन ही पाप हैं। जो पाप करता है या पाप करने वालों का समर्थक है, उनका किसी प्रकार से समर्थन करता है, अनुमोदन कर उत्साह बढाता है या उनको आश्रय देता है, छिपाता है, रक्षा करता है या उनका पक्ष लेता है, वह अघंशसी है। ऐसे को शासकत्व देने का अभिप्राय होगा कि भक्षक व शोषक बनकर स्वयं या दूसरों द्वारा प्रजा का खून चूसकर अव्यवस्था, अराजकता को जन्म दे। अतः जो विधान और नियमों के प्रति सच्चा हो, जो नियम का किसी प्रकार से उल्लंघन नहीं करता तथा उल्लंघन करने वालों का समर्थक नहीं, केवल वही प्रत्याशी हमारा प्रतिनिधि होना चाहिए।
आज के न्यायालयों में चलने वाले अभियोगों में से कम से कम अस्सी प्रतिशत अभियोग मार-पिटाई सम्बन्धी होते हैं। इनके मूल में घटना का सारांश यही होता है कि एक व्यक्ति या दल ने दूसरे की वस्तु पर बलात् अधिकार किया होता है या दूसरे के सम्मान को ठेस पहुँचाई होती है या दूसरे के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया होता है या कोई दूसरे को मारता है, तब पहला दूसरे से बदला लेने के लिए उस पर प्रत्याक्रमण करता है और बात बढ जाती है अर्थात् अपने प्रति किए गए अन्याय के लिए राज्य या न्याय का आश्रय न लेकर अन्याय के निवारणार्थ स्वयं रोषवशात उद्यत हो जाता है और कानून व न्याय को अपने हाथ में ले लेता है। इससे बात नए रूप को धारण कर लेती है और दोनों अपराध के भागीदार बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में वेद ने कहा है- जब कोई तुम से द्वेष (अन्याय) करता है या अपने प्रति किए गए अन्याय के कारण जिससे तुम द्वेष (अन्याय) करते हो, उसको न्याय के जबड़ों में सौंप दो। स्वयं अपने हाथों में न्याय या शासन को न लो। ऐसा करना सामाजिक अव्यवस्था रूपी रोगी को बढावा देना है। द्वेष शब्द अप्रीति का संकेत करता है। अर्थात् किसी के प्रति स्नेह, लगाव, अपनापन न रखने के भाव को जहाँ व्यक्त करता है, वहाँ द्वेष के कारण व्यक्ति दूसरों की समृद्धि, सम्पत्ति, प्रगति, कीर्ति से या ऐसे ही जलता है। कई बार दूसरों की थाली में अधिक दिखाई देता है। तब जलन-ईर्ष्या-द्वेष के अत्यधिक होने से उनको किसी ढंग से हानि पहुँचाने का भी प्रयास किया जाता है। बाह्य रूप से ही नहीं तो मानसिक स्तरपर ही संकल्प-विकल्प किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति प्रथम अपने मन को ही विकृत करता है। द्वेष के अनेकविध फूल-फल हमारे चारों और दृश्यमान हो रहे हैं। दुर्योधन ने द्वेष के कारण ही पाण्डवों को तंग करने के लिए विविध षड्यन्त्र रचे थे। द्वेष के इन कुपरिणामों को देखकर वेद में द्वेष को दूर करने की प्रार्थना की गई है।
विचार-विनिमय और भाव प्रकाशन से होने वाले मनुष्यों के पारस्परिक व्यवहार का एक मुख्य आधार या साधन वाणी है। भाषा या वाणी के बिना पारस्परिक व्यवहार सिद्धि की कल्पना एक दुःखद स्थिति है। वह तो गूंगों की दुनिया होगी, जहाँ कष्ट, दुःख, अभाव और तड़फन के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। पारस्परिक व्यवहार की सिद्धि में वाणी का उचित उपयोग करते हैं, तब हमारा व्यवहार ठीक प्रकार से सम्पन्न होता है। परन्तु जब बिना विचारे या जानबूझकर वाणी का अनुचित उपयोग किया जाता है, तो उससे अनर्थ के सिवाय और कुछ भी परिणाम नहीं होता। इसके उदाहरणों से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं तथा प्रतिदिन हम पग-पग पर भी अनुभव करते हैं। इसीलिए वेद ने कहा है- जैसे छलनी से छानकर सत्तु का सेवन सुखद होता है, वैसे ही जो विवेकीजन मन रूपी छलनी से विचारकर हितकर मधु सदृश वाणी का प्रयोग करते हैं, उनका मित्रवर्ग चिरस्थायी, वृद्धियुक्त होता है और उनकी वाणी में कल्याणकारी लक्ष्मी का वास होता है।
कई बार हम दुविधा में पड़ जाते हैं कि किसका विश्वास करें और किसका नहीं? क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि हम किसी का विश्वास करते हैं और अन्त में वह धोखा दे जाता है। ऐसी विश्वास्य-अविश्वास्य की दुविधा से निकलने का सरल मार्ग बताते हुए वेद में कहा गया है कि इस चर-अचर के स्वामी ने देखभाल कर सत्य और झूठ के रूप को अलग-अलग कर दिया है। अतः इस जग के मालिक ने झूठ = अनियम वाले व्यवस्था विरुद्ध, अन्धकारमय, अन्याययुक्त व्यवहार में अश्रद्धा = अविश्वास, घृणा, परित्याग, अलगाव को स्थापित किया है और सत्य = नियम, प्रकाश ज्ञान, व्यवस्था में श्रद्धा = विश्वास, प्रेम, सम्पर्क, अनुराग को जोड़ा है। अतः जहाँ सच्चाई हो, वहीं विश्वास करो। झूठ को अपने विश्वास का दान न करो अर्थात् झूठ से कभी प्रेम न करो।
सन्दर्भ-
13. आर्य ईश्वरपुत्रः ॥ निरुक्त - 6.26॥
14. ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः। तेषां श्रीर्मयि कल्पतामस्मिँल्लोके शतं समाः॥ यजुर्वेद 19.46 ॥
15. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ॥ यजुर्वेद 40.2 ॥
16. तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतम् जीवेम शरदः शतं श्रणुयाम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥ यजुर्वेद 36.24 ॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि॥ यजुर्वेद 25.21 ॥ अरिष्टिं तनूनाम्॥ ऋग्वेद 2.21.6 ॥
17. जीवातवे कृतः॥ ऋग्वेद - 10.176.4 स नो जीवातवे कृधि ॥ ऋग्वेद - 10.186.20 ॥
18. त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्। यद् देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम्॥ यजुर्वेद - 3. 62 ॥
20. योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥ अर्थववेद- 2.27 ॥
21. देवा द्वेषो अस्मद्युयोतन ॥ ऋग्वेद - 10.63.12 ॥
22. सक्तुमिव तितउना पुनन्तो, यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते, भद्वैषां लक्ष्मीर्निहिताधिवापि॥ ऋग्वेद - 10.71.12 ॥
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | सफलता का विज्ञान | वेद कथा - 95 | श्रेष्ठ कर्मों से शरीर और मन की स्वस्थता | Explanation of Vedas | Ved Gyan Katha