संस्कृति शब्द सम्पूर्वक कृ धातु से क्तिन्- ति प्रत्यय से बनता है। सम्-कृति के मध्य में सुट् स् सम्परिभ्यां करोतौ भूषणे (पाणिनि 6.1.132) से सजाने का अर्थ में होता है। बोलचाल में जैसे आकृति-आकार, स्वीकृति-स्वीकार एक ही अर्थ में बोले जाते हैं। दोनों युगलों में उपसर्ग और धातु एक से हैं। केवल क्तिन्-ति, घञ्-आ प्रत्यय का ही भेद है। आ-कृ-ति, आ-(कृ) कार, स्वी-कृ-ति, स्वी-(कृ) कार=के समान, सम्-स्+कृ+ति=संस्कृति और सम्+स्+ (कृ) कार= संस्कार शब्द बनते हैं। इन दोनों का मूलतः एक ही अर्थ है। सम्पूर्वक कृ धातु सफाई, शुद्धि, निखारने के अर्थ में आती है। अतः किसी को अच्छा बनाने, ऊँ चा उठाने, उदात्तीकरण की प्रक्रिया का नाम ही संस्कृति है। संस्कृति विशेष रूप से आन्तरिक गुणों, नैतिक मूल्यों को प्रकट करती है, जिसको सदाचार भी कहते हैं। अंग्रेजी भाषा में संस्कृति के लिए कल्चर शब्द भी आता है, जिसका एक अर्थ खेती है और इससे भी निखार, विकास की भावना ही सामने आती है।
संस्कार- साहित्य में संस्कृति की अपेक्षा संस्कार शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है। परन्तु संस्कार शब्द यौगिक की अपेक्षा योगरूढ़ बन गया है। अतः विशेषतः स्मृति ग्रन्थों, कल्प के अन्तर्गत आने वाले गृह्यसूत्रों और संस्कारों विषयक वाङ्मय में गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्तोन्नयन, जातकर्म जैसे सोलह संस्कारो के लिए ही प्रचलित है। ये संस्कार धर्म के अंग होने से धार्मिक कर्मकाण्ड की दृष्टि से लिए जाते हैं। अतः जिसका संस्कार हो रहा होता है, उस संस्कार्य के दोषों को निकालकर उसमें गुणों का आधान करना तथा प्रभावित करना ही इसका मूल भाव है। तभी तो नामकरण, अन्नप्राशन, विवाह आदि संस्कार जीवन की मूलभूत जरूरतों की प्रक्रिया को सिखाकर बालक के जीवन को अच्छा बनाने की पद्धति के अङ्ग होने से भारतीय धर्म में अपना विशेष स्थान रखते हैं। जैसे कि अन्नप्राशन में जीने के लिए अन्न का महत्व दर्शाते हुए संकेत किया जाता है कि कितना आहार, किस रूप में, कब, कैसे लेना चाहिए?
व्यवहार में भी संस्कार शब्द अच्छा बनाना व सफाई आदि अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे कि वस्त्रों का संस्कार, भवन का संस्कार करना अर्थात सफाई, सफेदी, रंग-रोगन करके अच्छा बनाना। इसमें पहले से लगे दोष को दूर करके अपेक्षित को निखारा जाता है। तभी तो आचार्य शंकर ने वेदान्त दर्शन 1.1.4 के भाष्य में लिखा है- संस्कारो नाम गुणाधानेन वा स्याद् दोषापनयनेन वा।
संस्कार शब्द प्रभाव, छाप, असर के अर्थ में भी आता है। जैसे कि सब्जी, दाल आदि में जब हम छौंक (संस्कार) लगाते हैं, तब उसका सब्जी, दाल पर देखने में सुन्दर, स्वाद में रुचिकर और गुण की दृष्टि से लाभप्रद के रूप में अनोखा प्रभाव प्रतिदिन अनुभव में सामने आता है। इसीलिए संस्कार और छोंक शब्दों का समान रूप से प्रयोग होता है। अतः छौंक शब्द संस्कार शब्द के भाव को अधिक स्पष्ट करता है। ऐसे ही चमेली के फूल या फिनाइल की गोलियाँ कुछ देर में वस्त्र में रखकर पुनः हटा लेने पर कपड़े पर उसकी छाप (वासना) छा जाती है। ऐसे ही दूसरे के संग, क्रियाकलाप और पुस्तकों के मनन का व्यक्ति पर सूक्ष्म प्रभाव होता है। उसको भी भारतीय परम्परा, साहित्य, धर्म में संस्कार शब्द से पुकारा जाता है।
जिस व्यक्ति के जैसे संस्कार होते हैं, वह वैसा ही बनता, ढलता है। कथा साहित्य के हितोपदेश का एक प्रसिद्ध वचन है- यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्। (प्रस्तावना- 4) अर्थात मिट्टी आदि के पात्र पर पड़ा पहला प्रभाव रंग, चित्रित रूप, छाप अन्त तक रहती है। कई बार कभी-कभी अकेला एक वचन में संस्कार शब्द जलाने के अर्थ में ले लिया जाता है। क्योंकि सभी संस्कारों में अन्त्येष्टि अन्तिम है, जहाँ जलाने की बात मुख्य है। इस प्रकार संस्कार शब्द के यौगिकपन से संस्कृति शब्द का स्वारस्य भी स्पष्ट हो जाता है। यजुर्वेद (7.14) में एक बार संस्कृति शब्द अभिहित हुआ है। वह मन्त्र-
अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम।
सा प्रथमा संस्कृर्तिवश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रोऽग्निः॥
शब्दार्थ- सोम = हे सारों के सार! देव! = हे दिव्यगुणयुक्त, सर्वस्व के दाता! ते = आपके अच्छिन्नस्य = अखण्डित, लगातार प्राप्त होने वाले, चलने वाले सुवीर्यस्य = अच्छी शक्तियों से भरे हुए रायस्पोषस्य = धन और उससे प्राप्त पुष्टि के ददितारः = समाज में दूसरों को सर्वविध सहयोग देने वाले स्याम = हों। सा = वह सामाजिकता संस्कृति = आन्तरिक रूप से उभरने वाली भावना है। सः = ऐसे भावों से भरा वह व्यक्ति ही प्रथमः = प्रमुख, उन्नत, परिष्कृत है। वरुणः = वरणीय, श्रेष्ठ, प्रसिद्ध अग्निः = प्रकाशस्वरूप, ज्ञानी, अगुआ तथा वही मित्रः = स्नेह भाव से भरा हुआ है।
व्याख्या- मन्त्र की प्रथम पंक्ति में सोम रूपी प्रभु से प्रार्थना है कि जैसे आपकी भौतिक, अभौतिक रूप में लगातार चलने वाली देनें है, वैसे ही हम भी अपने समाज को अपनी अर्जित विद्या, बुद्धि, सम्पत्ति, सद्भाव आदि को सहयोग के रूप में देने वाले बनें। परमात्मा के सूर्य, वायु, जल जैसे प्राकृतिक पदार्थ तथा शुभ कार्य के समय हृदय में होने वाली प्रसन्नता, प्रेरणा, आशा, उत्साह की भावना प्रत्येक को बिना पक्षपात के सदा प्राप्त होती है। ऐसा हम सदा अनुभव करते हैं। अन्य देनों की तरह वेदज्ञान की अभौतिक देन भी सर्गारम्भ में विशेष व्यक्तियों को प्राप्त होती है। तभी फिर आगे से आगे ज्ञान का नैमित्तिक क्रम चलता है।
मन्त्र के दूसरे चरण में मुख्य बात ददितारः स्याम है। इसकी यहाँ चाहना दर्शाई गई है। हम संसार या जीवन में इस प्रकार के कर्ता बनें। ददितारः में द का द्वित्व है अर्थात देने की विशेष भावना हममें हो। हम अपने चारों ओर देखते हैं कि ईश्वर की देनों के खुले भण्डार लगातार चलते हैं। ऐसे ही हम भी अपने समाज को यथाशक्ति जो कुछ भी धन, विद्या, सद्भाव आदि के रूप में सहयोग दे सकते हैं, वह सदा अवश्य ही दें। मनुष्य एक विचारशील सामाजिक प्राणी है। वह परिवार के सहयोग से जन्म लेता है और परस्पर के सामाजिक सहयोग से पनपता, फूलता-फलता है। बृहदारण्यक उपनिषद (5.2.2-4) में एक आख्यान आता है, जिसमें प्रजापति ने देव, मनुष्य, असुर तीनों को द-द की ही शिक्षा दी है। इस आख्यान में सामाजिकता के कारण मनुष्यों का द के द्वारा दान से सम्बन्ध दर्शाया गया है। सामाजिकता परस्पर के सर्वविध सहयोग से ही समृद्ध होती है और जीवित रहती है।
मन्त्र के तीसरे चरण सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा में संस्कृति के साथ सा सर्वनाम का प्रयोग है। सर्वनाम पूर्ववर्ती की ओर संकेत करता है। इससे पूर्व ददितारः स्याम ही है। अतः यही सहयोग भावना ही यहाँ संस्कृति है। सहयोग भावना एक आन्तरिक गुण है, जिस पर मानव समाज टिका है। इसीजिए ही यहाँ संस्कृति का पहला विशेषण है- प्रथमा अर्थात यह भावना अन्य गुणों की अपेक्षा प्रमुख, प्रकृष्ट है, उनका आधार है। क्योंकि सहयोग भावना के होने पर ही अन्य गुण उभरते हैं, विकसित होते हैं। वे चाहे धर्म के अन्तर्गत आने वाले धृति, क्षमा, दम आदि हों या योगदर्शन में दर्शाए गए यम-नियम हों। इनको वहाँ काल, स्थान, वर्ग की सीमा में सीमित न होने के कारण महाव्रत कहा गया है। ये सर्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्वजनिक बाते हैं। सहयोग भावना से ही मानव समाज जीवित तथा विकसित होता है। इसके बिना व्यक्ति स्वार्थी बन जाता है। स्वार्थ से ही सारी बुराइयाँ, छल-कपट, जलन, द्वेष, अन्याय, शोषण, अत्याचार आदि पनपते हैं और जड़ जमाते हैं। तभी तो कहा जाता है कि स्वार्थ से लोभ पैदा होता है, जो कि पाप का बाप है।
संस्कृति की दूसरी खूबी है विश्ववारा। यह सभी स्थानों और कालों के व्यक्तियों द्वारा चाही गई, वरणीय, स्वीकरणीय, अपनाने योग्य है। क्योंकि सभी का जीवन पारस्परिक सहयोग पर ही निर्भर है। मन्त्र के चौथे चरण में पूर्व भाव को पुष्ट करते हुए ही कहा है कि सहयोग रूपी गुण जिस व्यक्ति में होता है, वही ही समाज में प्रमुखता प्राप्त करता है। तभी तो सर्वत्र दानदाताओं के गुण गाए जाते हैं और कंजूस निन्दित होते हैं। जैसे कि हम अपने इतिहास में देखते हैं कि उदयसिंह के साथ पन्ना धाय तथा राणा प्रताप के साथ भामाशाह का नाम आदर से लिया जाता है। आज छोटे से देश का नोबेल पुरस्कार सर्वत्र चर्चित है। यह प्रसिद्धि सहयोग के कारण ही हुई है। सहयोग से भरा व्यक्ति ही वरुण=वरणीय, श्रेेष्ठ, प्रशंसनीय जहाँ होता है, वहाँ वह अग्नि के समान सबका मार्गदर्शक, अगुआ, प्रकाशक और मित्र= प्रीति का पात्र बनता है।
मन्त्र के इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि संस्कृति शब्द का मूल भाव सहयोग भावना ही है, जो कि एक आन्तरिक गुण है। यही मानवता की पहली पहचान है। मानवता की अन्य भावनाएँ सहयोग की भावना से ही पनपती, विकसित होती हैं। अतः वे सब इसी में अन्तर्निहित हैं।
सभ्यता- सामाजिक जीवन में संस्कृति की सहयोग-भावना को सामने लाने के लिए आजकल सभ्यता शब्द अधिक प्रचलित है। अतः आइए! इस पर भी कुछ विचार कर लें। सभ्यता शब्द सभ्य तथा ता का मेल है और सभ्य ’सभा’ से बनता है। जब हम एक- दूसरे के व्यवहार को ध्यान में रखकर रखकर बातचीत करते हैं या उस पर विचार करते हैं, तो हम इसके उचित, अनुचित, अच्छे- बुरे के लिए जिस भी कसौटी को आजकल सामने रखते हैं, वह कसौटी सभ्यता ही है। अतएव कर्तव्य (करने योग्य) और अकर्तव्य (न करने योग्य) को बताना ही नीति या सभ्यता है।
हम बोलचाल में भी कहते हैं कि सभ्यता की यह माँग है कि उसको ऐसा करना चाहिए था या ऐसा नहीं करना चाहिए था। इसी सबको ही हम प्रायः बोलचाल में सभ्यता, शिष्टाचार कहते हैं। जहाँ जो सभ्यता, सदाचार, शिष्टाचार होता है, वही वहाँ की नीति होती है। अतः सभ्यता और शिष्टाचार का ही दूसरा नाम नीति, संस्कृति है। हमारा जो भाव संस्कृति से होता है, वही सभ्यता और शिष्टाचार से होता है। इसलिए सभ्य, शिष्ट ही संस्कृत कहा जाता है।
वेद में इस दृष्टि से सभा, सभ्य, समिति जैसे शब्दों का अनेक प्रकरणों में अनेक बार प्रयोग किया गया है। जैसे कि - सभ्य सभां में ही पाहि (अथर्ववेद 19.55.5)। सभा शब्द स+भा का मेल है और सभा से य (यत्) प्रत्यय जुड़कर सभ्य शब्द बनता है। इसका अर्थ है- सभ्यपना। यहाँ मूल शब्द है- सभा, जो कि स+भा का मेल है। स=साथ-साथ भा = चमकना, रहना, वर्तना, जीना अर्थात् सामूहिम रूप में रहना, वर्तना, जीना। समूह के योग्य को सभ्य कहते हैं। अर्थात् किसी समूह में कैसे बैठना, उठना, रहना, वर्तना, बोलना चाहिए। अतः किसी समूह में जो सफल है, वही सभ्य कहा जा सकता है। ऐसी योग्यता की भावना, व्यवस्था, मर्यादा ही सभ्यता कहलाती है।
मनुष्य एक विचारशील परस्परापेक्षी सामाजिक प्राणी है। उसका जन्म जहाँ समाज की प्रथम इकाई रूपी परिवार के माता-पिता (पत्नी-पति) द्वारा होता है, वहाँ उनके तथा रिश्तेदारों, मित्रों के सहयोग से ही जीवन का विकास और संरक्षण होता है। अतः इन सबके साथ किए जाने वाले उचित व्यवहार का नाम ही सभ्यता है। हर व्यक्ति किसी न किसी परिवार, रिश्तेदारी, मित्रमण्डली, कारोबार, संगठन, राजनीतिक दल, शिक्षण संस्था आदि का सदस्य होता है।
सभा, संगठन सदस्यों पर ही निर्भर होता है। अतः जो जिसका सदस्य है, उसको उसके प्रति शालीन, शिष्ट, व्यवहार कुशल और सभा की मर्यादाओं का ध्यान रखने वाला, पालने वाला होना चाहिए। वह सभा में नियमित भाग ले अपने अवसर पर ही मौलिक और निष्पक्ष विचार रखे। जन-धन-बुद्धि बल से सभा पर अपनी जबरदस्ती न चलाए। अर्थात् सभा के प्रत्येक नियम व अनुशासन का पालन-रक्षण करे। तभी वह सभ्य होगा तथा सभा की व्यवस्थाका पालन और उसका रक्षण चरितार्थ कर सकेगा।
कौन सभ्य है, यह जानने की स्पष्ट-सी पहचान यही है कि उसकी नस-नस में प्रत्येक व्यवहार में कितनी सभ्यता समाई हुई है? सभ्य मनुष्य के बोलने, बर्तने, रहने-सहने जैसे व्यवहार में उदारवृत्ति दिखाई देती है। वहाँ एक प्रशंसनीय शिष्टता दृष्टिगोचर होती है और इसी का नाम ही सभ्यता है। जिस मनुष्य का दृष्टिकोण जितना विशाल और अन्तःकरण सीधा-सरल होता है, वह दूसरों के साथ उतना ही सभ्यता भरा व्यवहार करता है। केवल उजले कपड़े पहनना, कम या मधुर बोलना ही सभ्यता नहीं है, अपितु यह तो केवल दिखावा भी हो सकता है या यह सभ्यता का एक पहलू ही है, सारा रूप नहीं। सामान्य दृष्टि से सभ्यता बाह्य व्यवहार में दृष्टिगोचर होती है।
इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि स्थायी रूप से कोई व्यक्ति इन सबका पालन तभी करता है जब उसके मन या हृदय में संस्कृति से संकेतित गुण समाए होते हैं। संस्कृति तथा सभ्यता में अन्तर करने की दृष्टि से स्थूल रूप में यह कहा जा सकता है कि सभ्यता शब्द बाह्य व्यवहार के लिए अधिक चलता है और संस्कृति उसका आन्तरिक पक्ष या रूप है।
सभ्यता का एक फल यह भी होता है कि सभ्य अपने व्यवहार से दूसरों को प्रसन्न करता है। इस प्रकार सभ्यता का पालन करने वाला अपने सम्पर्क में आने वाले अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, दीन-हीन आदि सभी लोगों से उचित व्यवहार करता है। इससे सभी प्रसन्न होते हैं। परन्तु अमर्यादित, उद्दण्ड और मूखर्तापूर्ण बर्ताव से सभी का दिल दुखता है और यही असभ्यता है। सभ्य दूसरों क असुविधा, अपमान, दुःख कष्ट का भी ध्यान रखता है। इसीलिए वेद का सन्देश है- सभ्यः सभां में पाहि ये च सभ्याः सभासदः । (अथर्ववेद 19.55.5)
शब्दार्थ- हे प्रशासनिक कार्य करने वाले ! सामाजिक जीवन की इच्छा रखने वाले ! तू भी प्रथम सभ्यः = सभा के याग्य अर्थात् समूह के नियमों को पालने वाला हो। इस प्रकार सभ्य, शिष्ट, अनुशासित बनकर सभाम् = सामूहिक व्यवस्था का पाहि = पालन कर च = और ये = जो अन्य सभ्याः = शिष्ट, सभासदः = समूह के सदस्य हैं, वे भी संगठन के नियमों का पालन करें। इसके साथ उन सभी के सहयोग, रक्षण, पालन में सदा तत्पर हो, जिससे समाज में जीने की अभिलाषा चरितार्थ हो। तभी कोई संगठन सफल हो सकता है।
इस सारे विवेचन से सिद्ध होता है संस्कृति, संस्कार, सदाचार, धर्म, नीति, सभ्यता शब्द अपने-अपने ढंग से एक ही भावना को दर्शाते हैं। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | सफलता का विज्ञान | वेद कथा - 93 | कर्म के लिए इच्छा और क्षमता आवश्यक | वेद के कर्म योग का रहस्य | Explanation of Vedas