यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि वेद संसार के पुस्तकालय की सबसे प्राचीनतम पुस्तक है। भारतीय साहित्य और संस्कृति के विकसित वटवृक्ष का यदि किसी को मूल कह सकते हैं, तो वह केवल वेद ही है। वेद की ही विचारधाराओं से रस लेकर ही भारतीय संस्कृति तथा साहित्य के विविध पहलू अनुप्राणित हुए हैं। वेद के अर्थों और भावों के प्रकाश-प्रसार के लिए ही वैदिक वाड्मय का विकास हुआ है तथा प्राचीन गद्य-पद्यमय लौकिक साहित्य भी वेद भूमि से रस लेकर ही पल्लवित-पुष्पित और फलित हुआ है। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य एक स्वर से वेद को अक्षय ज्ञान का स्रोत मानता है। मनु के शब्दों में कहें तो वेद मानव जाति का सनातन (सदा से आने वाला) चक्षु है। वेद से ही सबके स्वरूप का ज्ञान होता है। क्योंकि वेद सर्वज्ञानमय है।
प्राचीन और अर्वाचीन भारतीयों के जीवन का परिशीलन करने से प्रतीत होता है कि वेद भारतीयों की पवित्र धरोहर, ज्ञाननिधि तथा समस्त व्यवहार का मार्गदर्शक है। अतएव उनके धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक और शैक्षणिक आदि सारे कृत्य वेद से ही सञ्चालित होते हुए दिखाई देते हैं। अर्थात् इन क्षेत्रों में सर्वविध विकास और प्रचलन के मूल में वेद की ही सूक्ष्म भावनायें किसी न किसी रूप में व्याप्त दिखाई देती हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि वेद भारतीयता रूपी शरीर के प्राण या आत्मा हैं। वेद के प्रभाव और चेतना से भारतीय शरीर सजीव, सचेष्ट, विकसित और गौरवान्वित हुआ है।
प्राचीन भारतीय साहित्य की यह दृए धारणा है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है। सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर ने पृथिवी, जल, वायु, सूर्य आदि पदार्थों की तरह वेद का ज्ञान भी दिया है। जैसे एक चिकित्सक (डॉक्टर) औषधि के साथ उसके सेवन की विधि और पथ्य-अपथ्य विषयक ज्ञान देता है। एक आविष्कारक यन्त्र के साथ उसके सम्बन्ध में उपयोगी ज्ञान देता है। क्योंकि इसके बिना उस यन्त्र का उपयोग करना असम्भव हो जाता है। इसी प्रकार परमेश्वर ने सूर्य, जल, वायु आदि भौतिक और आत्मा आदि अभौतिक पदार्थों का ज्ञान दिया है। जीवन के व्यवहारों के यथोचित उपयोग के लिए सृष्टि तत्वों का प्रथम ज्ञान होना आवश्यक है। तभी मानव जीवन को सुविधापूर्ण, सुखद, विकसित और सफल बनाया जा सकता है।
महर्षि मनु ने मनुस्कृति में कहा है कि मैं इस (वेद) को मानव का परम साधन (सहायक) मानता हूँ। जैसे नेत्र स्वस्थ होते हुए भी बिना प्रकाश के आपना कार्य नहीं कर सकते हैं, वैसे ही हमारी बुद्धि भी ज्ञान के बिना एक पग भी नहीं चल सकती।
यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि मनुष्य का ज्ञान नैमित्तिक है। प्रत्येक मनुष्य बिना किसी निमित्त या गुरु के ज्ञान और भाषा सीख नहीं सकता। यह इतिहास में कई बार परीक्षणों से परीक्षित हो चुका है कि मानव दूसरों से ज्ञान और भाषा सीखता है। भाषा वैज्ञानिकों ने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न नामों से अनेक कल्पनायें की ं कि इस प्रकार आरम्भ में भाषा की उत्पत्ति हुई। परन्तु आज स्वयं भाषाशास्त्रियों ने उन कल्पनाओं को अनेक दोषों से दूषित स्वीकार कर लिया है। अब भाषा वैज्ञानिक इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि अति प्राचीनकाल की घटना होने से भाषा की उत्पत्ति के निश्चित प्रारम्भिक कारण को ढूँढ निकालना भाषा विज्ञान का विषय नहीं है। अतः ज्ञान और भाषा का देने वाला आरम्भिक गुरु ईश्वर को मानने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है। तभी तो योगदर्शनकार ने कहा है-
स एषः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्। योगदर्शन 1.1.26॥
वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से सूर्य और वायु की तरह सबकी सम्पत्ति है। यह किसी वर्ग विशेष की धरोहर नहीं है। वेद की दृष्टि में सब मानव एक समान हैं। वेद ने स्थान-स्थान पर संकेत किया है कि प्रत्येक मानव हर प्रकार से दूसरे मानवों की पालना-पोषणा करें। अमर अविनाशी प्रभु के सब पुत्र इसका श्रवण करें। इतना ही नहीं अपितु वेद ने स्पष्ट शब्दों में उपदेश दिया है कि मनुष्य को ही नहीं, अपितु मैं सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूं और हम सब परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें। अर्थात् अपने-पराये का भेदभाव न हो।
अथर्ववेद का पृथिवी सूक्त यह बताता है कि पृथिवी और उसके भोग इस पृथिवी पर रहने वाले प्राणी मात्र की सम्पत्ति हैं। इसको किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति मानना दूसरों के अधिकारों के ऊपर छापा मारना है। ऐसी स्थिति में ही पृथिवी का प्रत्येक वासी यह कह सकता है कि यह पृथिवी मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ। यह सारा ही सूक्त समस्त पृथिवीवासियों को एक परिवार के रूप में प्रस्तुत कर पृथिवी के दिव्यीकरण के साथ जीवन की सफलता का भाव दर्शाता है। एक अन्य स्थल पर स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि सबके लिए खान-पान की एक व्यवस्था हो तथा सब मिलकर कार्य करें। सब मनुष्यों को पारस्परिक सौभाग्य बढाने के लिए भाइयों की तरह मिलकर प्रयत्न करना चाहिए। न कोई छोटा है, न कोई बडा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर सबका पिता है और अनेक प्रकार के भोग्यों को देने वाली यह पृथिवी सब मानवों के लिए सर्वथा हितकारिणी हैं।
आर्य और दस्यु- उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि वेद मानव मात्र की सम्पत्ति है। इसलिए वेद में जाति विशेष का इतिहास वा किसी के प्रति पक्षपात की भावना के निर्देश का प्रशन नहीं उठता। आज तक इस सम्बन्ध में जितनी कल्पनायें की गई हैं, वे सब अपूर्ण, दोषयुक्त तथा वेद के वर्णन से असंगत हैं। इस प्रसंग में विशेष रूप से आर्य और दस्यु का वर्णन प्रस्तुत किया जाता है। वेदों को आर्य जाति का इतिहास और उनका पक्षपोषक ग्रन्थ माना जाता है। बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्षतापूर्वक वेदों का अध्ययन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आर्य और दस्यु परस्पर विरोधी आर्थवाचक शब्द हैं। इनका वेद में दो प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है। एक तो विशेषणों सहित और दूसरा विशेषण रहित। विशेष्य के साथ प्रयुक्त विशेषण ही विशेष्य के स्वरूप के प्रतिपादक होते हैं तथा तथ्यपूर्ण स्वरूप के निर्णय में सहायक होते हैं। इन विशेषणयुक्त स्थलों से ही विशेषण रहित स्थलों का निर्णय हो सकता है।
ऋगवेद में एक स्थल पर दस्तु को अकर्मा, अमन्तु, अन्यव्रत और अमानुष विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। न + कर्ता = अकर्मा या निकम्मा, जो कर्मशील नहीं, आलसी है, अपने कर्तव्य कर्म का पालन नहीं करता या उलटे कर्म करता है। न + मन्तु = अमन्तु = जो विचारशून्य, अज्ञानी, मूर्ख, विचारने में असमर्थ, अविवेकी अर्थात् जो बिना विचारे कर्म करता है या विपरीत ज्ञान वाला है। अन्यव्रत = सामाजिक व्रतों (नियमों) से विपरीत जिसका व्यवहार है या विपरीत जिसके व्रत हैं अर्थात् समाज के नियमों का पालन न करने वाला बेअसूला। अमानुष = न + मानुष = मानव के सहानुभूति, सहिष्णुता, सच्चरित्रता, उदारता, विवेकशीलता, आत्मीयता, प्रेम, सहयोग, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि गुणों से जो रहित है, वह अमानुष ही दस्यु कहलाता है। इससे विपरीत जो कर्मशील, सत्पथगामी, मननशील, सामाजिक नियम पालक, संस्कृत, सभ्य और सच्चा मानव है, वही आर्य कहलाता है। अतः ये आर्य और दस्यु शब्द जाति-वाचक नहीं हे, अपितु गुणदोष वाचक हैं। अन्यथा विशेषण देकर इस प्रकार इनके वर्णन की अपेक्षा नहीं होती।
वेद के शब्द- वेद के शब्द यौगिक तथा योगरूढि हैं, परन्तु रूढि नहीं हैं। इसीलिए धातु या प्रकृति प्रत्यय के अनुसार उनका अर्थ होता है। वेद के शब्दों को यौगिक न मानने से एक ही स्थल पर विशेष्य-विशेषण रूप में आए हुए पर्यायवाची शब्दों का कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं हो सकता। व्यक्तिवाचक शब्दों के साथ गुणवाचक शब्दों के साथ लगने वाले तरप्-तमप् प्रत्ययों का व्यवहार भी नहीं होता। परन्तु वेद में आम धारणा के अनुसार व्यक्तिवाचक समझे जाने वाले इन्द्र, कण्व आदि शब्द गुणवाचक प्रत्यय से युक्त होकर इन्द्रतम, कण्वतम रूप में उपलब्ध होते हैं। जो इन शब्दों के हर स्थिति में व्यक्तिवाचक होने में एक बहुत रुकावट होते हैं। वेद के शब्दों को यौगिक माने बिना उनके अर्थ भी नहीं हो सकते और न ही निरुक्ति के द्वारा अनेक अर्थों का प्रतिपादन सम्भव है। वेद मन्त्रों के अध्ययन से यह परिणाम निकलता है कि अग्नि, इन्द्र आदि शब्द यत्र-तत्र अनेक अर्थों के वाचक हैं, अन्यथा प्रकरण और तत्-तत् प्रकरणगत भिन्न-भिन्न विशेषणों की कोई संगति न लग सकेगी। ब्राह्मण ग्रन्थों में भी इन्द्र आदि अनेकार्थक माने गए हैं।
आर्य और दस्यु शब्द के प्रकृति- प्रत्यय निर्दिष्ट अर्थ से भी पूर्व में कहे गए अर्थ की ही पुष्टि होती है। दस्यु शब्द दसु (उपक्षये) से बनता है, जिसका अर्थ है जो दूसरों, समाज के नियमों, स्वकर्तव्य और धर्म का क्षय= हिंसन, उल्लंघन करे। आज भी सामाजिक और राष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन करने वालों को दस्यु = डाकु, चोर कहा जाता है। दस्यु से विपरीत आर्य है, जो कि अर्य और ऋ (गतौ) से बनता है। अर्य का अर्थ है- स्वामी तथा स्वामी का भाव, जो अपनी भावनाओं, इच्छाओं, इन्द्रियों और मन का स्वामी है, इनका दास नहीं। इनका दास ही इनके वश में होकर अपने स्वार्थवश सामाजिक व्यवस्थाओं व नियमों को तोड़ता है। अर्थात् नियम और कर्तव्य का पालक आर्य कहलाता है और नियम तथा कर्तव्य का उल्लंघन करने वाला दस्यु या दास है।
वस्तुतः सबका स्वामी ईश्वर है ओर अर्यका अपत्य, प्रकाशक, प्रसारक आर्य है। तभी तो निरुक्तकार ने कहा है- आर्य ईश्वरपुत्रः। 6.26॥ पुत्र पिता की सम्पत्ति, परम्परा, बात, कार्य, आज्ञा का पालक होता है। अतः सरलता से यह कहा जा सकता है कि आर्य और दस्यु शब्द जातिवाचक नहीं हैं, अपितु गुण, कर्म के आधार पर हैं। तभी तो वेद ने आदेश दिया है कि हे कर्मशीलो! इन्द्र = ईश्वर, ऐश्वर्य, अच्छाई, शक्ति को बढाते हुए सबको आर्य = श्रेष्ठ करते हुए और अराव्ण = अदान भावना, कंजूसी स्वार्थीपन सहानुभूति रहितता को नष्ट करते हुए12 जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करो। यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि सबको आर्य करते हुए अर्थात् जो आर्य नहीं, उस-उस को आर्य करो।
सन्दर्भ-
1. वेद ईश्वर का ज्ञान होने से मानव मात्र की सम्पत्ति है, अतः भारतीयों की भी सम्पत्ति है। पुनरपि भारतीयों ने इसके रक्षण, प्रसारण और आचरण की दृष्टि से विशेष यत्न किया है। अतः यहाँ वेद के साथ भारतीय शब्द का प्रयोग किया गया है।
2. वेदश्चक्षुः सनातनम्। (मनुस्मृति 12.94)
सर्वं वेदात्प्रसिध्यति । (मनुस्मृति 12.97)
सर्वज्ञानमयो हि सः। (मनुस्मृति 2.7)
3. तस्मादेतत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम् । (मनुस्मृति 12.99)
4. पुमान् पुमांसं परिपातु सर्वतः ॥ ऋग्वेद - 6.75.14॥
5. शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः ॥ यजुर्वेद - 11.4 ॥
6. मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे, मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥ यजुर्वेद - 36.18॥
7. माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः॥ अथर्ववेद- 12.1.12 ॥
8. समानी प्रथा सह वोऽन्नभागः समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि॥ अथर्ववेद- 3.30.6॥
9. अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधुः सौभगाय।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुधा पृश्निः सुदिनामरुद्भयः॥ ऋग्वेद- 5.60.5॥
10. अकर्मा दस्यु अभि नो अमन्तु अन्यव्रतो अमानुषः॥ ऋग्वेद- 10.22.9 ॥
11. अर्यः स्वामिवैश्ययोः ॥ पा.अ. 3.1.103॥
12. इन्दूं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। अपध्नन्तो अराव्णः ॥ ऋग्वेद- 9.63.5 ॥
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | सफलता का विज्ञान | वेद कथा - 94 | इच्छा आत्मा की होती है, शरीर की नहीं | शरीर रूपी राज्य का राजा आत्मा है | Ved Katha