विशेष :

हे प्रभो! तुम्हीं हमारे माता-पिता हो

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ओ3म् त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता पशतक्रतो बभूविथ।
अधा ते सुम्नमीमहे॥ ऋग्वेद 8.98.11॥

शब्दार्थ- वसो = सबके लिए सदा वास की व्यवस्था करने वाले! त्वं हि = आप ही नः = हम सबके पिता = पालक बभूविथ = हो शतक्रतो = सैंकड़ों प्रकार के प्राकृतिक कर्मों को रचाने वाले ! त्वम् = आप माता= निर्माण-पालन-पोषण के मूल आधार बभूविथ = होते हो। अधा = अतः ते = आपकी व्यवस्था से प्राप्त होने वाले सुम्नम् = सुख रूपी सुवासित फूलों को ईमहे = हम चाहते हैं और कार्यों की सम्पन्नता से होने वाले सुखात्मक सुवास की प्रार्थना करते हैं।

व्याख्या- हम अपने चारों ओर सभी प्राणियों को जीवन निर्वाह की विविध वस्तुओं को वर्तते हुए देख रहे हैं। हम अपने जीवन यापन के लिए कभी कोई पदार्थ बर्ताव में लाते हैं और कभी कोई। हम अनुभव करते हैं कि इनके बिना हमारे जीवन का निर्वाह नहीं हो सकता। हम एक के बाद एक ही अपेक्षा के अनुसार सैंकड़ों वस्तुओं को वर्तते हैं। हमारी तरह दूसरों की भी यही स्थिति है। इन भौतिक पदार्थों में से कुछ को तो सांसारिक शिल्पकार उनको वर्तने योग्य बनाते हैं। इन सबका भौतिक रूप अधिकतम आपकी (प्रभु की) व्यवस्था से ही प्राप्त होता है। अतः वास की वस्तुएं आपकी व्यवस्था का ही प्रसाद हैं।

हमारे जैसे प्राणियों के जीवनार्थ एक-दो ही नहीं, सैंकड़ों-सहस्रों प्राकृत पदार्थ अपने-अपने कर्म के द्वारा संसार चक्र चला रहे हैं। कहीं सूर्य प्रतिदिन प्रतिक्षण अपनी उषा-उष्मा-ऊर्जा से लाभान्वित कर रहा है, तो कहीं चन्द्रमा अपनी चान्दनी छिटका रहा है। इन दोनों की गति, नियमित, व्यवस्थित है। ये दोनों अपनी देनों को सभी के लिए बिना पक्षपात के देते हैं। यत्र-तत्र-सर्वत्र सर-सर करता वायु विराज रहा है, तो कहीं कल-कल करती नदियाँ बही जा रही हैं। यह फूलों-फलों-अन्नों-दालों-वनस्पतियों-धातुओं-खनिजों आदि सें भरी वसुन्धरा स्पष्ट रूप से वास का आधार बन रहीं है। सारी व्यवस्थायें आपकी कृपा के ही प्रसाद हैं। संसार में आप सारी व्यवस्थायें माता-पिता के माध्यम से ही करते हैं। इस प्रकार जीवन के अनेक सुख हम आप से ही प्राप्त करते हैं। इन भौतिक सुखों से भी बढकर अभौतिक मानसिक-आत्मिक सुखों और सन्तोषों के एकमात्र आधार आप ही हैं। अतः आप से ही एतदर्थ प्रार्थना करते हैं।

जैसे भौतिक पुष्प हमारी आँखों द्वारा मन को सुवास से प्रभावित करते हैं। ऋतु-ऋतु में सुवासित करने वाले सुमन आपकी व्यवस्था के ही सुफल हैं। हमें भी ऐसी मति-घृति-शक्ति दो कि आपके अनुकरण की भावना से अनुभावित होकर अपने जीवन को सदा अनुशासित बनायें। बाह्य सुमनों की तरह हमारा मन सुख की साधना में संलग्न हो। इस मन्त्र में त्वं के साथ आया ’हि’ शब्द किसी अनुभवी के निश्‍चय को दर्शा रहा है कि इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है कि आपके अतिरिक्त और कोई यह सब नहीं करता। अतएव मन्त्र के अन्तिम चरण (अधा ते) में सर्वविध सुखों की चाहना दर्शाई गई है। यह निश्‍चय ही किसी भक्त को आत्मविभोर कर देता है। अतः ईश्‍वर विश्‍वासी ईश्‍वर की ही डोर पकड़ता है। उसके स्थान पर किसी और के द्वार पर भटकता नहीं।

भावतरंग- हे वसो ! आप ही हमारे परमपिता हैं। आप ही सारे प्राणियों को बसने की सारी सुविधायें देने वाले हैं। संसारी पिता तो आपकी ही दी हुई चीजों के सहारे जैसे-कैसे अपना कर्त्तव्य निभाने में समर्थ होते हैं।

हे जगजननी ! आप एक संसारी माँ से प्रत्येक प्रकार से बढकर हम सब के लालन-पालन के लिए सर्वथा शतशः कर्म रचा रहे हैं। अतः हम इस समय सुमनों की सुवास की तरह सुखदायक कामना को लेकर समुपस्थित हुए हैं। हमारी कामना को सर्वथा स्वीकार करो और हमें कृतार्थ करो! (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | सफलता का विज्ञान | वेद कथा - 97 | यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या | Explanation of Vedas | Yajur Veda Katha in Hindi