कुछ विद्वानों का विचार है कि आज की नवीन सभ्यता जिसमें खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, भाषणसरणि, व्यवहार, प्रक्रिया आदि की जो नवीनता दिखाई दे रही है, उसमें हमें उदारतापूर्वक पश्च्मिी सभ्यता को नहीं भूलना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रत्येक वस्तु की आकृति या बाह्य का हाथ भी अवश्य रहता है। किन्तु उसकी अन्तरात्मा का शाश्वत प्रवाह भी तो हमें देखना ही पड़ेगा कि वह कहाँ से उद्भूत हुआ है। हम पाश्चात्य सभ्यता के विरोधी न बनें, किन्तु यह सोचने में क्या क्षति है कि उस सभ्यता का वैभव किसके प्रभाव में पला है?
प्राचीनकाल के, नहीं-नहीं वैदिककाल के ध्वंसावशेषों, उस काल के ग्रन्थों और उस समय की परिपाटी का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यही निश्चय करना पड़ता है कि गो बैक टू द वेदाज। अर्थात् हमें वेदों की ओर मुड़ना चाहिए। यदि ऐसा नहीं तो बताइये कि मोहनजोदड़ो की खुदाई के पश्चात जो निष्कर्ष निकला है, उसमें वैदिक काल की प्रशंसा क्यों की गई है?
पुरातत्त्ववेत्ताओं के वर्षों के अनुसन्धान के बाद वैदिक सभ्यता का जो स्वरूप संग्रहालयों में आज भी सुरक्षित है, उसका आप क्या करेंगे? मैसक्मूलर, डा. कीथ आदि के द्वारा किये गये अनुसन्थानों से वेद की प्राचीनता सिद्ध हो जाने पर उस समय की वैदिक सभ्यता का स्वरूप विश्व भर में आज भी देखकर क्या विद्वज्जन वैदिक संस्कृति का मूल होना एकस्वर से स्वीकार न करेंगे?
क्या कोई यह भी सोच सकता है कि आज शव का अन्तिम संस्कार यदि बिजली की भट्टी में या भूमि में गाड़कर अथवा जल में प्रवाहित करके किया जाता है तो वैदिक काल में उसका क्या किया जाता रहा होगा? अन्तर इतना ही है कि उस समय घृत, सामग्री तथा चन्दन आदि के द्वारा उसे रोगनाशक, कीटाणुनाशक पद्धति से संस्कृत किया जाता था और आज उसके स्वरूप में परिवर्तन हो गया है।
इसी तरह विश्व की सभ्यताओं में पार्टीवाद, वर्गवाद या सम्प्रदायवाद का बोलबाला यह सिद्ध कर रहा है कि साथ चलना, साथ ही बोलना, एक दूसरे के मन अनुकूल व्यवहार करना वेद ही से चला है। संगठन की रागिनी सर्वप्रथम वेद में ही गाई गई है। इसी रागिनी से अनुप्राणित होकर एक समय देवता लोग जब असुरों, दैत्यों और राक्षसों से जुझे थे तब उनकी विजय में इसी मन्त्र का जादू काम करता था। शनैः शनैः विश्व में छोटे-बड़े आस्तिक और नास्तिक सभी ने इसे अपना लिया-
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनासि जानताम्।
देवा भागं यथापूर्वे सं जानाना उपासते॥
अभिवादन- एक दूसरे के सम्मानार्थ आज जो यह जय रामजी की, नमस्कार, प्रणाम, सलाम या गुडमार्निंग आदि अभिवादन प्रयोग किये जा रहे हैं वे सभी ’नमस्ते भगवन्नस्तु, यत: स्व: समीहसे’ की इस वैदिक प्रक्रिया से उद्भूत हुए हैं। ’अपि सुप्रभातं भवत:’ का यह वैदिक वाक्य आज भी गुडमार्निंग आदि की परम्परा को वैदिक पद्धति की ओर निहारने का ही संकेत कर रहा है।
आतिथ्य-
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी॥
यह मन्त्र विश्व भर के मनुष्यों को आदिकाल से प्रेरणा देता चला आ रहा है कि किसी को भी एकाकी होकर अन्न का उपभोग नहीं करना चाहिए अर्थात् गृहमेधी के गृह पर उपस्थित अभ्यागत के लिए आतिथ्य करना अनिवार्य है।
बालो वा यदि वा वृद्धो युवा वा गृहमागत:।
तस्य पूजा विधातव्या सर्वस्याभ्यागतो गुरु:।
उत्तमस्यापि वर्णस्य नीचोऽपि गृहमागत:।
पूजनीयो यथायोग्य सर्वस्याभ्यागतो गुरु:॥
संसार में यत्र-तत्र जो आतिथ्य अर्थात मेहमानगिरि देखने में आती है, उसका मूल वैदिक मन्त्र ही कहा जाना चाहिये।
मधुर भाषण- भूमण्डल के सभ्य समुदायों में आज भी मधुर भाषण के माध्यम से सर्वत्र पारस्परिक अभिनन्दन की प्रक्रिया पूर्ण की जाती है, उसका मूल भी मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम् संस्कारों तक में विहित है। इसीलिये शुक्र नीति में ये प्रियाणि प्रभाषन्ते प्रियमिच्छन्ति सत्कृतम्। श्रीमन्तो वन्द्यचरिता देवास्ते नरविग्रहा: ऐसा कहकर मधुर भाषण की सृष्टि का सृजन किया गया है। यही सोचकर भगवान कृष्ण ने भी गीता में- अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियं हितञ्च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाड्मयं तप उच्यते। मधुर भाषण को जहाँ वाणी का तप कहा है, वहाँ चाणक्य ने भी इसे अपनी नीति में यह कहकर नीति का एक प्रमुख अंग माना है कि- यदिच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा। परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय।
स्वच्छता- आज स्वच्छ भारत अभियान अति वेग से चल रहा है। संसार के समस्त सभ्य समुदायों में स्वच्छता को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है, जो एक निवास स्थान की स्वच्छता तथा अपने शरीर आदि की स्वच्छता के रूप में वैदिक काल से ही प्रचलित है। वैदिक ऋषियों ने तो इसे यम-नियमों में शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ऐसा कहकर विशेष स्थान दिया है। इसीलिए स्मृतिकार कभी पीछे नहीं रहे और उन्होंने भी एक विशिष्ट और अद्भुत आदर्श विहित कर दिया है-
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।
सत्यपूतं वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्॥
अभ्दिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुद्ध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति॥
वेदों में तो सन्ध्या तथा अग्निहोत्र आदि के द्वारा एक नैत्यिक नियम तक प्रतिपादित कर दिया गया है। कोई भी सभ्य फिर चाहे वह कहीं का भी निवासी, किसी भी वर्ण, वर्ग आदि का सदस्य हो, यदि वह इस नियम की अवहेलना करता है तो निस्सन्देह तथा निर्विवाद असभ्य ही समझा जाता है।
स्वाध्याय- इसी प्रकार स्वाध्याय करना, पढाना-लिखना आदि तो सभ्य समाज का एक आभूषण ही है। इसके बिना तो सभ्यता मानो निष्प्राण विकल कलेवर ही मानी जायेगी। वैदिक पद्धति में तेा एक उपनिषद् ही इसका पूर्णतः प्रतिपादन करती है और विशेष रुप से स्नातक हो जाने पर स्वाध्यायान्मा प्रमद, सत्यं वद, धर्म चर, आचार्यदेवो भव आदि वाक्यों से वैदिक सभ्यता एक विशिष्ट आदेश करती है। जिन समुदायों, सम्प्रदायों या वर्गों में अध्ययन-अध्यापन का स्वरूप अनुपलब्ध है, उन्हें आज विश्व के समस्त कोनों में असभ्य जाति कहकर पुकारा जाता है। और उन्हें सभ्य बनाने के लिए एक सुसंगठित समुदाय द्वारा ही नहीं, अपितु विश्व की समस्त सरकारों द्वारा भी विशेष प्रयास किया जाता है।
गुरु-शिष्य परम्परा- यद्यपि भारत में आज इस परम्परा का उच्छेद दीख रहा है, तथापि सर्वत्र आज भी पढानेवालों की पारस्परिक व्यवहार पद्धति एक ही प्रचलित है। उसमें एक-दूसरे का सम्मान और एक-दूसरे की आवश्यकतापूर्ति तथा आचरणसरणि सर्वत्र देखी जा सकती है।
संसार के किसी भी भाग में गुरु-शिष्यों की सभ्यता, शिक्षा और उनकी स्नेहवृत्ति का एक सा ही स्वरूप दृष्टिगोचर होगा। इसलिए शास्त्रकारों ने गुरुमहिमा को लेकर अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानञ्जनशलाकया। चक्षुरुमीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः कहते हुए अपने विचार व्यक्त किये हैं। ऋषियों ने भी- सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै कहकर इसी की महिमा का स्मरण कराया है।
माता-पिता और पुत्र की आचारसंहिता- कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं दृशेयं मातरञ्च॥ ऋग्वेद के इस मन्त्र के अनुसार हमें पुनर्जन्म और मुक्ति से निवृत्ति को लेकर माता-पिता और पुत्र के सम्बन्ध में एक नये प्रकार की आचारसंहिता देखने का मिलती है। मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषः ब्राह्मण ग्रन्थों के इस वचनानुसार जो वर्णाश्रम मर्यादा प्रस्तुत की गई है, वह आज भले ही विश्व में न हो, किन्तु उसका सूक्ष्म स्वरूप तो सार्वभौम होकर ऐसा व्याप्त हो गया है कि उससे छुटकारा सम्भव ही नहीं। पढाने वाले, रक्षा करनेवाले, धन कमाने वाले और शारीरिक श्रम करने वाले, इन चार भागों में आज भी संसार बंटा हुआ है। व्यावहार में भी पढानेवालों को चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो उसे शिक्षक ही कहेंगे। ऐसे ही रक्षक, धनपति तथा श्रमिक-सेवक आदि भी कहे जाते हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम न होने पर भी पढने का विभाग, अस्त-व्यस्ताश्रम मर्यादा के अभाव में भी गृहस्थी, वानप्रस्थाश्रम न होने पर भी बूढों का विश्राम, संन्यास आश्रम के अभाव में भी समस्त सम्प्रदायों में साधुओं का प्राचुर्य पाया जा रहा है। अतः ब्रह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः आदि का वैशिष्ट्य आज भी किसी न किसी सभ्यता के रूप में जीवित है ही। इसी तरह वीरता, गम्भीरता, औदार्य, सौजन्य, कृतज्ञता, तितिक्षा, क्षमा, भक्ति, अनुरक्ति, स्वदेश भक्ति आदि आदि गुण गौरव और आदर्श मर्यादाओं की सुशिक्षा प्राचीन सभ्यता से ही प्रसूत होकर आज तक पल्लवित-पुष्पित और फलित होती चली आ रही हैं। - आचार्य डॉ. संजयदेव (वेद मंथन) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 3 | Explanation of Vedas & Dharma | मजहब ही सिखाता है आपस में बैर | क्रांतिकारी प्रवचन