विशेष :

जीवन का उद्देश्य

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

इस संसार में हमारा जीवन जन्म से आरम्भ होता है। जन्म शब्द का अर्थ है- पैदा होना। दूसरी पैदा होने वाली चीजों में जैसे कई वस्तुओं का मेल होता है, ऐसे ही हमारे जन्म के रूप में आत्मा-मन और इन्द्रियों का संयोग है। शरीर शब्द सारे धड़ के लिए आता है, जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक आँख आदि इन्द्रियाँ है। यहाँ साँस लेने-छोड़ने और देह धारण करने का कार्य प्राण करते हैं। जैसे हम आँख से बाहर के दृश्यों को देखते हैं, वैसे ही हमारे अन्दर भी सोचने, निर्णय करने, पिछली यादें याद करने तथा मैं-मेरेपन की भावना प्रकट करने की बात होती है। जिनके द्वारा ये कार्य होते हैं, उनको अन्तःकरण (= अन्दर की इन्द्रियाँ, साधन) कहते हैं। ये मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के नाम से चार हैं।

इन्द्रिय- अन्तःकरण- प्राण जिसकी चेतना, प्रेरणा से अपना-अपना कार्य करते हैं, वही आत्मा है। यह अजर- अमर- चेतन सत्ता है। यही शरीर आदि का अधिष्ठाता और संचालक है। जीवित अवस्था में हम जो भी व्यवहार करते हैं, वह आत्मा-अन्तःकरण-इन्द्रियों के मेल से ही होते हैं। इस मेल के बिना अकेला आत्मा कोई व्यवहार नहीं कर सकता है।

मरण शब्द जन्म के विपरीत भाव को रखता है। अतः मेल, बनावट, उत्पन्न का आँखों से ओझल हो जाना ही मौत, मृत्यु है। जैसे मकान बहुत सारी चीजों का मेल है। समय के साथ साथ एक दिन उसका तालमेल ढीला पड़ जाता है। कई बार समय से पहले भी किसी प्रकार की टक्कर, भूचाल, आग, बनावट की गड़बड़ के कारण वह तालमेल बिखर जाता है। तब वह ध्वस्त वस्तु अपने होने वाले कार्य को नहीं करती।

किसी की मृत्यु होने पर तात्कालिक परिस्थितियों से परिचित कराने के लिए पंछी उड़ गया, प्राण निकल गए, खेल खत्म हो गया, शरीर ठण्डा पड़ गया तथा वियोग, बिछोह जैसे शब्द प्रायः बोले जाते हैं। इनसे मौत के विविध पहलुओं की पहचान सामने आती है। जैसे कि व्यक्तिगत स्तर पर एक सूक्ष्म आत्मा अपने पूर्व प्राप्त शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से जहाँ अलग हो जाती है, वहाँ स्पष्ट रूप से देहधारी सामाजिक स्तर पर परिवार-रिश्तेदारों-मित्रों-पड़ोसियों तथा विविध क्षेत्र के कारोबारियों से बिछुड़ता है। तभी तो कहा गया है-
अपने ग्रह को छोड़ चला यह, नाते-रिश्ते तोड़ चला यह।
सबसे मुख मोड़ चला यह॥

इन सभी तरह की भावनाओं को ध्यान में रखकर वेद ने कहा है-
अश्‍वत्थे वो निषदनम्, पर्णे वो वसतिष्कृता।
गोभाज इत्किलासथ, सत्सनवथ पूरुषम्॥ यजुर्वेद 12.79॥

शब्दार्थ= अश्‍वत्थे= न+श्‍व+स्थ अर्थात जिसका भरोसा नहीं है कि कल रहेगा या नहीं ऐसे संसार में वः= तुम सबका निषदनम्= बैठना, रहना है। पर्णे= पत्ते जैसे परिवर्तनशील देह में वः= तुम्हारा वसतिः=बसेरा कृता= किया गया है, बना हुआ है। अतः गोभाजः= गो=विविध ज्ञानों की गति, प्राप्ति, अनुभव कराने वाली इन्द्रियों और इन इन्द्रियों के आश्रय स्थल शरीर और देह के कारण, आधार पाँच भूतों तथा गतिशील सूर्य-चन्द्र, बुद्धि आदि का भाजः= सेवन करने वाले अर्थात ऐसे अनोखे मानव देह वाले इत् किल= ही, निश्‍चित रूप से असथ= इस-इसका सदुपयोग करने वाले होवो, बनो। यत्= कि जिससे पुरुषम्= पूर्णता को सनवथ= प्राप्त करो, प्राप्त कर सको।

भावार्थ- तुम्हारा बसेरा चलायमान संसार में है और पत्ते की तरह पतनशील देह में तुम्हारा वास है। अतः इन इन्द्रियों, पृथिवी-सूर्य और बुद्धि आदि का उचित उपयोग करते हुए अपने आपको पूर्ण बनाने का प्रयास करो।

व्याख्या- मन्त्र का प्रथम चरण है- अश्‍वत्थे वो निषदनम्। इसका अभिप्राय है कि दुनिया में जितनी भी भौतिक चीजें हैं, जिनको प्रतिक्षण हम अपने व्यवहार में वर्तते हैं। वे सारी की सारी आहार, वस्त्र, बर्तन, भवन, फर्नीचर आदि सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील, चलायमान, नाशवान हैं। उनमें अपने-अपने नियम के अनुरूप सदा परिवर्तन आता रहता है और फिर एक दिन वे आँखों से ओझल हो जाती हैं। अतः हे, दुनिया वालो! अपनी सुख-सुविधाओं के लिए इन चीजों को खुशी-खुशी इकट्ठा करो। पर ध्यान रखना, ये साथ जाने वाली नहीं हैं।

पर्णे वो वसतिः- केवल हमारे द्वारा वर्ते जाने वाले भौतिक पदार्थ ही अस्थिर, अनित्य नहीं हैं, अपितु हमारा शरीर भी नाशवान, जीर्ण-शीर्ण होने वाला है। पता नहीं कब, किधर से आँन्धी का कैसा झौंका आए और यह डण्ठल से अलग हुए पत्ते की तरह नीचे पड़ा दिखाई दे। अतः पतनशील शरीर में तुम्हारा वास है। आए दिन मौत की जो भी घटनाएँ सामने आ रही हैं, उनसे भी यही सिद्ध हो रहा है कि इस शरीर का कोई भरोसा नहीं, यह कब जवाब दे जाए? क्योंकि शरीर जीर्ण-शीर्ण होने वाला है।

स्वर्ण अवसर- इस प्रसंग में यह बात विशेष सोचने वाली है कि क्या इस कर्मभूमि पर मानव चोले जैसे सुन्दर रूप को प्राप्त करके हम इसका कुछ विशेष लाभ उठाने का प्रयास करते हैं या केवल स्वार्थ साधने या किसी प्रकार से अभिमान के नशे में ही चूर रहते है?

जीवन का उद्देश्य- आइए ! अब मन्त्र के चौथे चरण की भी कुछ चर्चा कर लें। वह है- यत्सनवथ पूरुषम्। इसका भाव है अपने आपको पूर्ण बनाना। जीवन को नाटक या खेल जैसा समझकर उसमें हर प्रकार की कुशलता और सफलता प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए। जैसे किसी खेल में जब एक खिलाड़ी को खेलने का अवसर प्राप्त होता है, तो वह वहाँ अपनी निपुणता, योग्यता प्रस्तुत करता है। उसका अच्छा अवसर सुरक्षित हो जाता है और यही वहाँ की पूर्णता कही जा सकती है। ठीक इसी प्रकार मानव जीवन के माध्यम से हमें एक ऐसा स्वर्ण अवसर प्राप्त होता है इसमें जहाँ हम सामयिक जीवन को पूर्ण, विकसित बनाने में समर्थ हो सकते हैं, वहाँ अपने इस जन्म के शुभ कर्मों से भावी जन्म को भी अच्छे रूप में सुरक्षित, सुनिश्‍चित कर सकते हैं।

भारतीय साहित्य और संस्कृति में मानव जीवन की पूर्णता मोक्ष में मानी गई है। धर्माचरण ही मोक्ष प्राप्ति का परम साधन है तथा ईश भक्ति-उपासना इसी के अन्तर्गत आते हैं। साधना स्वस्थ शरीर, निर्मल मन से सिद्ध होती है। अतः जीवन के पूर्ण विकास-निखार के लिए अपने आपे के सभी तत्वों का सन्तुलित आहर के सदृश सन्तुलन रखना आवश्यक है। सेवा-पूर्णता प्राप्ति का सरल साधन है। प्रत्येक व्यक्ति यथारुचि, यथाशक्ति इसको अपना सकता है।

यूँ फूल तो गुलशन में खिलते हैं हजारों ही।
हो जिसमें भरी खुश्बू जीवन तो उसी का है॥ 

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 6 | राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता - 2 | राष्ट्र धर्म हेतु बलिदान देश भक्त क्रांतिकारी