महर्षि वाल्मीकि ने ब्राह्मणों के मुख से वेद का गौरव इस प्रकार व्यक्त कराया है-
या हि नः सततं बुद्धिर्वेदमन्त्रानुसारिणी। त्वत्कृते सा कृता वत्स वनवासानुसारिणी॥
हृदयेष्वेव तिष्ठन्ति वेदा ये नः परं धनम्। वत्स्यन्त्यपि गृहेष्वेव दाराश्चारित्ररक्षिताः॥ (वाल्मीकि रामायण अयो. 54.24.25)
जब श्रीराम वन को प्रस्थान कर रहे थे, उस समय अनेक ब्राह्मणों ने भी उनके साथ जाने का निश्चय कर श्रीराम से कहा था- हे वत्स! हमारा मन जो अब तक केवल वेद के स्वाध्याय की ओर ही लगा रहता था, अब उस ओर न लग आपकी वन-यात्रा की ओर लगा हुआ है। हमारा परम धन जो वेद है वह तो हमारे हृदय में है और हमारी स्त्रियाँ अपने-अपने पातिव्रत्य से अपनी रक्षा करती हुई घरों में रहेंगी।
रामायण के पश्चात् अब महाभारत में वेद के गौरव-विषयक विचारों का अवलोकन कीजिए। वेद की गौरव-गरिमा का गान करते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा। आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः॥ (महा. शान्ति. 232.24)
सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भु परमेश्वर ने वेदरूप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया, जिससे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं।
अर्थसहित वेदाध्ययन के महत्व पर बल देते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
यो हि वेदे च शास्त्रे च ग्रन्थधारणतत्परः। न च ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञस्तस्य तद्धारणं वृथा॥
भारं स वहते तस्य ग्रन्थस्यार्थं न वेत्ति यः। यस्तु ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञो नास्य ग्रन्थागमो वृथा॥ (महा. शान्ति. 305.13,94)
जो वेद और शास्त्रों को कण्ठस्थ करने में तत्पर है, परन्तु उनके अर्थ से अनभिज्ञ है, उसका कण्ठ करना व्यर्थ ही है। जो ग्रन्थ के तात्पर्य को नहीं समझता, वह ग्रन्थ को रटकर मानो उसका बोझ ही ढोता है। परन्तु जो अर्थ-ज्ञानपूर्वक पढ़ता है, उसका पढ़ना ही सार्थक है।
इसी तथ्य को महर्षि यास्क ने इस प्रकार प्रकट किया है-
स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम्। योऽर्थज्ञ इत्सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा॥ (निरुक्त 1.18)
जो मनुष्य वेद पढ़कर उसके अर्थों को नहीं जानता, वह भारवाही पशु अथवा वृक्ष के ठूँठ के समान है, परन्तु जो अर्थ को जानने वाला है, वह उस पवित्र ज्ञान के द्वारा अधर्म से बचकर परम पवित्र होता है। वह कल्याण का भागी होता है और अन्त में दुःखरहित मोक्ष-सुख को प्राप्त होता है।
पाठकगण! इस सन्दर्भ का यह अर्थ मत लगाइए कि हमें अर्थ नहीं आते, अतः पढ़ने से छुट्टी मिल गई। ‘वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना प्रत्येक आर्य का परमधर्म है।’ प्रतिदिन वेदपाठ कीजिए। न पढ़ने से पढ़ना उत्तम है लीजिए इस विषय में महर्षि दयानन्द के विचार पढ़िए- “अर्थज्ञानसहित पढ़ने से ही परमोत्तम फल की प्राप्ति होती है, परन्तु न पढ़ने वाले से तो पाठमात्र कर्त्ता भी उत्तम होता है। जो शब्दार्थ के विज्ञानसहित अध्ययन करता है वह उत्तमतर है। जो वेदों का अध्ययन कर अनेक अर्थों को जानकर शुभ गुणों का ग्रहण और उत्तम कार्यों का आचरण करते हुए सर्वोपकारी होता है वह उत्तमोत्तम है।’’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पठनपाठन विषयः) - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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