विशेष :

वेद मानव जाति के सर्वस्व हैं

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जैसे दही में मक्खन, मनुष्यों में ब्राह्मण, ओषधियों में अमृत, नदियों में गंगा और पशुओं में गौ श्रेष्ठ है, ठीक इसी प्रकार समस्त साहित्य में वेद सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

वेद शब्द ‘विद्’ धातु से करण वा अधिकरण में ‘धञ्’ प्रत्यय लगाने से बनता है। इस धातु के बहुत-से अर्थ हैं जैसे ‘विद ज्ञाने’, विद सत्यायाम्’, विद विचारणे’, विद्लृ लाभे’, विद चेतनाख्याननिवासेषु’। अर्थात् जिनके पठन, मनन और निदिध्यासन से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनके कारण मनुष्य विद्या में पारंगत होता है, जिनसे कर्त्तव्याकर्त्तव्य, सत्यासत्य, पापपुण्य, धर्माधर्म का विवेक होता है, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनमें सर्वविद्याएं बीजरूप में विद्यमान हैं, वे पुस्तक वेद कहाती हैं।

वेद ईश्‍वरीय ज्ञान है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में मानवमात्र के कल्याण के लिए दिया गया था। वेद वैदिक-संस्कृति के मूलाधार हैं। वे शिक्षाओं के आगार और ज्ञान के भण्डार हैं। वेद संसाररूपी सागर से पार उतरने के लिए नौकारूप हैं। वेद में मनुष्यजीवन की सभी प्रमुख समस्याओं का समाधान है। वेद सांसारिक तापों से सन्तप्त लोगों के लिए शीतल प्रलेप हैं, अज्ञानान्धकार में पड़े हुए मनुष्यों के लिए वे प्रकाशस्तम्भ हैं, भूले-भटके लोगों को वे सन्मार्ग दिखाते हैं, निराशा के सागर में डूबने वालों के लिए वे आशा की किरण हैं, शोक से पीड़ित लोगों को वे आनन्द एवं उल्लास का सन्देश प्रदान करते हैं, पथभ्रष्टों को कर्त्तव्य का ज्ञान प्रदान करते हैं, अध्यात्मपथ के पथिकोें को प्रभु-प्राप्ति के साधनों का उपदेश देते हैं। संक्षेप में वेद अमूल्य रत्नों के भण्डार हैं। महर्षि दयानन्द के शब्दों में-वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। महर्षि मनु के शब्दों में- वेदोऽखिलो धर्ममूलम्। (मनुस्मृति 2.6) वेद धर्म की मूल पुस्तक है। वेद वैदिक विज्ञान, राष्ट्रधर्म, समाज-व्यवस्था, पारिवारिक-जीवन, वर्णाश्रम-धर्म, सत्य, प्रेम, अहिंसा, त्याग आदि को दर्पण की भाँति दिखाता है।

वेद मानवजाति के सर्वस्व हैं। महर्षि अत्रि के अनुसार- नास्ति वेदात् परं शास्त्रम्। (अत्रिस्मृति 151) वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है। इसीलिए महर्षि मनु ने कहा हैा-
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्। स जीवन्न्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥ (मनुस्मृति 2.168)
जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) वेद न पढ़कर अन्य किसी शास्त्र वा कार्य में परिश्रम करता है, वह जीते-जी अपने कुलसहित शीघ्र शूद्र हो जाता है ।
वेद के मर्मज्ञ और रहस्यवेत्ता महर्षि मनु ने अपने ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर वेद की गौरव-गरिमा का गान किया है। वे लिखते हैं- सर्वज्ञानमयो हि सः। (मनुस्मृति 2.7) वेद सब विद्याओं के भण्डार हैं। वेद में कौन-कौन से विज्ञान भरे हुए हैं-
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्‍चक्षुः सनातनम्। अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः॥
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाः चत्वारश्‍चाश्रमाः पृथक्। भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति॥
बिभर्ति सर्वभूतानि वेदाशास्त्रं सनातनम्। तस्मादेवत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम् (मनुस्मृति 12.94,97,99)
वेद पितर, देव और मनुष्य सबके लिए समातन मार्गदर्शक नेत्र के समान है। वेद की महिमा का पूणरूपेण प्रतिपादन करना अथवा उसे पूर्णतया समझना अत्यन्त कठिन है। चारों वर्ण, तीन लोक, चार आश्रम, भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान विषयक ज्ञान वेद से ही प्रसिद्ध होता है। यह सनातन (नित्य) वेदशास्त्र ही सब प्राणियों का धारण और पोषण करता है। इसलिए मैं इसे मनुष्यों के लिए भवसागर से पार होने हेतु परम साधन मानता हूँ।
मनु जी ने तो यहाँ तक लिखा है कि तप करना हो तो ब्राह्मण सदा वेद का ही अभ्यास करे, वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है (मनुस्मृति 2.166)। “जो वेदाध्ययन और यज्ञ न करके मुक्ति पाने की इच्छा करता है, वह नरक (दुःखविशेष) को प्राप्त होता है’’ (मनुस्मृति 6.37)। ’‘क्रम से चारों वेदों का, तीन वेदों का, दो वेदों का अथवा एक वेद का अध्ययन करके अखण्ड ब्रह्मचारी रहकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए।’’ (मनुस्मृति 3.2)। आज यदि महर्षि मनु का विधान लागू हो जाए तो सारे विवाह अयोग्य, अनुचित हो जाएं। महर्षि मनु ईश्‍वर को न मानने वाले को नास्तिक नहीं कहते, अपितु वेदनिन्दक को नास्तिक की उपाधि से विभूषित करते हैं- नास्तिको वेदनिन्दकः (मनुस्मृति 2.11)।
यद्यपि मनुस्मृति ही सर्वाधिक प्रामाणिक है, अन्य स्मृतियाँ बहुत पीछे बनी हैं और उनमें प्रक्षेप भी खूब हुए हैं, परन्तु वेद के विषय में सभी स्मृतियाँ एक ही बात कहती हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं-
यज्ञानां तपसाञ्चैव शुभानां चैव कर्मणाम्। वेद एव द्विजातीनां निःश्रेयसकरः परः॥ (याज्ञवलक्य स्मृति 1.40)
यज्ञ के विषय में तप के सम्बन्ध में और शुभ-कर्मों के ज्ञानार्थ द्विजों के लिए वेद ही परम कल्याण का साधन है।
अत्रिस्मृति श्‍लोक 351 में कहा गया है-
श्रुतिः स्मृतिश्‍च विप्राणां नयने द्वे प्रकीर्तिते। काणःस्यादेकहीनोऽपि द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः
श्रुति=वेद और स्मृति ये ब्राह्मणों के दो नेत्र कहे गये हैं। यदि ब्राह्मण इनमें से एक से हीन हो तो वह काणा होता है और दोनों से हीन होने पर अन्धा होता है।
बृहस्पतिस्मृति 79 में वेद की प्रशंसा इस प्रकार की गई है-
अधीत्य सर्ववेदान्वै सद्यो दुःखात् प्रमुच्यते। पावन् चरते धर्मं स्वर्गलोके महीयते॥
वेदों का अध्ययन करके मनुष्य शीघ्र ही दुःखों से छूट जाता है। वह पवित्र धर्म का आचरण करता है और स्वर्गलोक में महिमा को प्राप्त होता है। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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