परम पावन श्रीमन्महात्मा रामचन्द्र ‘वीर’ महाराज
राष्ट्रभाषा हिन्दी, हिन्दुत्व, गोमाता तथा राष्ट्र की रक्षा के लिए अपना यौवन समर्पित करने वाले जीवित हुतात्मा परम पावन महात्मा रामचन्द्र ‘वीर‘ महाराज 24 अप्रैल 2009 को विराटनगर (राजस्थान) में अपनी नश्वर देह का त्याग कर महानिर्वांण को प्राप्त हो गये। राष्ट्र एक ऐसी अलौकिक विभूति से वंचित हो गया, जिसका रोम-रोम राष्ट्रभक्ति हिन्दुत्व, धर्म व संस्कृति से अनुप्राणित था। वीर जी ऐसे महावीर थे जिनकी दहाड़ से, ओजस्वी वाणी से, पैनी लेखनी की धार के प्रहार से राष्ट्रद्रोही और धर्मद्रोही कांप उठते थे। वे ऐसे प्राणिवत्सल संत थे जिनका हृदय धर्म व मजहब के नाम पर निरीह पशु-पक्षियों की हत्या देखकर द्रवित हो उठता था। उन्होंने जगह-जगह पहुंचकर अंधविश्वास व गलत रूढियों के कारण की जाने वाली पशुबलि के विरुद्ध न केवल प्रवचनों के माध्यम से जन-जागरण किया, अपितु अनशन व प्रचार करके लगभग ग्यारह सौ देवालयों में पशु बलि की राक्षसी व धर्मविरोधी कुप्रथा को बन्द करवाने में सफलता प्राप्त की। इस महान् गोभक्त विभूति के अनशनों के कारण देश के कई राज्यों में गोहत्या बन्दी कानून बनाये गये। सन् 1966-67 के विराट-गोरक्षा आन्दोलन के दौरान महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज ने गोरक्षा कानून बनाये जाने की मांग को लेकर 166 दिन का अनशन करके पूरे संसार का ध्यान आकर्षित करने में सफलता प्राप्त की थी। हिन्दू समाज के मानबिन्दुओं की रक्षा और हिन्दू संगठन के लिए उनका सतत संघर्ष हिन्दू जागरण के इतिहास में एक प्रचण्ड प्रकाश स्तम्भ के रूप में संसार भर के हिन्दू समाज को अनुप्राणित करना रहेगा।
परम पावन सन्त महात्मा वीर जी महाराज का जन्म राजस्थान के पुरातन तीर्थ विराटनगर में एक ब्राह्मण कुल में आश्विन शुक्ला प्रतिपदा विक्रमी सम्वत् 1966 (सन् 1909) में श्रीमद्स्वामी भूरामल्ल जी एवं श्रीमती वृद्धिदेवी के पुत्र के रूप में हुआ था। मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा दिल्ली में हिन्दुओं पर लगाए गए शमशान कर का विरोध करते हुए आत्मोत्सर्ग करने वाले महात्मा गोपालदास जी इनके पूर्वज थे।
स्वाधीनता संग्राम में जेल- युवावस्था में पंडित रामचन्द्र शर्मा ‘वीर’ के नाम से विख्यात इस विभूति ने कलकत्ता एवं लाहौर के कांग्रेस अधिवेशनों में भाग लेकर स्वाधीनता का संकल्प लिया। सन् 1932 में उन्होंने अजमेर के चीफ कमिश्नर गिव्हसन की उपस्थिति में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध ओजस्वी भाषण देकर अपनी निर्भीकता का परिचय दिया। परिणामस्वरूप उन्हें छह माह के लिए जेल भेज दिया गया। रतलाम और महू में उनके सरकार विरोधी ओजपूर्ण भाषणों से प्रशासन कांप उठा था।
वीरजी को गोभक्ति पिताश्री से विरासत में मिली थी। उन्होंने जब देखा कि विभिन्न नगरों में कसाईखाने बनाकर गोवंश को नष्ट किया जा रहा है, तो उन्होंने गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगने तथा अन्न और नमक ग्रहण न करने का संकल्प लिया, जिसका उन्होंने अंतिम समय तक दृढ़ता से निर्वहन किया।
काठियावाड़ के नवाबी राज्य मांगरौल के शासक शेख मुहम्मद जहांगीर ने राज्य में गोवंश की हत्या को प्रोत्साहन दिया। वीर जी को गोभक्तों से पता चला तो वे सन् 1935 ई. में मांगरोल जा पहुंचे। गोहत्या रोकने की मांग को लेकर उन्होंने अनशन शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप राज्य में गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
वीर जी अप्रैल 1935 में कल्याण (मुम्बई) के निकटवर्ती गाँव तीस के दुर्गा मंदिर में दी जाने वाली निरीह पशुओं की बलि के विरुद्ध संघर्षरत हुए। जनजागरण व अनशन के कारण मंदिर के ट्रस्टियों ने पशुबलि रोकने की घोषणा कर दी। उन्होंने भुसावल, जबलपुर तथा अन्य अनेक नगरों में पहुंचकर कुछ देवालयों में होने वाली पशुबलि को घोर अमानवीय व अधार्मिक कृत्य बताकर इस कलंक से मुक्ति दिलाई। उनके पशुबलि विरोधी अभियान ने विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के हृदय को द्रवित कर दिया। विश्वकवि ने वीर जी के मानवीय भावनाओं से इस ओतप्रोत अभियान के समर्थन में अपने हाथों से बंगला में एक कविता लिखी। उसकी निम्न चार पंक्तियाँ हैं-
महात्मा रामचन्द्र वीर
प्राणघातकेर खड़्गे करिते धिक्कार
हे महात्मा, प्राण दिते चाऊ आपनार,
तोमारे जानाइ नमस्कार।
महात्मा वीर महात्मा ने सन् 1932 से ही गोहत्या के विरुद्ध जन-जागरण अभियान शुरु कर दिया था। उन्होंने अनेक राज्यों में गोहत्या बन्दी की मांग को लेकर अनशन किये। सन् 1966 में सर्वदलीय गोरक्षा अभियान समिति ने दिल्ली में व्यापक आन्दोलन चलाया। संसद के समक्ष लाखों गोभक्तों की भीड़ पर कांग्रेसी सरकार ने गोलियां चलवाकर अनेक गोभक्तों का खून बहाया, गोहत्या तथा गोभक्तों के नरसंहार के विरुद्ध पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ, सन्त प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा महात्मा वीर महाराज ने अनशन किये। वीर जी ने 166 दिन का अनशन करके पूरे संसार तक गोरक्षा की मांग पहुंचाने में सफलता प्राप्त की थी।
महात्मा वीर महाराज एक यशस्वी लेखक कवि तथा ओजस्वी वक्ता थे। उन्होंने देश तथा धर्म के लिए बलिदान देने वाले हिन्दु हुतात्माओं का इतिहास लिखा। हमारी गोमाता, वीर रामायण (महाकाव्य), हमारा स्वास्थ्य जैसी दर्जनों पुस्तकें लिखकर उन्होंने साहित्य सेवा में योगदान दिया। वीर जी महाराज ने देश की स्वाधीनता, मूक-प्राणियों व गोमाता की रक्षा तथा हिन्दू हितों के लिए 28 बार जेल यातनाएँ सहन की। वीर जी राष्ट्रभाषा हिन्दी की रक्षा के लिए भी संघर्षरत रहे। एक राज्य ने जब हिन्दी की जगह उर्दू को भाषा घोषित किया, तो महात्मा वीर जी ने उसके विरुद्ध अभियान चलाया व अनशन किया। वीर विनायक दामोदर सावरकर ने उनका समर्थन किया था।
सरसंघचालक श्री मा.स. गोलवलकर जी (श्री गुरुजी), भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार, लाला हरदेवसहाय, महन्त दिग्विजयनाथ जी, सेठ विशनचन्द्र, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्री जी जैसी विभूतियाँ महात्मा वीर जी के त्याग-तपस्यामय जीवन तथा गाय और हिन्दुत्व की रक्षा के लिए किए गए संघर्ष के कारण उनके प्रति आदर भावना रखते थे।
एक बार कुछ गांधीवादियों ने ‘हिन्दुस्तानी भाषा’ के नाम पर हिन्दी भाषा के शुद्ध स्वरूप को विकृत कर उसमें उर्दू-फारसी के शब्द घुसेड़ने का प्रयास किया तो वीर जी ने लिखा-
हिन्दी को मरोड़, अरबी के शब्द जोड़-जोड़,
‘हिन्दुस्तानी’ की जब खिचड़ी पकाएंगे।
हंस से उतारकर वीणा पाणी शारदा को,
मुर्गे की पीठ पर खींचकर बिठाएंगे।
‘बादशाह दशरथ’ ‘शहजादा राम’ कह,
‘मौलवी’ वशिष्ठ-बाल्मीकि को बताएंगे।
देवी जानकी को वीर ‘बेगम‘ कहेंगे जब,
तुलसी से सन्त यहाँ कैसे फिर आएंगे।
हिन्दी-हिन्दुत्व और हिन्दूराष्ट्र भारत के लिए उनके अनुपम त्याग, तप और बलिदान का अद्वितीय इतिहास उन्हें एक हुतात्मा रूप में प्रतिष्ठित कर चुका था। मेरा यह परम सौभाग्य रहा कि पिताश्री भक्त रामशरणदास जी के प्रति परम स्नेह के कारण महात्मा वीर महाराज अपने सुयोग्य व यशस्वी सुपुत्र आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी के साथ अनेक बार पिलखुवा में हमारे अतिथि रहे। इन दिव्य विभूति का हमारे परिवार को अनेक दशकों तक आशीर्वाद प्राप्त होता रहा। श्री पञ्चखंडपीठ (विराट नगर-जयपुर) जाकर मैंने व पिता जी ने उनके चरणस्पर्श करने का सौभाग्य भी प्राप्त किया था। पूज्य वीर जी महाराज के हिन्दू हृदय की धधकती ज्वाला में राष्ट्रद्रोहियों को प्रकंपित करने की अनूठी क्षमता थी। मैं इसका साक्षी रहा हूँ।
महात्मा रामचन्द्र ‘वीर’ महाराज को उनकी साहित्य, संस्कृति तथा धर्म की सेवा के उपलक्ष्य में 13 दिसम्बर 1998 को कोलकात्ता में बड़ा बाजार लाइब्रेरी की ओर से ‘भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार राष्ट्र सेवा सम्मान’ से अलंकृत किया गया था। गोरक्ष पीठाधीश्वर पूर्व सांसद महन्त अवैद्यनाथ जी महाराज ने उन्हें शाल तथा एक लाख रुपया भेंट किया था। महन्त जी ने कहा था, “महात्मा वीर ने दधीचि के समान अपना समस्त शरीर ही हिन्दुत्व व उसके मानबिन्दुओं की रक्षा के लिए समर्पित कर सर्वस्व दान का अनूठा आदर्श उपस्थित किया है।“ आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने उन्हें ‘जीवित हुतात्मा’ बताकर उनका अभिनन्दन किया था।
25 अप्रैल को विराट नगर में शतवर्षीय इस महान विभूति के बज्र शरीर को उनके असंख्य भक्तों व शिष्यों के बीच अग्नि को समर्पित कर दिया गया। उनके तेजस्वी एवं यशस्वी सुपुत्र आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी महाराज ने घोषणा की कि वे महात्मा वीर जी महाराज के हिन्दूराष्ट्र की स्थापना के सपने को साकार करने के लिए सतत संघर्षशील रहेंगे। - शिवकुमार गोयल
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