महात्मा रामचन्द्र ‘वीर‘ ने ज्ञान की खोज में घर का त्याग तब किया था, जब वे न ‘महात्मा’ थे न ‘वीर’। 14 वर्ष का बालक रामचन्द्र आत्मा की शान्ति को ढूँढता हुआ अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द के पास जा पहुँचा। वहाँ उसे ठाँव मिलता उसके पूर्व ही ममतामय पिता उसे मनाकर वापस ले आये, किन्तु तभी हत्यारे अब्दुल रशीद की गोलियों से बींधे गये स्वामी श्रद्धानन्द के उत्सर्ग के समाचार ने रामचन्द्र के रोम-रोम में स्वधर्म के आहत स्वाभिमान की ज्वालाएँ सुलगा दीं और रामचन्द्र फिर निकल पड़ा। अमर हुतात्मा पूर्वज स्वामी गोपालदास की अतृप्त बलिदानी आत्मा ही मानो उसके अन्तःकरण में आ विराजी थी।
भारत के ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में हिन्दुत्व का शंख घोष करते रामचन्द्र शर्मा कैसे पंडित रामचन्द्र शर्मा ‘वीर‘ बने और कैसे स्वामी रामचन्द्र ‘वीर‘ अथवा महात्मा ‘वीर‘ के रूप में भारत के क्षितिज पर प्रकट हुए, इसकी कथा बहुत लम्बी है। जितनी लम्बी, उतनी ही रोमांचकारिणी और तेजस्विनी भी। अपनी अधूरी आत्मकथा ‘विकटयात्रा’ को महात्मा वीर ने अत्यन्त संक्षेप में 650 पृष्ठों में समेटा है और वह भी केवल 1953 तक की ही कथा है। महात्मा रामचन्द्र वीर के जीवन और कार्यों को समेटने के लिए एक महाग्रन्थ चाहिए। उनके जीवनवृत्त का सिंहावलोकन करते हुए संशय यह होता है कि हम किसी व्यक्ति की कथा पढ़ रहे हैं या अनेक संस्थाओं के समवेत कार्यों का लेखा-जोखा देख रहे हैं, क्योंकि जितने और जैसे महान् कार्य महात्मा वीर ने अकेले सम्पन्न किये हैं, उतने और वैसे कार्य अनेक संस्थाएँ ही कर सकती हैं।
महात्मा वीर का जीवन तपस्या का, त्याग का, यातनाओं का, संघर्षों का और युद्धों का तथा विपरीत परिस्थितियों में स्वधर्म रक्षा के लिए सतत सत्याग्रह का एक ज्वलन्त-जागृत इतिहास है। एक तपस्वी को, एक योद्धा को, एक सत्याग्रही को, एक मुनि को, एक महर्षि को, एक सर्वभूतवत्सल सन्त को, एक महाकवि को और एक समाज सुधारक क्रान्तिकारी को हम महात्मा रामचन्द्र ‘वीर‘ के रूप में एक साथ देख सकते हैं।
महात्मा वीर के अतिरिक्त ऐसी तपस्या, ऐसा मनोनिग्रह, ऐसा संकल्प, ऐसी दृढ़ता, ऐसा हठ और ऐसी करुणा तथा कोमलता हम एकत्र रूप में किसी एक ही व्यक्ति में अन्यत्र कहाँ देख पाएँगे? हिन्दुत्वाभिमान, स्वधर्म प्रेम और देशभक्ति की उत्कण्ठता हमें महात्मा वीर के पावन चरित में देखने को मिलती है। - स्वामी कल्याणचन्द्र त्रिखण्डीय
रौद्र और करुण रसों का समन्वय
महात्मा वीर द्वारा एक गुंडे के चंगुल से एक पथभ्रष्ट देवी का उद्धार करने से चिढ़े हुए साम्प्रदायिक गुण्डों ने जलगाँव (महाराष्ट्र) में भरी सभा में उन पर सामूहिक आक्रमण कर दिया। एक गुण्डा तो घातक शस्त्र लेकर मंच पर ही जा चढ़ा। महात्मा रामचन्द्र वीर के वज्र तुल्य कठोर डण्डे का प्रचण्ड प्रसाद पाकर सहस्त्रों के जनसमूह की साक्षी में आक्रमणकारी गुण्डा सीधा यम-लोक पहुँच गया। ऐसे अनेक आक्रमणों का जिन परमयोद्धा सन्त ने दृढ़ता से प्रतिकार किया हो, उन्हीं सन्त को कलकत्ता में कालीघाट के और गया में बगुलामुखी देवी के पण्डों के हाथों शान्त भाव से लाठियों, पत्थरों और लातों घूँसों के प्रहार सहते देखकर, पशुबलि देने को उद्यत हिंसक हत्यारों के आगे अपना मस्तक प्रस्तुत करते देखकर किसे आश्चर्य नहीं होगा?
महात्मा वीर के चरित्र में रौद्र और करुण रसों का अद्भुत समन्वय है। स्वभाव और आचरण के इस विरोधाभास के रहस्य को वे हँसकर इस शब्दों में प्रस्तुत करते हैं- “सत्य के पक्ष में जब जैसा अवसर हो, पिटकर या पीटकर संघर्ष करते रहने में मेरी आस्था है। इसमें विरोधाभास कहाँ है?’’ - साभार : वीरार्चना स्मारिका 1998
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