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वर्तमान युग के दधीचि अमर हुतात्मा (2)

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veerji

श्रीमन्महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज
यह देश का दुर्भाग्य है कि निर्मल हृदय वीर की अपने प्रति भक्ति को गान्धी जी सहेजकर नहीं रख सके और अनेक देशभक्तों सहित वीर जी महाराज भी गान्धी जी की ईर्ष्या और द्वेष के पात्र बन गये। अन्यथा सावरकर, भगतसिंह, नेता जी और वीर जी महाराज को यदि गान्धी जी के हृदय ने स्नेह एवं आत्मीयता से स्वीकार किया होता, तो आज देश की यह दुर्गति नहीं होती। गान्धी जी तो सरदार वल्लभ भाई पटेल तक को मन से ग्रहण नहीं कर सके। अपने से असहमत बड़े से बड़ा महापुरुष भी गांधी जी को सहन और स्वीकार नहीं होता था।

किन्तु सावरकर जी ने, नेता जी ने, भगतसिंह ने और वीर जी महाराज ने गान्धी जी के द्वारा मिले प्रकट और अप्रकट प्रहारों की कभी परवाह नहीं की। सरदार पटेल तो अपने गुरु गान्धी जी से उनके जीवन की अन्तिम सन्ध्या तक असहमत रहे। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन को भी अपने गुरु गान्धी जी को ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के अध्यक्ष पद से हटाने का निर्णय करना पड़ा था।

स्वयं से असहमत सत्पुरुषों से असहयोग और उनका विरोध करना गान्धी जी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी। यही कारण था कि जब कलकत्ता में कालीघाट मन्दिर को पशुहत्या के कलंक से मुक्त करने के महान उद्देश्य से वीर जी महाराज ने अनशन व्रत लेकर अपने जीवन को दाव पर लगा दिया, तो विश्‍वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, विज्ञानाचार्य सर प्रफुल्लचन्द्र राय, पत्रकारप्रवर रामानन्द चट्टोपाध्याय एवं महामना मालवीय जी सहित पूरा देश वीर जी महाराज के मिशन में उनके साथ था, तो एक अकेले गान्धी जी इस पवित्र आन्दोलन के विरुद्ध विषवमन कर रहे थे। कैसी विडम्बना है कि जिस महाप्राण तपस्वी वीर की गान्धी जी के ‘गुरुदेव’ रवीन्द्रनाथ वन्दना कर रहे थे और गान्धी जी के परम शिष्य श्री हरिभाऊ उपाध्याय अभ्यर्थना कर रहे थे, गान्धी जी मृत्युशैया पर पड़े उन्हीं अनशनकारी वीर को अनशन करने के पूर्व इसकी योग्यता प्राप्त कर लेने की सलाह दे रहे थे। गान्धी जी को यह सहन नहीं था कि उनका कोई समकालीन उनसे कनिष्ठ होकर त्याग में, तपस्या में, सत्याग्रह में या दृढ़ संकल्प में उन्हें पीछे छोड़कर आगे निकल जाये।

गान्धी जी के विषवमन से कालीघाट के पण्डों को प्रचुर बल मिला और वे अपने दुराग्रह पर अड़ गये अन्यथा कालीघाट मन्दिर पशुबलि के कलंक से सर्वथा मुक्त हो गया होता। कलकत्ता के अनशन तथा आन्दोलन की विराटता और व्यापकता के सामने, इसके पूर्व वीर जी महाराज द्वारा काठियावाड़ (गुजरात) की मुस्लिम रियासत मांगरोल में खुलेआम हो रही गोहत्या के विरुद्ध अक्षरशः अकेले ठान दिये गये अनशन व्रत की समर्थन शून्यता की तो कोई तुलना ही नहीं है। किन्तु विविध अत्याचार सहन करते, अनशन की स्थिति में ही यत्र-तत्र भटकते, महान एकल सत्याग्रही वीर जी की तपस्या ने विपुल जन-समर्थन अर्जित किया था और ब्रिटिश सरकार के दबाव से मुस्लिम रियासत मांगरोल के नवाब शेख जहांगीर को अपनी रियासत में गोहत्या बन्द करने का फरमान जारी करना पड़ा था।

इसके तुरन्त पश्‍चात कल्याण के निकट तीस माता के मन्दिर से पशुबलि बन्द कराने में वीर जी महाराज को अद्भुत सफलता प्राप्त हुई थी। किन्तु कलकत्ता में गान्धी जी की ईर्ष्या ने रवीन्द्रनाथ और मालवीय जी महाराज जैसी विभूतियों के समर्थन तथा विराट आन्दोलन पर पानी फेर दिया।

तथापि यह अविस्मरणीय तथ्य है कि एक लाख श्रद्धालु नर-नारियों ने प्रतिज्ञापूर्वक कालीघाट मन्दिर का बहिष्कार कर दिया। कालीघाट में होने वाला पशु-संहार 30 प्रतिशत रह गया और कलकत्ता के अनेक मन्दिर पशुबलि के कलंक से मुक्त हो गये तथा सम्पूर्ण विश्‍व में प्राणिवत्सलता का अभूतपूर्व वातावरण बन गया।किन्तु महात्मा वीर कालीघाट के कलंक को कम नहीं करना चाहते थे, वरन् जड़ से मिटा देना चाहते ते। सो उन्होंने अपने कतिपय अनुयायियों के साथ मन्दिर के द्वार पर सत्याग्रह किया और फलस्वरूप अपने प्राणों के प्यासे धर्मध्वजी, क्रूर, पाषाण-हृदय पण्डों का हिंसक आक्रमण झेला। कालीघाट के पण्डों द्वारा किये गये प्रहारों के चिन्ह परमसंत वीर जी महाराज की तपःपूत दिव्य देह पर आजीवन बने रहे। विडम्बना यह कि गोरी सरकार की पुलिस ने आक्रमणकारियों की शिकायत पर सत्याग्रही सन्त को कारागार में डाल दिया।

महाराजश्री पर ऐसा ही आक्रमण बिहार के गया जिले के बगुलामुखी मन्दिर के पण्डों ने भी किया। देवी-देवताओं के नाम पर काटे जाने वाले पशु-पक्षियों के मांस को गटकने में परम धन्यता का अनुभव करने वाले पाखण्डी पण्डे मूक जीवों के संरक्षक महात्मा वीर को अपना शत्रु मानते थे। सो कुछ अवसरों पर उनके हिंसक आक्रमणों की पीड़ा बोधिसत्व महात्मा वीर को झेलनी पड़ती थी।

केवल पण्डों को ही सन्त वीर से शत्रुता नहीं थी। मुस्लिम लीग रूपी राक्षसी को प्रसन्न करने के लिये भोले-भाले हिन्दुओं के सर्वस्व की बलि अर्पित करने के शौकीन गांधी जी महाराज के तथाकथित अहिंसक चेलों के कोप का भाजन भी वीर जी महाराज को बनना पड़ता था। गांधीवादी महाराजश्री पर धूल फैंकते, पत्थर फैंकते और अपशब्दों की वर्षा भी करते थे। किन्तु अनुकूलता होने पर पाखण्डियों को पीटकर तथा प्रतिकूल अवसरों पर उनसे पिटकर भी परम सन्त श्री वीर ने अपने ध्येय पथ को एक क्षण के लिए भी, स्वप्न में भी कभी नहीं छोड़ा।

महाराजश्री कहते थे- “पिटो या पीटो! किसी भी स्थिति में सत्य के संघर्ष में जीतो।’’ उनकी दृढ़ मान्यता थी कि यह धर्मयुद्ध है और युद्ध में शत्रु को पीटने के लिए कभी स्वयं पिटना भी पड़ता है। शत्रु कौन है? महाराजश्री कहते थे- ‘’हिन्दू जाति की कुरीतियाँ, कुप्रथाएँ, अन्धविश्‍वास और कायरता यही हमारे शत्रु हैं। इनके विरुद्ध सतत संघर्ष में हम पिटें अथवा दुर्जनों को पीटें, दोनों स्थितियों में जड़ता टूटती है और चेतना व्यापक होती है।’’ कितनी स्पष्ट दृष्टि थी महात्मा वीर की! और उसकी यथार्थता के प्रमाण भी देखने को मिलते थे।

देवघर (वैद्यनाथ धाम) के विशाल शिवमन्दिर प्रांगण में बने पार्वती माता के मन्दिर में दोनों नवरात्रों में प्रचुर पशुबलि होती है। मातृप्रतिमा निरीह अजापुत्रों के कटे हुए मुण्डों से ढंक जाती है। पूरे मन्दिर प्रांगण में रक्त बहने लगता है। वीर जी महाराज ने अनेक बार बाबाधाम को इस कलंक से मुक्त करने के कठिन प्रयास किये, किन्तु सफलता नहीं मिली। वैद्यनाथ धाम के इन्हीं पण्डों ने एक बार गांधी जी पर भी आक्रमण कर दिया था। किन्तु वीर जी महाराज पर आक्रमण तो दूर, उनकी सभाओं के श्रोताओं में पण्डे ही अधिक होते थे और वीर जी महाराज के वाक्यों पर करतल ध्वनि करते तथा हर्ष व्यक्त करते थे। महाराजश्री ने एक बार पूछा- “जब मेरी बातों पर इतने प्रसन्न होते हो, तो उन्हें मानते क्यों नहीं?’’ पण्डों ने कहा- “अच्छी लगती हैं आपकी बातें, इसलिए खुश होते हैं। लेकिन सैकड़ों बरसों की आदत छूटती नहीं, इसलिए मानते नहीं।’’ इससे सटीक उदाहरण भला क्या हो सकता है मानव मन की विसंगतियों का। किन्तु इससे यह भी तो प्रमाणित होता है कि दुर्जन भी सन्तवाणी के सत्य को मन ही मन स्वीकार अवश्य करते हैं, भले ही उनका स्वार्थ उन्हें दुराचरण से विरत न होने देता हो ।

महात्मा वीर विचलित हुए बिना अपने समाज का कायाकल्प करने के अपने एकल सत्याग्रह में प्राणप्रण से जुटे रहे। परिणामस्वरूप उन्हें ऐतिहासिक सफलता प्राप्त हुई। 30 से अधिक जेलयात्राओं और सौ से अधिक अनशनों के फलस्वरूप वे देश के ग्यारह सौ देवमन्दिरों से पशुबलि का अन्मूलन करने में सफल हुए। इन ग्यारह सौ स्थानों में कुछ तो ऐसे हैं, जहाँ वर्ष में सहस्रों पशु काटे जाते थे। इसी प्रकार भारत के अनेक प्रदेशों और राज्यों में गोहत्या पर कानूनी प्रतिबन्ध लगवाने में उन्हें सफलता मिली। (क्रमशः) - शिवकुमार गोयल

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