विशेष :

वर्तमान युग के दधीचि अमर हुतात्मा

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

654654654

श्रीमन्महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज- वर्तमान युग के दधीचि, अमर हुतात्मा, परम पावन, सन्तशिरोमणि श्रीमन्महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज ने अपनी महान् काव्यकृति ‘श्रीरामकथामृत’ की भूमिका में लिखा है-
आर्य जाति ! तू अमर रहेगी, हुए अवतरित तुझमें राम ।
सती शिरोमणि सीता प्रकटी, जन्मे श्री हनुमत बलधाम।
धन्य हमारे दिव्य हिमालय, धन्य-धन्य हे भारत देश !
तेरे विमल वायु में विकसे, कौसल्यानन्दन अवधेश।
महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज की इन पंक्तियों में उनकी श्रीरामभक्ति और भारतनिष्ठा दोनों स्पष्ट व्यक्त होती हैं। भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त होते हुए भी वे अपनी जाति और देश को अपने आराध्य देव से भी अधिक महिमावान मानते थे, जिसमें भगवान श्रीराम ने जन्म ग्रहण कियाथा।

वस्तुतः हिन्दू जाति का परम सौभाग्य है कि उसमें श्रीमन्महात्मा रामचन्द्र वीर का आविर्भाव हुआ। भारत की सनातन ऋषि परम्परा को अक्षुण रखकर अपने लोकोत्तर चरित्र से उसे गौरवान्वित करने वाले लोकपावन सन्तों में महात्मा रामचन्द्र वीर का विशिष्ट स्थान है।

महात्मा वीर के क्रान्तिकारी व्यक्तित्व के अनुरूप आकलन किया जाये, तो वे भगवान रामानन्द, महात्मा कबीर, श्रीसमर्थ रामदास और महर्षि दयानन्द सरस्वती की श्रेणी में स्मरण किये जाने योग्य हैं। धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति के सूत्रधार सन्तों में महात्मा वीर की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता।

इस महान सन्त का सम्पूर्ण जीवन स्वयं में एक विराट आन्दोलन अथवा अद्भुत क्रान्ति के प्रखर प्रवाह का प्रतीक है। मात्र 15 वर्ष की आयु में गृहत्याग तथा 18 वर्ष की आयु में अन्न और लवण के त्याग की दुष्कर तपस्या अंगीकार करने वाले इस महामानव की तुलना महाभारत के पितृपुरुष पितामह देवव्रत भीष्म से ही की जा सकती है।

किन्तु ‘भीष्म-प्रतिज्ञा’ और ‘वीर-प्रतिज्ञा’ के सन्दर्भ में ही यह तुलना सार्थक होगी, अन्यथा इस समानता को छोड़ दें, तो भीष्म और वीर दोनों के चरित्र में बड़ी भारी विसंगति है। भीष्म आजीवन सत्ता के साथ रहे, जबकि महात्मा वीर ने जीवन पर्यन्त सत्य के लिए सत्ताओं से संघर्ष किया। दासता के काल में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष किया, तो तथाकथित स्वराज्य के काल में वे अंग्रेजों के मानस-पुत्रों, उत्तराधिकारियों अर्थात् काले अंग्रेजों की सत्ता से जूझते रहे। भीष्म ने सत्ता प्रतिष्ठान का साथ छोड़ा नहीं और वीर जी महारज ने स्वयं को सत्ता प्रतिष्ठान के साथ कभी जोड़ा नहीं।

पर्वत से पृथ्वी पर उतरने वाली सरिताओं की तीव्रधारा में प्रवाह के अनुकूल सुविधा की नौका में निश्‍चिन्त विहार करने वाले चतुर सुजान तो लाखों हैं, किन्तु युग की धारा के विपरीत ध्येयनिष्ठा की नाव को खेने वाले कालजयी महावीर अत्यन्त विरल होते हैं। महात्मा वीर उन्हीं में एक थे। कोई साथ दे या न दे, कोई सहयोगी हो या न हो, समय का प्रवाह कितना भी प्रतिकूल क्यों न हो, महात्मा वीर जैसी विभूतियाँ व्यवधानों के विपरीत दृढ़संकल्प की पताका थामे अकेले आगे बढ़ते रहती हैं। योगिराज भर्तृहरि ने कहा है-
निन्दतु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।
तथाकथित नीति-निपुण जन निन्दा करें या सराहें, यथेष्ट परिमाण में धनसम्पदा मिले या चली जाए, आज ही मरना पड़े या युगों के बाद, किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में धीर पुरुष न्याय के पथ से कभी विचलित नहीं होते।

महात्मा वीर की विकट जीवन यात्रा का प्रत्येक पृष्ठ पढ़ जाइये, आपको लगेगा मानो त्रिकालद्रष्टा श्रीभर्तृहरि ने अपना यह सूक्ति मन्त्र महात्मा वीर को सामने रखकर ही रचा होगा।

अजमेर सेन्ट्रल जेल में तरुण तपस्वी श्री रामचन्द्र शर्मा के सम्पर्क में आने पर महान गांधीवादी नेता एवं भविष्य में राजस्थान के प्रथम मुख्यमन्त्री श्री जयनारायण व्यास ने उन्हें अपना उपनाम ‘वीर’ रखने का आग्रह किया था। उन्होंने कहा था- “रामचन्द्र शर्मा अधूरा नाम है। आप वीर हैं, ‘वीर’ ही लिखा कीजिए, रामचन्द्र शर्मा वीर।’’
कालान्तर में अपने चरित और चरित्र से महात्मा वीर जी महाराज ने प्रमाणित कर दिया कि वीरत्व छोटी चीज है। वे तो महावीरत्व के पर्याय हैं। वीर नहीं, महावीर हैं। पुनरपि क्या दिव्य संयोग है! आराध्य देव भी महावीर (हनुमान) और आराधक भी महावीर (महात्मा रामचन्द्र वीर)।
जब मूल नाम ‘रामचन्द्र’ गौण हो गया और सारा देश उन्हें ‘वीर जी महाराज‘ के नाम से जानने लगा, तब स्यात् उन्हें संकोच हुआ होगा कि श्रीपंचखण्ड पर्वत पर विराजमान उनके आराध्यदेव को ‘वीर हनुमान’ कहा जा रहा था। जयघोष गूंजता था-
जो बोले सो अभय !
वीर हनुमान की जय !!
वीरा जी महाराज को लगा होगा कि वे ‘रामचन्द्र वीर’ हैं और उनके आराध्य ‘वीर हनुमान’ हैं, उपाधि की यह समानता गलत है। तब उन्होंने विराट नगर अंचल के साथ-साथ सारे देश में जयघोष प्रचलित किया-
जो बोले सो अभय !
वीर हनुमान की जय !!
अपने प्रचारक जीवन में वीर जी महाराज की तपश्‍चर्या से श्रद्धाभिभूत हुए पूर्व उप प्रधानमन्त्री श्री लालकृष्ण आडवाणी 1993 ई. में जब महात्मा वीर और उनके आराध्य देव श्री वज्रांगदेव भगवान के दर्शनार्थ विराटनगर के पर्वत शिखरस्थ पावनधाम-परिसर में पधारे, तो पत्रकारों ने उनसे पूछा- ‘कैसा लग रहा है?’’ तब उन्होंने कहा था- “अभयत्व की अनिर्वचनीय अनुभूति हो रही है।’’

महात्मा वीर के आत्मज तथा उत्तराधिकारी पूज्य आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी महाराज प्रायः अपने प्रवचनों और कथाओं में जोर देकर एक बात कहते हैं-“भक्ति और भय एक साथ नहीं रह सकते। तुम भक्त हो तो भयभीत क्यों हो? भक्त कभी भयभीत नहीं हो सकता। भक्ति का प्रथम और अंतिम लक्षण है निर्भयता।’’गाजियाबाद में आचार्यश्री की भागवत कथा में मैंने यह विवेचन सुना तो उनसे निवेदन किया- “यह निष्कर्ष आपने कहाँ से प्राप्त किया है?’’ उन्होंने गद्गद् कण्ठ से कहा- “अपने पितृदेव महात्मा वीर के चरित से। मैंने उन्हें कभी भयभीत नहीं देखा। शैशव से उन्हें देखता रहा हूँ। भीषणतम और भयानकतम स्थितियों में भी वे सदा अविचलित और निर्भय रहे हैं। क्योंकि वे सच्चे भक्त हैं।’’

वस्तुतः वीर जी महाराज वीरत्व के, महावीरत्व के पर्याय थे और निर्भयता के बिना यह स्थिति प्राप्त नहीं होती। समय के विपरीत चलना, धारा के विरुद्ध चलना, सामने महाकाल भी हो तो उसकी परवाह न करना, यही वीरत्व है।
वीर जी महाराज की इसी विशेषता को लक्ष्य करके उनके भक्त शायर ‘आजाद’ ने उन पर नज्म लिखी थी-
सफ़ह-हस्ती पे रहता है, हमेशा नाम वीरों का।
कज़ा का नाम होता है, खयालेखाम वीरों का।
फ़तह की मुहर होती है, सदा अंजाम वीरों का।
नहीं मुमकिन कि काम आये कभी ना काम वीरों का।
कि बनकर वीर लाया ‘वीर’ है पैगाम वीरों का।
हमारा नाम वीरों का, हमारा काम वीरों का।
और ऐसे ध्येयनिष्ठ धुन के धनी धु्रवव्रती वीरों को अपने कंटकाकीर्ण पथ पर अकेले ही चलना होता है। कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर का प्रसिद्ध गीत है- जॉदि तोर डाक सुने केउ ना आशे, तोबे एकला चलो रे। यदि तुम्हारे आह्वान को सुनकर कोई न आए, तब तुम अकेले ही चलो। (क्रमशः) - शिव कुमार गोयल

Immortal martyrdom of the present age | Srimanmahatma Ramchandra Veer Maharaj | Sant Siromani | Shriram Kathamrat | Lalkrishna Adwani | Revolutionary Revolution | Bhishma Pratigya | Veer Pratigya | Protect the nation | Blind Faith | Ideal of Indian Nation | Indian Culture | Divyayug | Divya Yug |