ओ3म् इमं स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सम्महेमा मनीषया।
भद्रा हि न: प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ (सामवेद 66)
ऋषि:कृत्स:। देवता अग्नि:। छन्द:जगती। स्वर: निषाद:॥
शब्दार्थ- (वयम्) हम उपासक लोग (इमं स्तोमम्) इस स्तोत्र के (अर्हते) योग्य (जातवेदसे) वेद-प्रकाशक परमात्मा को (मनीषया) सूक्ष्म-बुद्धि से (रथमिव) रथ के समान (सम्महेमा) बढावें । (अस्य) इस परमात्मा की (संसदि) ध्यानशाला में (न:) हमारी (प्रमति:) पवित्रबुद्धि (भद्रा हि) शुद्ध होती ही है। (अग्ने) हे प्रकाशस्वरूप (तव) आपकी (सख्ये) अनुकूलता में (मा) न (रिषामा) दु:खी होवें।
व्याख्या- मन्त्र में चार बातें कही गयी हैं- (1) हमारी सच्ची स्तुति का पात्र वह प्रभु ही है। (2) अपनी सूक्ष्मबुद्धि से न्याय-नियमों को समझकर इस प्रकार विस्तृत करो, जैसे रथ-चालक अभ्यासार्थ थोड़े से चलाये रथ को फिर अपनी बुद्धि से भिन्न-भिन्न मार्गों में चला लेता है । (3) प्रभु की उपासना से हमारी बुद्धि कल्याणी बनती है । (4) जो वास्तव में प्रभु के मित्र बन जाते हैं, वे संसार में कभी दु:खी नहीं हो सकते । अब क्रमश: एक-एक बात पर विचार करिये।
तुम्हारी स्तुतियों का योग्य पात्र वह प्रभु ही है। रे मनुष्य ! तू किसकी प्रशंसा में कविता के पंखों पर उड़कर पृथिवी और आकाश के कुलाबे मिलाता है ? किसके यशोगान में लच्छेदार वक्तृताओं और निबन्धमालाओं को प्रस्तुत करता है ? उसी मनुष्य को प्रसन्न करने के लिये, जो तनिक से व्यतिक्रम पर तेरे सब किये कराये पर पानी फेर देता है, थोड़ी सी बात पर जिसके हृदय में प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक उठती है । तू स्मरण रख ! यह सौदा बहुत महंगा है । तू लाख यत्न करके भी इन्हें प्रसन्न न कर पायेगा।
यदि तू वस्तुत: अपनी स्तुति को सार्थक बनाना चाहता है, तो उस अनन्त महिमा-मण्डित प्रभु के गुण गा। तल्लीन होकर यदि तू उसकी स्तुति में लग जावे, तो उसको प्रसन्न करना इन सांसारिक प्रभुओं से कहीं सरल है। किसी नीतिकार ने बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही है-
शीतवातातपक्लेशान् सहन्ते यान् पराश्रिता:।
तदंशेनापि मेधावी तपस्तप्त्वा सुखी भवेत्॥
सांसारिक प्रभुओं के सेवक उन्हें रिझाने के लिये जिन सर्दी-गर्मी और धूप-ताप के कष्टों को सहन करते हैं, बुद्धिमान् मनुष्य उससे कहीं कम तप से प्रभु को प्रसन्न करके सारे जीवन भर सुखी रह सकता है । एक-दूसरे मनीषी ने भी बहुत प्रभावपूर्ण परामर्श दिया है-
अबुधैरर्थलाभाय पण्यस्त्रीभिरिव स्वयम्।
आत्मा संस्कृत्य संस्कृत्य परोपकरणी कृत:॥
मूर्ख लोगों ने थोड़े से सांसारिक लाभ के लिये वेश्याओं के समान अपने आपको सजा-सजाकर के दूसरों के अर्पण कर दिया है । पर वस्तुत: जिनकी वाणी उस परम रस को चख लेती है, वह कभी मानव के गुण-गान में प्रवृत्त नहीं हो सकती । भक्त सूरदास के शब्दों में कहना हो तो कहिये-कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै। गोस्वामी तुलसीदास के विषय में प्रसिद्ध है कि उनकी काव्य-प्रतिभा को सुनकर अकबर बादशाह ने अपनी प्रशस्ति में कुछ लिखने का अनुरोध कराया। इस प्रस्ताव को सुनकर गोस्वामी जी ने उत्तर दिया था कि ‘ जो वाणी राम के गुण गाकर पवित्र हो गयी है, वह अब और किसी के यशोगान में प्रवृत्त नहीं हो सकती।’
ऋषि दयानन्द जी महाराज ने भी बरेली में, जब उन्हें अंगे्रज अफसरों की उपस्थिति में ईसाइयों की आलोचना न करने को कहा गया, तो यही उत्तर दिया था कि-“ हम इन कमिश्नरों आदि को देखें कि प्रभु की आज्ञा का पालन करें ? हम तो जो सत्य है वही कहेंगे, किसी को रुचिकर हो या न हो, इसकी चिन्ता नहीं ।’’
मन्त्र की दूसरी बात है, संसार में प्रभु की न्याय-व्यवस्था को समझो और समझने के पश्चात् उसका विस्तार करो । बहुत से लोग इन न्याय-नियमों को न समझने के कारण ही उलटे मार्ग पर चल पड़ते हैं । नास्तिकों का मत तो आधारित ही इस बात पर है। जैसे अधिकांश लोग यह प्रश्न किया करते हैं कि-“ प्रभु हमारा शुभचिन्तक पिता है तो जब हम पाप की ओर प्रवृत्त होते हैं, तभी क्यों नहीं रोकता ? जब हम पाप कर बैठते हैं तो फिर कसर निकालता है गिन-गिनकर। क्या वह हमें दु:खी देखने में ही प्रसन्न है ? यदि वह पाप करने के समय ही सावधान करता तो हमें क्यों यह दुष्परिणाम भोगना पड़ता ?’’
इस प्रश्न का विवेचन स्व. श्री पं. रामचन्द्र जी देहलवी बहुत रोचक ढंग से किया करते थे। उसी के आधार पर लिखना अधिक समीचीन होगा। वे कहा करते थे- “स्कूल के एक अध्यापक महोदय हैं । जिस स्कूल में पढाते हैं, उसी में बच्चों के साथ उनका अपना लड़का भी पढता है । मास्टर जी बच्चों को बड़े परिश्रम से पढाते हैं और अपने बच्चे को तो स्कूल के अतिरिक्त घर पर भी समय देकर एक-एक बात को मस्तिष्क में बिठा देते हैं । अब वर्ष भर की तैयारी के बाद परीक्षा का समय आया और परीक्षक महोदय ने उसी पुस्तक में से प्रश्न दिये, जो क्लास में भली प्रकार पढायी गयी थी। परीक्षक महोदय स्वयं तो एक कुर्सी पर बैठ गये और मास्टर साहब को निरीक्षण के लिये कहा, ताकि कोई विद्यार्थी किसी से पूछ न सके और नकल भी न कर सके।
मास्टर जी निरीक्षण करते हुए घूम रहे हैं और कभी-कभी लिखते हुए बच्चों की कापी पर भी दृष्टिपात कर लेते हैं । इसी क्रम में घूमते हुए अपने पुत्र के पास आ खड़े हुए। कापी पर दृष्टि गयी तो देखा कि लड़का प्रश्न का उत्तर अशुद्ध लिख रहा है । पिताजी इस अशुद्धि को देख भी रहे हैं। वे स्वयं इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर जानते भी हैं । पुत्र का हित भी उद्देश्य है कि यह उत्तीर्ण हो जावे, किन्तु फिर भी मर्यादा में जकड़ हुए उसे बताते नहीं । इस समय उनके बताने को कोई उचित नहीं समझेगा। क्यों ? क्योंकि यह परीक्षा का समय है ।’’
ठीक यही स्थिति प्रभु के लिये भी है। उसने अपनी असीम कृपा से सृष्टि के प्रारम्भ में ही अपना पवित्र ज्ञान देकर संसार के व्यवहार के नियम बता दिये हैं । किन्तु जब उनके आचरण का, दूसरे शब्दों में परीक्षा का समय आता है, तब वह किसी को कैसे बता सकता है ? फिर भी उसकी असीम करुणा है कि बुराई करने के समय मनुष्य के मन में भय, शंका और लज्जा उत्पन्न करके उसे बुराई न करने का संकेत करता है और शुभकर्म के समय हर्ष और उत्साह जगाकर वैसा आचरण करने की प्रेरणा करता है। किन्तु जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है । इस आधार पर वह अपनी स्वाधीनता से जो भी बुरा अथवा अच्छा कर्म करने का निर्णय करता है, प्रभु उसी आधार पर फल का निश्चय कर देते हैं । स्वयं वेद में कहा है- ‘पक्तारं पक्व: पुनराविशाति (अथर्ववेद)। जैसा करो वैसा भरो। इसीलिये इस मन्त्र में कहा कि उसकी न्याय-व्यवस्था को समझो और उसका विस्तार करो तथा उस ज्ञान को संसार का मार्गदर्शन करते हुए दूसरे भूले-भटकों तक पहुंचा दो। यही रहस्य दया और न्याय को समझने में है ।
मन्त्र की तीसरी बात है, उपास्य के गुण उपासक में आने चाहिएं। यदि नहीं आते तो कहीं न कहीं त्रुटि अवश्य है। लगता है वह भक्ति न होकर ढोंग है। उपासना का अर्थ है, समीप बैठना। लोक में आप देखते हैं कि पानी के पास बैठने वाला शीतलता अनुभव करता है और अग्नि के समीप बैठने वाला उष्णता का । यही बात प्रभु की उपासना के लिये भी है । जो भक्त प्रभु को न्यायकारी मानकर उसके न्यायपूर्ण कामों को हृदयंगम करता है, वह दूसरों के साथ न्याययुक्त व्यवहार करे । प्रभु सबका भला चाहते हैं । यदि उपासक सच्चा है तो वह भी सबका भला चाहेगा। संसार की रक्षा के लिये दुष्टों और दुराचारियों की शक्ति क्षीण करने में भी एक भक्त को सदा कटिबद्ध रहना चाहिये ।
जब उपासक में उपासना के द्वारा ये दिव्य गुण आने लग जावें, तो बुद्धि के कल्याणमय होने में क्या सन्देह रह गया ? विचार बीज है तो कार्य उसका अंकुर है । जैसा बीज होगा वैसा ही पौधा होगा और उस पर फल भी वैसा ही लगेगा । इस स्थिति में साधक पापों को परे धकेलकर भद्रता का भाजन बन जाता है ।
मन्त्र की चौथी बात है, जो भक्त प्रभु का मित्र बन जाता है, वह संसार में कभी दुखी नहीं होता । कर्मफल के आधार पर सांसारिक कष्ट आते भी हैं तो उन्हें वह सहर्ष स्वीकारकर उनका स्वागत करता है-
दर्द होता नहीं हर किसी के लिये ।
खुदा की देन है जिसको नसीब हो जावे।
निश्चित ही संसार के ताप उसका कुछ न ब़िगाड़ सकेंगे । वह उनकी पहुँच से ऊँचा उठ जाता है।
किन्तु सखा बनने के लिए गुणों की समानता अपरिहार्य है । मित्रता के भावों के उद्दीप्त होते ही आप मित्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठेंगे। जब मिलन की भावना तीव्र होगी तो संसार के विषय-सुखों का आकर्षण फीका हो जाएगा। संसार के सब रस नीरस लगेंगे। रहीम के शब्दों में हालत यह होगी-
प्रीतम छवि नयनन बसी परछवि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि आप पथिक फिर जाय॥ - पं. शिवकुमार शास्त्री
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