वैसे तो सभी वेदमन्त्र अनूठी भावगरिमा से भरे हुए हैं, पर गायत्री मन्त्र भारतीय जनमानस में महामन्त्र के रूप में आदृत हुआ है। मनु ने इसकी महिमा के विषय में लिखा है कि परमेष्ठी प्रजापति ने तीनों वेदों से इसके एक-एक पाद को दुहा है। उन्होंने इसका जप ओंकारपूर्वक तथा भूः, भुवः, स्वः इन व्याहृतियों सहित करने का विधान किया है और यह लिखा है कि जो वेदज्ञ विप्र दोनों संध्याकालों में इस मन्त्र का जप करता है उसे वेद पढ़ने का पुण्य प्राप्त हो जाता है।1 यह भी कहा है कि जो द्विज उक्त विधि से एक हजार बार जप करता है, वह महीने भर में बड़े-से-बड़े पाप से ऐसे छूट जाता है जैसे साँप केंचुली से।2 मनु यह भी लिखते हैं कि जो तीन वर्ष तक निरालस्य होकर प्रतिदिन इसका अध्ययन करता है वह परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।3
ओ3म् तथा व्याहृतियों सहित लिखने पर प्रचलित गायत्री मन्त्र का यह रूप होता है-
ओ3म् भूर्भुवः स्वः।
तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥4 (ऋग्वेद 3.6.2.10, यजुर्वेद 3.35, 22.9, 30.2, 36.3, सामवेद उत्तरार्चिर्क 13.4.3)
इस गायत्री के तीन नाम प्रसिद्ध हैं- गायत्री ऋचा, सावित्री ऋचा और गुरुमन्त्र। गायत्री नाम का प्रथम कारण इसका गायत्री छन्द में निबद्ध होना है। जिस छन्द में तीन पाद होते हैं तथा प्रत्येक पाद में आठ-आठ अक्षर होते हैं उसे गायत्री छन्द कहते हैं। यदि किसी पाद में एक अक्षर कम हो अर्थात् 8 अक्षरों के स्थान पर 7 ही अक्षर हों तो वह छन्द निचृद्गायत्री कहलाता है। प्रस्तुत गायत्री भी निचृद्गायत्री है । क्योंकि इसके प्रथम पाद में 7 ही अक्षर हैं। गायत्री छन्द वाले यद्यपि अन्य भी अनेक मन्त्र हैं। तथापि गायत्री छन्द वाले मन्त्रों में अपनी विशेष अर्थगर्भता के कारण प्रस्तुत मन्त्र गायत्री कहा जाने लगा। गायत्री नाम का दूसरा कारण इसका गमनार्थक ‘गै’ धातु से निष्पन्न होना है। इसके द्वारा भक्त भगवान् के तेज की प्राप्ति का गान करता है, अतः इसका नाम गायत्री है। उक्त ऋचा का नाम सावित्री इस कारण है क्योंकि इसका देवता सविता है । अर्थात् ऋचा सविता-विषयक है या सविता के तेज की इसमें प्रार्थना है।
अब विचारणीय है कि यदि जैसा मनु ने कहा है, ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेद इन तीनों वेदों से इस गायत्री ऋचा का एक-एक पाद दुहा गया है, तो ऐसा होना चाहिए कि प्रत्येक पाद स्वयं में पूर्ण अर्थवाला हो। ऐसा नहीं होना चाहिए कि प्रत्येक पाद को अलग-अलग पूर्ण अर्थवाला न मानकर दूसरे पादों से शब्दों को लेकर अन्वय करें। प्रचलित अर्थ-प्रक्रिया यह है- (वयम्) सवितुः देवस्य तत् वरेण्यं भर्गःधीमहि, यःनः धियः प्रचोदयात्। परन्तु इसमें प्रत्येक पाद का स्वतंत्र अर्थ नहीं रहता। अतः आगे इस मन्त्र की ऐसी व्याख्या उपस्थित की जा रही है, जिसमें प्रत्येक पाद स्वतंत्र रहता है।
मन्त्र का देवता ’सविता‘ है। सविता प्रकृति में सूर्य का नाम है। सूर्य के समान जो परम प्रकाशमान तथा प्रकाश का स्रोत है, वह परमेश्वर सविता है। सविता प्रभु स्वयं ही प्रकाशमान नहीं है, किन्तु सूर्यसम प्रकाशक होकर वह हम मानवों के हृदय में भी अपने उस प्रकाश को प्रेरित करने वाला है। सविता का अर्थ प्रेरक होता है, प्रेरणार्थक ‘षू’ धातु से यह शब्द बना है।
अब हम मन्त्र के भाव पर आते हैं। मंत्र के तीन भाग किए जा सकते हैं। तीन ही उसके चरण हैं । एक-एक चरण में एक-एक भाग आ जाता है। पहला भाग है- तत् सवितुर्वरेण्यम्। भक्त अपने भगवान् सविता के तेज और प्रकाश पर मुग्ध होकर कहता है- अहा ! देखो, सविता प्रभु की ज्योति कैसी वरणीय है ! जो एक बार इसकी झाँकी पा ले, वह इस पर लट्टू होकर आनन्द से नाचने लगे। जो एक बार इसके दर्शन कर ले, फिर वह इसे पाने के लिए लालायित हो उठे। सचमुच सविता की ज्योति ऐसी ही उज्ज्वल है। उपनिषत्कार उसकी महिमा का गान करते हुए कहते हैं-
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं, नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥ कठोपनिषद् 5.15
अर्थात् ऐसी दिव्य उसकी ज्योति है कि उसके आगे सूर्य-चाँद-तारे सब फीके पड़ जाते हैं। बिजली की चमक उसके आगे कुछ नहीं, अग्नि की तो बात ही क्या ! उसी ज्योति के पुञ्ज में से थोड़ी सी ज्योति लेकर ये सब चमक रहे हैं।
तो उस ज्योति के लिए इस गायत्री मन्त्र में भी भक्त कह रहा हैकि उस सविता की ज्योति बड़ी स्पृहणीय है। यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि जब कोई व्यक्ति कोई अद्भुत वस्तु देखता है या उसके विषय में सुनता है, तब एकदम उसके मुख से उस वस्तु की स्तुति निकल पड़ती है। वैसे ही उपासक भगवान् की दिव्य ज्योति को देखकर उसकी स्तुति कर रहा है कि उस सविता की ज्योति वरणीय हैअर्थात् ऐसी है कि उसे देखकर हर कोई चाहेगा कि यह ज्योति मुझे भी मिल जाए।
स्तुति के बाद प्रार्थना की बारी आती है। मनुष्य जिसकी स्तुति करता है, उसे फिर अपने लिए मांगता है। इसलिए सविता के प्रकाश की स्तुति के उपरान्त भक्त कह उठता है- भर्गो देवस्य धीमहि। सविता के जिस प्रकाश की ऐसी स्तुति है, हम चाहते हैं कि वह स्पृहणीय प्रकाश हमारे अन्दर भी स्थित हो जाए, उसके दिव्य आलोक से हमारा हृदय भी जगमगा उठे।
मन्त्र का तीसरा भाग है- धियो यो नः प्रचोदयात्। सविता के प्रकाश को हम अपने अन्दर क्यों धारण करना चाहते हैं ? इसलिए कि वह आकर हमारी बुद्धि को प्रेरित कर देवे। मानो हमारी बुद्धि प्रसुप्त पड़ी है, सविता प्रभु का प्रकाश उसे आकर जगा देगा और क्रिया में प्रेरित कर देगा, जैसे कि सविता सूर्य का प्रकाश प्रातःकाल आकर सोये हुए प्राणियों को जगा देता और कर्मों में प्रवृत्त कर देता है। हमारे हृदयों में प्रकाशक व प्रेरक सविता का उदय हो जाने पर हमारी बुद्धि के आगे एक उजाला खिल उठेगा, जिस उजाले में वह गहन से गहन विषयों का विवेचन कर सकेगी। हमारे आगे से अज्ञान का अँधेरा मिट जाएगाऔर ज्ञान-प्रकाश से हमारा अन्तःकरण आलोकित हो उठेगा। जैसे निष्क्रिय पड़ी किसी मशीन को कारीगर आकर प्रेरणा दे देता है, फिर वह चल पड़ती है और नयी-नयी वस्तुएँ उस मशीन से बनकर निकलने लगती हैं, वैसे ही निष्क्रिय-सी बनी हुई हमारी बुद्धि को सविता अपने प्रकाश से एक प्रेरणा दे देगा। उस प्रेरणा को पाकर हमारी बुद्धि नवीन-नवीन कल्पनाओं और नवीन-नवीन विज्ञानों की सृष्टि करने में समर्थ हो सकेगी। सविता के प्रकाश की किरण को पाकर हमारी बुद्धि कुण्ठित व किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं रहेगी, अपितु कुशाग्र तथा विवेक की ज्योति से आभासित व स्फुरित हो उठेगी। वैदिक कोष निघण्टु के अनुसार ‘धी‘ शब्द प्रज्ञा और कर्म5 दोनों का वाची है। सविता प्रभु के द्वारा प्रदत्त अन्तःप्रकाश से हमारी बुद्धियाँ और क्रियाएँ दोनों ही लक्ष्य की ओर प्रेरित हो सकेंगी।
यह इस गायत्री मन्त्र का भाव है। इससे हम कल्पना कर सकते हैं कि इस मन्त्र को इतना अधिक गौरवास्पद स्थान क्यों प्राप्त हुआ है और क्यों यह समस्त आर्य जाति का मूलमंत्र बना हुआ है। यह है ‘बुद्धि और ऊर्ध्वगति की स्फुरणा का गीत’। हमने अपने मूल मन्त्र में बढ़िया-बढ़िया स्वादिष्ट भोजन नहीं माँगे, असीम धन-दौलत नहीं माँगी, स्त्री-पुत्र-परिजन नहीं माँगे, हमने माँगी है ‘दिव्य प्रकाश से जगमगाती हुई बुद्धि और दिव्यक्रिया’। निःसन्देह वेदमन्त्रों में ऐसी प्रार्थनाएँ हैं कि हमें उत्तमोत्तम भोजन मिलें, भरपूर ऐश्वर्य मिलें, सौ वर्ष की आयु मिले, स्त्री-पुत्र-परिजन मिलें, पर अपने मूलमन्त्र में हमने इन्हें नहीं माँगा है। हमारी मूल माँग है बुद्धि और क्रियाशीलता की। बुद्धि का झरना हमारे अन्दर झर पड़े तो बुद्धि के बल से तथा क्रियाशीलता से अन्य सब ऐश्वर्यों को हम सहज में ही उपलब्ध कर सकते हैं। बुद्धि स्फूर्त हो गई, सक्रियता, ऊर्ध्वगति एवं लक्ष्य की ओर प्रसरण आ गया तो मानो सब कुछ मिल गया।
निरुक्त में एक प्रसंग आता है कि जब ऋषि पैदा होने बन्द हो गए तब मनुष्य देवों से बोले कि अब कौन हमारा ऋषि होगा, जो हमें मार्ग दर्शाएगा? तब देवों ने उन्हें कहा कि ‘तर्क’ को ही तुम अपना ऋषि समझो। अर्थात् जिस विषय में तुम्हें संशय उपस्थित हो उसे बुद्धि की कसौटी पर कसकर देख लो। बुद्धि तुम्हारे लिए ऋषि का काम करेगी। किन्तु यदि बुद्धि कुण्ठित हो या अर्धनिद्रित सी पड़ी रहने वाली हो, तब वह ऋषि का काम नहीं कर सकती। इसीलिए इस गायत्री मन्त्र में मनुष्य प्रार्थना कर रहा है कि सविता अपने प्रकाश से हमारी बुद्धियों को प्रकाशित, तीक्ष्ण, सजग व क्रिया में प्रवृत्त कर देवे, जिससे हम पुरुषार्थी होकर सन्मार्ग पर अग्रसर हो जाएँ।
अब इस गायत्री ऋचा के आरम्भ में जो ‘ओ3म् भूर्भुवः स्वः’ लगाया गया है, उसका आशय भी देख लेना चाहिए। ओ3म् परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है जो ‘अ, उ, म्’ के योग से बना है। ‘अ’ से सृष्टि की उत्पत्ति, ‘उ’ से उत्पन्न सृष्टि का धारण तथा ‘म’ से उत्पादित तथा धारित सृष्टि का अन्त में समय आने पर संहार सूचित होता है । अतः सृष्टि का उत्पादक, धारक एवं संहारक प्रभु ‘ओ3म्’ है। ‘अ, उ, म्’ के सम्बन्ध में भी मनु का कथन है कि ये वेदत्रयी से दुहे गए हैं6। अतः ओ3म् तीनों वेदों का सार है। भूः, भुवः, स्वः से क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष तथा द्यौलोक सूचित होते हैं। जैसे सविता सूर्य अपनी किरणों से तीनों लोकों में पहुंचा हुआ है, वैसे ही ओंकारपदवाच्य परमेश्वर भी तीनों लोकों में व्यापक है। इस प्रकार प्रथम परमेश्वर के सृष्ट्युत्पत्ति-स्थिति-संहारकर्ता के रूप को तथा उसके पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं द्यौलोक में व्यापक होने के रूप को साक्षात्कार करने के उपरान्त ही भक्त गायत्री ऋचा के गान में प्रवृत्त होता है। भूः, भुवः, स्वः से परमेश्वर की सच्चिदानन्दस्वरूपता भी हृदयंगम होती है। उपासक प्रभु के दिव्य तेज को तीनों लोकों में सर्वत्र फैला हुआ देखकर कहता है कि यह तो सबके लिए बड़ा ही वरणीय है, ग्राह्य है। फिर दूसरे चरण में कहता है कि मैं चाहता हूँ यह तेज मुझे भी मिल जाए, मेरे अन्दर स्थिर हो जाए। फिर तीसरे चरण में कहता है कि वह सविता प्रभु अपने तेज से मेरी बुद्धि एवं मेरे कर्म को आलोकित कर दे, दिव्यता की ओर प्रेरित कर दे।
पाद-टिप्पणियाँ एवं पदार्थ-
1. एतरक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम्।
सन्ध्ययोर्वेदविद् विप्रो वेदपुण्येन युज्यते॥ मनुस्मृति 2.77
2. सहस्त्रकृत्वस्त्वभयस्य बहिरेतत् त्रिकं द्विजः.
महतोऽप्येनस मासात् त्वचेवाहिर्विमुच्यते॥ मनुस्मृति 2.78
3. योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान्॥ मनुस्मृति 2.82
4. (सवितुः) सविता देव का (तत्) वह प्रकाश (वरेण्यम्) वरणीय है, चाहने योग्य है। (देवस्य) सविता देव के (भर्गः) उस प्रकाश को (धीमहि) हम धारण कर लेवें। (यः) जो सविता देव अपने प्रकाश से (नः धियः) हमारी बुद्धियों व कर्मों को (प्रचोदयात्) प्रेरित कर देवे, स्फुरित कर देवे।
5. धीः=कर्म (निघण्टु 2.1), प्रज्ञा (निघण्टु 3.9)।
6. अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवः स्वरितीति च॥ मनुस्मति 2.76 - डॉ. रामनाथ वेदालंकार
Gayatri Mantra | Ved Mantra | Guru Mantra | Rig Veda | Samaveda | Yajurveda | Earth | Sky | Parmatma | Ved | Vedas | Purity | Sant Mahatma | Divya Yug | Vedic Motivational Speech & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) for Brajarajnagar - Palani Chettipatti - Guru Har Sahai | Newspaper, Vedic Articles & Hindi Magazine Divya Yug in Budha Theh - Palashban - Hajipur | दिव्ययुग | दिव्य युग |