वेद के इस ‘मन्दयन्’ शब्द को पढकर हृदय में कोई पुलकन का आभास नहीं हुआ । क्योंकि यह शब्द प्रचलन में नहीं है । यदि हमारी समझ में आ जाये कि यह शब्द आनन्दयन्-उल्लासयन् अथवा भरपूर हास्य-आवाहन के लिए है, तो हमारा मन प्रफुल्लित हो उठेगा । हास्य-प्रसंग में भी वेद को फूहड़ता या भोंडापन पसन्द नहीं है । वेद का हास्य वह हास्य है, जो हृदय को हास्य-स्फुरण से भरते हुए भी उसकी पवित्रता को बनाये रखने के लिये सावधान भी करता है । देखिये द्विपदा गायत्री की एक झलक - पवस्व सोम मन्दयन्निन्द्राय मधुमत्तम:॥ (सामवेद 1810)
(सोम) हे प्यारे परमेश्वर (इन्द्राय) इस जीव को (पवस्व) पवित्रकर (मन्दयन्) आनन्दित करता हुआ (मधुमत्तम:) अत्यन्त माधुर्यपूर्ण मोद से भरपूर कर दे । उत्तमोत्तम कोटि के आनन्द को प्रदान कर और पवित्रता भी बनाए रख ।
जब हमें आनन्द प्राप्त होता है, तब मानस के कपाट खुल जाते हैं, जिसका संकेत अधरों पर खिली हुई मुस्कान व खुले हुए मुख के अट्टहास से होने लगता है। ये हँसने-रोने के वरदान भगवान ने मानव को प्रदान कर उसके मानस के भयंकर भार को हल्का करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है । पशु भी परिस्थिति वश हँसते व रोते होंगे । किन्तु वे इसे प्रकट न कर सकने के कारण अपने अन्तस्थल में भार-प्रति-भार बढाकर अधिकाधिक बोझिल हो जाते होंगे। आप अपने होठों पर मुस्कान लाइये, बिना कोई व्यय किये यह मुस्कान औरों के होठों पर खिल जायेगी। हँसने से मन का मैल निकल जाता है और आनन्द का द्वार खुल जाता है । आज के तनावपूर्ण परिवेश ने मनुष्यों के हास्य को दुर्लभ बना दिया है । इस सम्बन्ध में उर्दू के किसी शायर ने बहुत अच्छी दो पंक्तियाँ लिखी हैं, जिसका हिन्दीकरण लेखक ने कुछ इस प्रकार किया है- या तो दीवाना हँसे या वो हंसे जिसको ईश वरदान दे, अन्यथा इस दुष्काल में मुस्कराता कौन है ।
देखने में आता है कि वे सन्त-महात्मा जो सांसारिक उलझनों से उपराम होते हैं और अपने नाम के साथ ‘आनन्द’ को जोड़कर चलते हैं, उनके लिये भी यह हास्यानन्द सरलता से सुलभ नही है । दूरदर्शन शृंखलाओं में सन्तों की कथाओं के सजीव प्रसारित फूहड़ नृत्य व गायन इसके साक्षी हैं । प्रयागराज में गत अर्द्धकुम्भ के समय दुर्गा नृत्य के माध्यम से एक प्रसिद्ध फिल्म सुन्दरी की कला का भरपूर सुख महात्माओं ने प्राप्त किया । कुछ दिन पूर्व एक समृद्ध सम्प्रदाय की भगवावेशधारी स्वामियों की एक सभा का आयोजन मुम्बई में हुआ, जिसका सजीव प्रसारण दूरदर्शन पर किया गया । महात्माओं को हंसना था, इसलिये दिल्ली से एक हास्य कवि बुलाये गये। उन्होने ईश्वर-जीव-प्रकृति, भगवान राम, कृष्ण, दयानन्द, विवेकानन्द की गाथायें नहीं सुनाई, प्रत्युत लालू-राबड़ी व फिल्मी तारिकाओं की नग्नताओं के चटपटे चुटकुले सुनाकर सन्तों को हँसाया । आनन्द विशेषण भूषित सन्तों को प्रभु-प्रकृति-सूर्य-चन्द्र-पुष्प-उद्यान का दृश्यावलोकन कर हास्य नहीं उपजता है । उन्हें अति सामान्य मनुष्य के स्तर पर उतरकर हँसना पड़ता है। अद्भुत होता है यह हास्य। इसे बाँटो तो बढ जाएगा और हाँ, इसे रोको तो घट जाएगा ।
एक संध्या को शोकाकुल मन से पैदल चलते- चलते दूर निकल गया । लौटते समय एक स्थल से गुजरा, तो पाया बहुत से बड़े-बड़े वृक्षों पर चिड़ियाँ चहचहा रही हैं, कई-कई ठेलों पर फल बेचे जा रहे हैं। मन्द-मन्द वायु बह रही है । मन की व्याकुलता छटने लगी है । मक्का-चना-मुरमुरा आदि के भुने हुए अनाज की एक दुकान पर एक छोटी कन्या बैठी थी । उसका पिता कहीं काम से गया था । इसलिये मैंने उससे कहा, बेटी खिले-खिले चने तोल दो। उसने उत्तर दिया- बाबा, मैं तो आपको खिले -खिले दे रही हूँ, आप मुझे खुले-खुले दीजिये । उसके यह शब्द सुनकर मुझे स्वाभाविक रूप से हंसी आ गयी और मैं खिलखिला पड़ा । खुले-खुले से उसका आशय बड़े नोट के स्थान पर खुले हुए सिक्कों से था। इस प्रसंग से मेरा शोकाकुल मन मोदालोक में पहुँचकर फिर से स्वस्थ चिन्तन-मनन में निमग्न हो गया ।
सेवाकाल में शासन स्तर पर हमारे विभाग के एक वरिष्ठ आई.ए.एस अधिकारी प्रमुख सचिव हुआ करते थे । वे इतने तेजस्वी धीर-गम्भीर एवं कठोर थे कि उनके भ्रमण-निरीक्षण की सूचना मात्र से उच्च विभागीय अधिकारी थरथरा उठते थे । अत्यावश्यक कार्य से कुछ क्षणों के लिए मुझे उनसे भेंट करनी थी । ठीक समय प्रात: मैं सचिवालय स्थित उनके कक्ष में उपस्थित हो गया । पता चला वे तो और पहले आ चुके हैं । मैंने झांककर देखा तो पाया वे अन्दर के विस्तृत प्रांगण में खिले हुए फूल-पौधों को देखकर हँस रहे हैं ।
वेद मन्त्र के अनुसार हास्य से हृदय में प्रफुल्लता आये, पर साथ में शुभ शुचिता भी आ जाये । लेखक अपने वयोवृद्ध मित्र यतीन्द्रनाथ उपाध्याय एवं केवल कृष्ण शर्मा के साथ प्रभात भ्रमण पर जाता है । जब सूर्योदय होने लगता है, तब ये दोनों मित्र आँखें बन्द करके सूर्य नमस्कार का पाठ देर तक करते हैं । ओ3म् तच्चक्षुर्देवदेवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् (यजुर्वेद 36.24) का मन्त्र पाठ करते हुए मैं अपने मित्रों से कहता हूँ, यह आँखें खोलने की वेला है बन्द करने की नहीं । सूर्य की मुस्काती हुई अरुणिम आभा के साथ मुस्काने के यही तो क्षण हैं। बाद में इसकी ताप तेजस्वी निगाहों का सामना भला कौन कर सकता है ! घर-परिवार-समाज में व्याप्त तनाव ने हास्य को मानो लुप्त ही कर दिया है । इसीलिये हास्य क्लब व हास्य योग के माध्यम से लोग इसकी पूर्ति करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । ऐसे भी व्यक्ति देखे गये हैं, जो स्वयं के हास्य के लिए दूसरों को रुलाते हैं । यह पवित्र हास्य नहीं है । ऐसे लोगों को बाद में रोना भी पड़ता है ।
एक बार महान दार्शनिक सुकरात से किसी ने पूछा, आपके गुरु कौन हैं ? सुकरात ने हँसते हुए उत्तर दिया कि दुनियाँ भर के जितने मूर्ख हैं, वे सब मेरे गुरु हैं । मूर्ख आपके गुरु कैसे हो सकते हैं ? उस व्यक्ति ने आगे जानना चाहा । सुकरात ने स्पष्ट किया, मैं यह देखने का प्रयास करता हूँ कि किसी व्यक्ति को उसके जिस दोष के कारण मूर्ख कहा जा रहा है, वह दोष मुझ में न आने पाये। इसी प्रकार मैं धीरे-धीरे दोषरहित होता गया हूँ । लोग उसकी मूर्खता पर हँसते रहे और मैं पवित्रता का वरण करता रहा।
कहा जाता है कि दार्शनिक सुकरात बहुत कुरूप थे । फिर भी वे अपने पास एक दर्पण रखते थे और उसमें बार-बार अपना मुँह देखते रहते थे । एक मित्र ने व्यंग्यपूर्वक इसका कारण जानना चाहा, तो उन्होंने कहा-“दर्पण देखकर मैं अपनी कुरूपता का प्रतिकार अच्छे कामों से करता हूँ । जो सुन्दर हैं, उन्हें भी ऐसे ही दर्पण देखते रहना चाहिये और सोचना चाहिये कि इस प्रभु प्रदत्त सौन्दर्य में कहीं दुष्कृत्यों का धब्बा न लग जाये । लेखक ने महात्मा आनन्दस्वामी जी की निकटता का आभास किया है और उनके सकारात्मक हास-परिहास का उल्लास भी पाया है । एक बार स्वामीजी किसी परिवार में वे ठहरे। दिन भर बच्चों के साथ खूब खेले । जब बच्चों के पिता घर आने लगे तो वे सब बच्चे छिपने लगे । स्वामी जी ने इन महाशय से इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि मैं जरा रोब से रहता हूँ । तब स्वामी जी ने उन्हें समझाया कि यह आपका घर है केन्द्रीय कारागार नहीं । आपके आते ही बच्चों का प्यार फूट पड़े, कोई कन्धे पर चढे, कोई पैरों से लिपटे, कोई बात करने लग जाये । बच्चों को गोद मिले, मोद मिले, थकावट दूर होकर आपको भी आमोद-प्रमोद मिले । स्वामी जी के घूंसे का स्पर्श और अधरों का हर्ष, मुझे आज भी अपने भाग्य का उत्कर्ष प्रतीत होता है।
ओ3म् सुनृतावन्त: सुभगा इरावन्तो हसामुदा:।
अतृष्या अक्षुध्या स्त,गृहा मास्मद बिभीतन॥ (अथर्व.7.69.6)
अर्थात् हे परिवार के लोगो ! तुम सत्यवादी, सौभाग्यशाली, अन्नादि समृद्धि से सम्पन्न, सर्वथा हँसने-खेलने वाले प्रसन्नचित्त, भूख-प्यास के कष्ट से रहित रहो। तुम हमसे भयभीत न हो । जैसे ईश्वर स्वयं से न डरने को कह रहा है, परिवार के पिता को भी ऐसा वातावरण बनाना चाहिये कि बच्चे उससे डरें नहीं ।
श्रीमती जी के लघु भ्राता के बच्चे ग्रीष्मावकाश में मेरे यहाँ आये । कनिष्ठ कन्या बड़ी चंचल थी । दो दिन बाद नि:संकोच मुझसे बोली, फूफाजी ! मैं डरते-डरते यहाँ आई हूँ । आप मेरे पिताजी से बहुत बड़े हैं, हमारे पिताजी से अधिक शुष्क व गम्भीर रहते होंगे । जब आप हम लोगों के साथ खेलने-हंसने-बोलने लगे, तो वह डर दूर हो गया ।
यदि परिवार में सर्वसम्पन्नता हो, पर हास्य माधुर्य की विपन्नता हो,तो वह सम्पन्नता भी चुभने वाले स्वर्णाभूषण के समान होगी । और यदि हास्य-माधुर्य की सम्पन्नता हो, तो विपन्नता भी फूल सी हल्की होगी तथा एक दिन उड़ जाएगी और रिक्त स्थान को सुख-सौम्यता से भर जायेगी।वेदभक्त की यही तो प्रार्थना है मधुजनिषीय मधु वंशिषीय (अथर्व 9.1.14) हे प्रभो ! मैं मधु उत्पन्न करूँ। अन्यों से भी मधु की याचना करूँ । एकपक्षीय प्रयास से माधुर्य वर्षा संभव नहीं । यदि हम अन्यो के प्रति व्यवहार माधुर्य बरसायेंगे तो वे भी हमारे प्रति मधु स्रोत बहाएंगे ।
दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे ।
जो रंज की धड़ियाँ भी खुशी में गुजार दे।
दिन प्रतिदिन की अति साधारण अवांछित घटनाओं की पीड़ा को पहाड़ समान बनने से तो हम रोक ही सकते हैं । ऐसा न हो कि रोते हुए जन्मने वाला आदमी शिकायतें करते हुए जिये और निराश मर जाये ।
किसी विचारक ने ठीक ही कहा है कि प्रभु ने तुमको अपार प्रेम दिया, तब तुम घुट-घुट कर क्यों जीते हो। प्रेम से जीओ। जब आप किसी से मिलते हो,तब आप खूब हँसते व प्रसन्न होते हो । इसके लिये आपने कोई प्रयत्न नहीं किया,यह सब अपने आप हो गया । प्रेम मांगने से कम होता है और देने से बढता है । प्रेम हर व्यक्ति चाहता है, पर चाहने से नहीं होता, प्रेम देने से होता है ।
एक आदमी एक मुनि के पास गया और बोला, महाराज ! कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे यह सारी दुनिया मेरे वश में हो जाये । मुनि ने पूछा कि तुम्हारे परिवारजन, पत्नी-बच्चे व नौकर-चाकर तुम्हारे वश में हैं ? उसने कहा नहीं । अच्छा, तो अपना मन तो तुम्हारे वश में होगा ? उसने कहा, नहीं । इधर-उधर भागता रहता है, कहना नहीं मानता । मुनि ने उसे अपने पास से भगाते हुए कहा, जाओ ! पहले अपने मन को वश में करो। एक लड़का फटी-पुरानी कमीज पहने कक्षा के बाहर खड़ा था । अध्यापक ने चिल्लाते हुए कहा, तुम फिर देर से आये। चले जाओ । लगभग दो घण्टे बाद अध्यापक की दृष्टि बाहर गयी, तो देखा कि वह लड़का वहीं खड़ा हुआ कक्षा में पढाये जाने वाले पाठ को सुन रहा है। अन्दर बैठे लड़के इतना ध्यान नहीं दे रहे थे, जितने मन से वह पढ रहा था । आखिर उन अध्यापक जी ने उसे कक्षा में बुला लिया । वह बालक रोज कई किलोमीटर चलकर पाठशाला में आता था । वही बालक बाद में के.आर. नारायणन भारत के महामहिम राष्ट्रपति के रूप में जाना गया । स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा- “कल किसने देखा है ? आएगा भी या नहीं, वर्तमान में भविष्य का निर्माण करो।’’ सन्त उडिया बाबा का कथन है, मानव में इच्छा है, सामर्थ्य नहीं । भगवान में सामर्थ्य है, इच्छा नहीं । इच्छाओं को सीमित कर हम उन्हें पाने की सामर्थ्य प्राप्त कर सक ते हैं । असीमित इच्छायें पूरी नहीं हुआ करती ।
एक सम्राट बीमार पड़ा । राजवैद्य ने पूरी चिकित्सा की, पर ठीक नहीं हुआ । राजपुरोहित ने बताया जी, यदि सम्राट को हँसी आ जाये तो ठीक हो जायेंगे । विदूषक भी सम्राट को नहीं हंसा सके । राजकुमारों ने कहा कि चाहे आधा राज्य भले ही चला जाये, पिताजी को हँसना चाहिये । राजपुरोहित ने फिर उपाय बताया कि किसी प्रसन्नमन हँसने वाले व्यक्ति का कुर्ता राजा को पहनाया जाये, तो यह हँस जायेंगे और स्वस्थ हो जायेंगे । बड़ी कठिनाई से राज्य में एक प्रसन्नमन हँसने-खेलने वाला व्यक्ति मिला तो, पर उसके पास कुर्ता ही नहीं था। - पं. देवनारायण भारद्वाज
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